Looking for little joys

छोटी-छोटी खुशियों की तलाश

व्यस्त और परेशानियों भरे जीवन में इंसान को छोटी-छोटी खुशियों की तलाश करनी चाहिए। यदि वह हर छोटी-बड़ी खुशी को सहेजने की कला सीख जाएगा तो प्रसन्न रह सकता है। उदासी या अवसाद उसके पास फटक ही नहीं सकेंगे। उसे हर हाल में मस्त रहकर जीना आ जाएगा। इस तरह वह स्वयं तो प्रसन्न रहेगा ही, अपने सम्पर्क में आने वालों के लिए भी प्रेरणा बन जाएगा। उसके आसपास का वातावरण प्रसन्नता तथा स्फूर्ति देने वाला हो जाता है। जो भी उसके पास आएगा, उसे भी आनन्द की प्राप्ति होगी, वह भी प्रफुल्ल हो जाएगा।

हमें विचार यह करना है कि आखिर ये खुशियाँ कौन-सी हैं? इन्हें मनुष्य कैसे पहचान सकता है? इन खुशियों को मनाने का तरीका क्या होता है और क्या इन्हें ढूंढना इतना सरल है कि हर कोई इन्हें पा सकता है?
इन प्रश्नों के उत्तर में मैं केवल इतना ही कहना चाहूँगी कि ये खुशियाँ सदा हमारे इर्द-गिर्द ही घूमती रहती हैं। ये भी प्रतीक्षा करती रहती हैं कि मनुष्य इन्हें पहचाने और प्रसन्न होने के हर बहाने को तलाशे।

ये खुशियाँ हो सकती हैं-

छोटे बच्चे का दाखिला अच्छे स्कूल में होना, कक्षा परीक्षा या अर्धवार्षिक या वार्षिक परीक्षा में बच्चे के अच्छे अंक आना। घर में कोई नई वस्तु जैसे टी वी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, फूड प्रोसेसर, ए सी, गाड़ी आदि का आना। घर का फर्नीचर या इंटीरियर बदलना, नए कपड़े खरीदना। बच्चों के साथ देश या विदेश घूमने जाना। घर के सदस्यों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह होना और इनके अतिरिक्त थोड़े-थोड़े समय पश्चात आने वाले त्यौहार आदि।

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अब आप चाहो तो सकारात्मक बनकर इन सबमें खुशियाँ ढूंढकर प्रसन्न हो जाओ और परिवार को भी आनन्दित होने दिया जाए। अथवा नकारात्मक बनकर, पैसे का रोना रोते हुए, चिंतित रहकर अपना और सब परिजनों का मूड खराब कर दिया जाए। यह मनुष्य की सोच पर निर्भर करता है।

मनुष्य की मानसिकता के कुछ उदाहरण देखते हैं। बच्चे का अच्छे स्कूल में दाखिला हो गया, उन्हें किसी मित्र ने बधाई दी। वे तो ऐसे भड़क गए जैसे किसी ने उन्हें गाली दे दी हो। तपाक से बोले, ‘क्या बधाई यार! जिस स्कूल में मैं चाहता था, वहाँ इसका दाखिला नहीं हो पाया।’

इसके अतिरिक्त यदि वे उन बच्चों के विषय में सोच लेते जो सरकारी स्कूल में भी नहीं जा पाते, तो शायद इस प्रकार न भड़कते। बच्चे का अच्छे स्कूल में दाखिला होने की खुशी मनाते कि बच्चा अब नर्सरी से बारहवीं कक्षा तक वहाँ पढ़ेगा। उसका भविष्य सुरक्षित हो गया है। बच्चे के क्लास टेस्ट में अच्छे नम्बर आए। बहुत खुश होकर उसने अपनी कॉपी माता-पिता के सामने रखी। कॉपी देखते ही वे बोले, ‘क्लास टेस्ट में नम्बर लेकर आए तो क्या? परीक्षा में नम्बर लाकर दिखाना तो कुछ बात होगी।’

ऐसी स्थिति में बच्चा निराश हो जाएगा। उसे लगेगा कि पढ़ो तो भी और न पढ़ो तो भी मेरे माता-पिता नाराज़ ही होते हैं। नाराज़ होने के स्थान पर यदि बच्चे को शाबाशी दी जाती और भविष्य में ऐसे ही पढ़ने की प्रेरणा दी जाती तो उसका मनोबल बढ़ जाता। साथ ही कहते, ‘बेटे को गुलाब-जामुन पसन्द हैं। चलो, आज हम सब गुलाब-जामुन खाएँगे।’ इस तरह के व्यवहार से घर में खुशी का माहौल बन जाता है। इसके विपरीत पहली स्थिति में घर में निराशा का वातावरण बन जाता है।

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अब अन्य उदाहरण देखते हैं। घर में नई गाड़ी लेकर आए। किसी मित्र ने बधाई दी तो महाशय बिफर पड़े, ‘अच्छी भली गाड़ी थी, पड़ोसी की नई गाड़ी देखकर बच्चे पीछे पड़ गए। बस सारा दिन गाड़ी का रोना-धोना चलता रहता था। अब पहले वाली गाड़ी पुरानी थी तो क्या हुआ, काम तो चला रही थी। क्या करूँ, मजबूरी में गाड़ी लेनी पड़ी।’ इस तरह घर-बाहर बच्चों को कोसने से क्या लाभ? यदि सामर्थ्य थी तो नई गाड़ी आ गई, यह तो अच्छी बात है। होना तो यह चाहिए था कि गाड़ी में बिठाकर बच्चों को घूमाने ले जाते और मौसमानुसार मुँह मीठा कराते तो इससे सबका दिल प्रसन्न हो जाता।

यदि इसी तरह घर में कोई भी वस्तु लाने पर नाराजगी दिखाना कोई अच्छी बात नहीं है। कुछ नया सामान घर में आया है तो प्रसन्न होना चाहिए। ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने सामर्थ्य दी है। इसी तरह कुछ लोग त्योहारों के आने पर भी खर्चे का रोना रोकर उनका मजा किरकिरा कर देते हैं। दु:ख और परेशानियाँ तो जीवन में आती रहती हैं। अपनी सोच को बस बदलने की आवश्यकता है, फिर घर खुशियों से भर जाता है। इस प्रकार मनुष्य सकारात्मक बनकर जीवन में खुशियाँ हासिल कर सकता है। यह सत्य है कि ऐसे सकारात्मक घर में सदा ही सुख और समृद्धि का साम्राज्य रहता है।