कर्मफल का विधान
कर्मफल का विधान क्या है? वह किस प्रकार निर्धारित किया जाता है? यह एक अनसुलझा रहस्य है। इस अबूझ पहेली को हमारे ऋषि-मुनि हल करने का सदा ही प्रयास करते रहे। ग्रन्थों में इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया है और समझाया गया है। फिर भी इस विषय में सब लोगों की जिज्ञासा सदा बनी रहती है।
इसे समझ पाना हम लोगों के वश की बात नहीं। जब भी अवसर मिलता है, इस विषय पर चर्चा आरम्भ होने लगती है। उससे क्या निष्कर्ष निकल पाता है, यह जानना सबके लिए अति आवश्यक हो जाता है। एक सुप्रसिद्ध दृृष्टान्त की आज चर्चा करते हैं जिसमें श्री हरि और नारद जी के संवाद के माध्यम से कर्मफल के अनसुलझे सिद्धान्त को समझाने का प्रयास किया गया है। भगवान श्री हरि ने नारद जी से कुशल क्षेम पूछते हुए कहा- ‘आप पूरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण करते रहते हो, कोई ऐसी घटना बताओ जिसने आपको असमंजस में डाल दिया हो।‘
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नारद जी ने उत्तर देते हुए कहा- ‘प्रभु! अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूँ, वहाँ एक गाय दलदल में फँसी हुई थी। उसे बचाने वाला वहाँ पर कोई नहीं था। तभी एक चोर उस रास्ते से गुजरा। वह गाय को फँसा हुआ देखकर भी नहीं रुका। उलटे उस पर ही पैर रखकर दलदल को लाँघकर निकल गया। आगे जाकर उसे सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिल गई। थोड़ी देर के पश्चात वहाँ से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने गाय को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। अपना पूरा जोर लगाकर उसने गाय को तो बचा लिया।
मैंने देखा कि उस गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे जाकर एक गड्ढे में गिर गया और उसे चोट लग गयी। भगवान आप ही बताइए भला यह कौन-सा न्याय है?‘ भगवान मुस्कुराए, फिर बोले- ‘नारद! यह बिलकुल ही सही हुआ। जो चोर गाय के ऊपर पैर रखकर भागा था, उसके भाग्य से उसे एक खजाना मिलना था। उसके इस अपराध के कारण उसे केवल कुछ मोहरें ही मिल सकीं। वहीं उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी। गाय को बचाने के पुण्यकर्म के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसकी मृत्यु एक छोटी-सी चोट में बदल गई।‘
इसीलिए कहते हैं कि इन्सान के कर्मों से ही उसका भाग्य निर्धारित होता है। अब नारद जी को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था और वे सन्तुष्ट हो गए।
यह कहानी हम मनुष्यों को कर्मफल के विधान को समझा रही है। इसके अनुसार जैसे कर्म मनुष्य करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। कर्म करने में मनुष्य स्वतन्त्र है पर उसके फल का भोग करने में वह परतन्त्र है। जो शुभाशुभ कर्म मनुष्य अपने जीवनकाल में करता है, उन्हें मिलाकर ही उसका भाग्य बनता है। उसी के अनुसार उसे अगला जन्म मिलता है और उस जन्म में कब सुख-दुखादि द्वन्द्वों को उसे सहन करना पड़ेगा, इसका भी निर्धारण होता है। सुकर्म या दुष्कर्म जैसे भी चाहे वैसे कर्म मनुष्य कर सकता है। जब उन कर्मों का फल भुगतना पड़ता है तब उसकी इच्छा नहीं पूछी जाती।
वह फल तो उसे हर हालत में भोगना पड़ता है चाहे वह हँसे या रोए। उसे वहाँ कोई छूट नहीं मिलती। इन कर्मों की समाप्ति उनको भोगने पर ही होती है। यानी शुभकर्मों का फल मनुष्य के लिए सदा सुखदायक होता है। इसके विपरीत उसके दुष्कृत्यों का फल उसके लिए हमेशा दुखदायक होता है।
यही कारण है कि हमारे सभी शास्त्र और मनीषी सदा हमें अच्छे कर्मों में प्रवृत्त रहने के लिए प्रेरित करते हैं।
-चन्द्र प्रभा सूद