जेहड़ी सोचां ओही मन्न लैंदा…
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपार रहमत – सत्संगियों के अनुभव
सचखण्ड वासी पे्रमी यशपाल इन्सां रिटायर्ड एस डी ओ बिजली बोर्ड पुत्र श्री राम नारायण चुघ निवासी कल्याण नगर सरसा (हरियाणा) ने पूर्व में अपने निजी अनुभव कुछ
इस तरह सांझे किए थे:-
सन् 1974 में बहुत कोशिश करने पर सतगुर दीन दयाल परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की दया मेहर से मेरी बदली फरीदाबाद से चण्डीगढ हो गई। जब मैंने चण्डीगढ़ में अपनी ड्यूटी बतौर जे.ई. ज्वाईन कर ली तो अगले ही दिन डेरा सच्चा सौदा सरसा में माहवारी सत्संग था। मेरे मन में बार-बार विचार आने लगा कि अभी-अभी बदली हुई है। सुषमा, दविन्द्र तथा घर का खर्च और सामान चंडीगढ़ लाने का काफी खर्च हो जाएगा। मकान भी किराए पर लेना है। परन्तु दूसरी तरफ मन में बहुत लगन थी कि कुछ भी हो, दरबार में सत्संग पर जरूर जाना चाहिए।
इन्हीं विचारों में जब मैं तीसरी मंजिल पर अपने दफ्तर जाने लगा तो अभी थोड़ा ही ऊपर गया था कि अचानक मेरी नजर सीढियों पर पड़े रुपयों पर पड़ी। जब रुपये उठाए तो देखा कि तीन दस-दस रुपये के नए नोट थे। रुपये मिलते ही मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहा। परम पिता जी ने सरसा का किराया दे दिया है। अब तो सत्संग पर अवश्य जाऊंगा। उस समय चण्डीगढ़ से सरसा का बस का आने जाने का किराया तीस रुपये था। सबसे हैरानी वाली बात यह थी कि मेरे दफ्तर वाली बिल्डिंग की चार मंजिलें थी तथा सभी मंजिलों में दफ्तर होने के कारण सीढियों पर इतनी भीड़ (आवाजाही) रहती थी कि सीढियां एक मिनट के लिए भी खाली नहीं रहती थी।
परन्तु प्यारे सतगुरु परम पिता जी ने मुझे सत्संग पर ले जाने के लिए तरस कमाया तथा किराया देकर सत्संग पर जाने के लिए पक्का कर दिया।
पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महराज के वचन सच ही हैं जो उन्होंने एक कव्वाली में फरमाए हैं:-
जेहड़ी सोचां ओही मन्न लैंदा,
मैं किवें भुल्ल जावां पीर नूं।
सतगुरु के उपकारों को भुलाया ही नहीं जा सकता, बस धन्य-धन्य ही कर सकते हैं।
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