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‘‘जी सोचां विच रब्ब पै गया, की बणेआ ते की सी बणाया।
जी घर—जात नाम भुल्लेआ, मन माया ने गुलाम बणाया।।’’ रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा

मालिक की साजी—नवाजी प्यारी साध—संगत जीओ। जो भी जीव यहां पे, सत्संग पंडाल में, रूहानी मजलिस में, आस—पास से, दूर—दराज से चलकर आए हैं, अपने कीमती समय में से समय निकालकर आप लोग राम—नाम, अल्लाह, वाहिगुरु, मालिक की कथा—कहानी में आकर सजे हैं, आप सबका सत्संग में पधारने का तहदिल से बहुत—बहुत स्वागत करते हैं, जी आयां नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैल्कम।

‘‘जी सोचां विच रब्ब पै गया, की बणेआ ते की सी बणाया।
जी घर—जात नाम भुल्लेआ, मन माया ने गुलाम बणाया।।’’

कि काल—महाकाल ने वर लेकर त्रिलोकी की रचना तो कर ली, बुत तो बना लिए अब इनमें हरकत (जान) कैसे आए। काल महाकाल ने सोचा कि मैं अपने जोर से, अपनी शक्ति से इन्हें जिंदा करूं लेकिन नहीं कर पाया। तो मालिक की भक्ति—इबादत की, बहुत समय लगाया आखिर मालिक प्रकट हुए , बोल भाई, क्या चाहिए? तो कहने लगा जी बुत तो सब बन गए हैं, शरीर बन गए हैं लेकिन ये सब निर्जीव हैं। आप रहमो-करम कीजिए, इन बुतों में जान आ जाए। मालिक ने दया-मेहर करके रूहों को, जीवात्माओं को, अपनी नूरे किरणों को बुतों की तरफ भेजा कि जाओ भाई, देखो काल ने कैसी रचना रचाई है। जीवात्माएं जैसे ही बुतों में प्रवेश कर गई तो काल के खिलौनों में मस्त हो गर्इं।

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मालिक हालांकि सब कुछ जानते हैं पर उनकी मौज-खुशी! जब देखा कि इस तरह तो ये रूहें, ये जीवात्माएं कभी आजाद नहीं होंगी, काल के जाल में ऐसी फंसी हैं, ऐसी उलझ गई हैं कि इनका छुटकारा नहीं होगा, तो बिल्कुल आखिर में मालिक ने काल से, महाकाल से एक ऐसा बुत बनाने को कहा जिसमें पांचों तत्व पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश हों, ऐसा पुतला बनाओ। मालिक के दिशा-निर्देशन में काल ने मनुष्य शरीर बनाया, आदमी का बुत बनाया, जब यह शरीर (बुत) बनकर तैयार हो गया तो मालिक ने सब फरिश्तों से, सब देवताओं से यह फरमाया कि आइए और इस आदमी के बुत को सिजदा कीजिए, नमस्कार कीजिए।

जब फरिश्तों ने पूछा, हम और इस बुत को सिजदा करें, जो मृत्यु लोक में जा रहा है! हे मालिक! हे खुदा! ऐसा इसमें क्या है? तो मालिक ने फरमाया इस बुत में जो भी रूह, जो जीवात्मा जाएगी, अगर वो मृत्युलोक में रहती हुई मेरी भक्ति-इबादत करेगी तो उस जीवात्मा को मृत्यु लोक में रहते हुए भी मैं दर्श-दीदार दूंगा और आवागमन से आजाद कर दूंंगा। जब यह बात सुनी तो सब देव-फरिश्तों ने सिजदा किया, नमस्कार किया सिवाए काल-महाकाल के।

तो मालिक ने इन्सान का शरीर बनाया है, किस लिए बनाया है यह स्पष्ट हो चुका है कि इन्सान दुनिया में आए और मालिक की भक्ति-इबादत करके, जन्म-मरण से आजाद होकर अपने निजधाम सतलोक, सचखंड, अनामी में पहुंचे। यानि सब खंडों, ब्रह्मण्डों को पार करता हुआ जीवात्मा रूपी ये जीव मालिक के पास पहुंच जाए, इसलिए एक रास्ता, यह शरीर मनुष्य का बनाया। लेकिन इन्सान के शरीर में आत्मा, रूह आकर काल, शैतान, महाशैतान के जाल में फंस गई। जब मालिक ने यह देखा कि ये फिर भी वापिस नहीं आ रही तो फिर उसने अपने पीर-पैगम्बरों को धरती पर भेजना शुरू किया कि आप जाइए और उनको समझाइए, जो उनका असली उद्देश्य, लक्ष्य क्या है और वो क्या करने में लगी हुई हैं। तो संत, पीर-पैगम्बर इस धरती पर आए और उन्होंने इन्सान को समझाया, पाक-पवित्र ग्रंथों की रचना की।

जो समझाया वो हमारे सभी धर्मों में लिखा है कि हे इन्सान! सबसे अहम और जरूरी कार्य तेरा अगर कोई करने वाला है तो वो ओ३म, हरि, ईश्वर का सुमिरन करना है और दूसरा कार्य उसकी सृष्टि से नि:स्वार्थ भावना से प्रेम-प्यार करना है और तीसरा जीवन-यापन करने के लिए कड़ा परिश्रम करके खाना। यही बात सभी धर्मों में बताई गई है। कहने का अंदाज अलग-अलग है पर सभी का मतलब अर्थ एक है। तो बताइए सभी धर्मों में क्या गलत लिखा है और क्या अलग लिखा है? सब में एक ही बात, सबसे पहला फर्ज-कर्त्तव्य, अपने मालिक जिसे ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु, गॉड, खुदा, रब्ब, भगवान कहते हैं या जो भी नाम अपनी भाषा में उसका लेते हंै, उसे याद कीजिए, उसकी भक्ति-इबादत जरूर करो। धर्म को मानना है तो मेहनत, हक-हलाल की रोजी-रोटी खाओ, अजी चेहरे पर नूर आएगा और अंदर मालिक का सरूर आएगा, जरूर आएगा।

मालिक (रूहानियत, सूफियत के फकीर, मालिक स्वरुप) भी सोच रहा होगा कि इसे क्या बनाया था और यह क्या बन बैठा है। असली निज मुकाम भूल गया, मालिक की भक्ति-इबादत करना था वह भूल गया और गुलामी में फंसा हुआ हमेशा काल का दंड सहने को तैयार बैठा है। क्या बनाया था उस मालिक ने, कितनी बड़ी बादशाहत तुझे दी थी लेकिन तूं गुलामों की तरह शैतान, महा शैतान का गुलाम बनकर, काल-महाकाल के अधीन होकर बुराइयों में डूब गया। खाओ-पीओ, ऐश उड़ाओ, ये तो गंदगी का कीड़ा भी करता है फिर उसमें और तेरे में क्या अंतर है! फिर तुझे हमारे धर्मों में क्यों इतने ऊंचे खिताब दिए हैं।

हर धर्म में कहा है- हिंदू धर्म में सर्वश्रेष्ठ, अतिउत्तम जूनि और सिक्ख धर्म में सरदार-सरताज जूनि यानि मुखिया तथा इस्लाम धर्म में खुदमुख्तयार जूनि, मालिक का नूर यानि बहुत बड़े-बड़े खिताब दिए हैं। खाओ-पीओ, ऐश करने में लगा है। यह काम तो पशु, पक्षी और गंदगी का कीड़ा भी करते हैं फिर उनमें और तेरे में क्या अंतर रह गया! सोच, विचार कर! जिस तन के लिए ये सब कुछ जो तू कर रहा है इसे भी यहीं पर ही जला-दफना दिया जाएगा। जो तू बना रहा है जैसे तूने अपने बाप-दादा के सामान पर कब्जा किया, वैसे ही तेरी आने वाली पीढ़ियां कब्जा करने को तैयार बैठी हैं। साथ जाने वाला कुछ भी नहीं, कभी किसी भ्रम में रह जाए! तो फिर किस लिए पाप-जुल्म, गुनाह करता है।

सोच, क्यों ऐसा करता है! क्या वजह है कि दिन-रात बुराइयों में फंसा हुआ है! जितने दिल तोड़ेगा, जितनों के दिलों को दुखाएगा उनकी कीमत अदा करनी पड़ेगी। इसलिए उस मालिक की दरगाह में, मालिक के दरबार में भक्ति-इबादत करके तौबा कर। वह दया का सागर, रहमत का दाता जरूर माफ करेगा और अपनी दया-मेहर, रहमत से जरूर मालामाल कर देगा। इसलिए इन्सान सोचे, समझे और विचार करे। भजन है:-

जी सोचां विच रब्ब पै गया की, बणेआ ते की सी बणाया।
जी घर-जात कम्म भुल्लेआ, मन-माया ने गुलाम बणाया।
‘सब जूनियां ’चों मिली सरदारी, होर हैं गुलाम जूनि सारी,
जी बंदा बण की खट्टेआ, कोई फायदा ना इसदा उठाया।’

हमारे संतों ने चौरासी लाख शरीर बताए हैं और उनमें सर्व श्रेष्ठ इन्सान को बताया। महापुरुषों ने इस बारे में बहुत लिखा है, कबीर जी लिखते हैं-‘गुर सेवा ते भगति कमाई।। तब इह मानस देही पाई॥’ सच्चा गुरु, पीरो-मुर्शिदे-कामिल मिल जाए, गाइड मिल जाए वो जो कहेगा, उसके कहने को मानो, लेकिन अंधविश्वास नहीं, दृढ़ विश्वास से। क्योंकि गुरु, फकीर कभी ये नहीं कहता कि मेरे लिए कपड़े लेकर आओ, मेरे पांव दबाओ, मुझे नोट दो, ऐसा कुछ भी नहीं। वो क्या कहेगा कि ईश्वर का नाम जपो, उसकी सृष्टि से नि:स्वार्थ भावना से प्रेम करो और मालिक का सुमिरन करते हुए मालिक के रहमो-करम को हासिल करो।

इसलिए कबीर जी ने लिखा है कि ऐसा हो ‘गुर सेवा ते भगति कमाई।। तब इह मानस देही पाई॥ इसीलिए यह शरीर, आदमी का बुत जीवात्मा को मिला है। ‘इस देही कउ सिमरहि देव।। सो देही भजु हरि की सेव॥ भजहु गुोबिंद भूल मत जाहु।। मानस जनम का इही लाहु’ ॥ कि इस शरीर के लिए देव-फरिश्ते मालिक से प्रार्थना दुआ करते हैं कि कब हमें ये बुत मिले और आपका मिलाप हो। क्योंकि और किसी शरीर में ये संभव नहीं है। लेकिन आज इन्सान उन्हें ही ध्याता रहता है, देव-फरिश्तों के चक्कर में उलझा रहता है और जो मालिक है, सबको देने वाला है, दया का सागर है, रहमत का दाता है उसकी तरफ से मुंह मोड़ लेता है। आपका काम मालिक की सृष्टि का भला करना, हक-हलाल की रोजी-रोटी खाना और मालिक की भक्ति-इबादत करना है। यही बताया कि इन सब कामों से तू मुंह मोड़े हुए है।

कई बार देखने में आता है किसी को कहो कि आप भला करो, अच्छे काम करो, तो क्या कहते हैं कि हमारे पास समय नहीं है इन फालतू कामों के लिए। वैसे तो धर्मों में लिखा है कि इन्सान के अंदर शक्ति है, पावर है वो नेकी-भलाई कर सकता है और आप कहते हैं कि आपके पास समय नहीं, बहुत बिजी रहते हैं। चलो! मानी बात कि आप अगर भला नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं, पर कम से कम किसी का बुरा तो मत करो। जब बुरा करते हो तब टाइम किधर से आ जाता है? योजनाएं बनाते हो, बड़ी-बड़ी बातें बनाते हो और फिर बुरे कर्म को अंजाम देते हो। तो ये टाइम कहां से आया? भलाई-नेकी के लिए तो टाइम नहीं है, पर बुराई, बदी के लिए टाइम निकाल लेते हैं।

अजी आप अगर किसी को उठा नहीं सकते तो कम से कम किसी को गिराओ मत। फर्ज आपका जो है धर्मानुसार कि गिरे हुए को उठाना, राह भटके हुए को राह दिखाना। अगर आप ऐसा नहीं कर सकते तो चलते हुए के अड़ंगी लगा कर गिराओ मत, राह चलते हुए को भटकाओ मत, कम से कम ये तो ना करो। लेकिन इस कलियुग में शैतान ने, काल-महाकाल ने ऐसी कानों पे मोहरें लगाई हैं कि ओ३म, हरि, अल्लाह, मालिक की बात भाती नहीं। नेकी-अच्छाई की बात भाती नहीं और बुराई की तरफ दौड़कर जाता है। तो भाई! इन्सान होने का कोई फायदा नहीं उठा पाएगा तू अगर ऐसे ही चर्चाएं करता रहा या ऐसे ही काल का गुलाम बना रहा। तो इस बारे में लिखा है:-

मनुष्य से नीचे वाली जूनि तो क्रमबद्ध हंै, मनुष्य शरीर में हमें अपनी प्रारब्ध के अनुसार एक विशेष समय तक स्वच्छंदता, स्वतंत्रता नसीब है, जिससे हम लाभ उठा सकते हैं। सत्संग में रहकर, उसमें बस रही बरकत से हिस्सा पाकर कर्मों की जकड़ से आजाद हो सकते हैं। कर्मों की जकड़ का दायरा बड़ा जबरदस्त है।
आगे आया जी—

‘सब जूनियां तों वद् अकल है दित्ती,
मानस जन्म वाली बाजी हारी ना जित्ती।
चौरासी विच फिर चल्लेआ, ना जन्म-मरण नूं मुकाया।’

बाकी के जितने भी शरीर हैं उनमें इतनी अक्ल नहीं है जितनी मनुष्य में है। पर ये अक्ल दी किस लिए है, क्या ठग्गी मारने के लिए कि इस तरह से ठग्गी मारो कि सामने वाले को पता ही न चले? जी नहीं! क्या बैंक-बैलेंस बढ़ाने के लिए कि इतना बढ़ाओ कि ऐश-आराम से जीवन गुजारो? जी नहीं! ये अक्ल—दिमाग मालिक ने दिया है कि इस शरीर में रहते हुए आप खंडों-ब्रह्मण्डों से पार जा सकते हैं। यह रॉकेट वगैरह सूरज तक जाते हुए भस्म हो जाते हैं लेकिन आपमें इतनी पावर है, इतनी शक्ति है अल्लाह, राम, वाहिगुरु की कि एक सूरज नहीं, ऐसे कई सूरजों से बढ़कर आपमें पावर हो सकती है, प्रकाश हो सकता है, सुमिरन के द्वारा, भक्ति-इबादत के द्वारा।

जब जीवात्मा ऊपर उठती है, रूहानी सफर तय करती है तो इसकी खुद की पावर कई सूरजों से बढ़कर होती है। वह कई सूरजों के पास से ऐसे गुजर जाती है जैसे पास ही न हुई हो। यानि बड़े आराम से गुजर जाती है। जबकि बाहरी तौर पर, मनोवैज्ञानिक तरीके से, मनोढंग से जो सामान बनाया जाता है, साइंस जो चल रही है वो सूरज तक नहीं पहुंच पाए, जबकि आप एक सूरज नहीं ऐसे लाखों-करोड़ों सूरजों को पार कर सकते हैं। एक खंड—ब्रह्मण्ड नहीं, ऐसे लाखों खंडों-ब्रह्मण्डों को पार कर सकते हैं। इतनी पावर भरी है आपमें, इतनी शक्ति है। बॉडी यहीं रहेगी लेकिन जीवात्मा आपकी अंदर ही अंदर उडारी मारती चली जाएगी।

भाई! इन सब ताकतों के स्वामी होते हुए भी आप पशुओं जैसी जिंदगी गुजारते हैं। बुरा न मानें। क्योंकि आप अपने अंदर की शक्ति को पहचानते नहीं, मालिक ने जो रहमो-करम आपके अंदर भरा है उसकी तरफ आप ध्यान देते ही नहीं। धर्मों में ये लिखा है कि वो कण-कण, जर्रे-जर्रे में मौजूद है, हर जगह वो है, उस कण में, उस जर्रे में हमारा शरीर भी आ गया। इसका मतलब वो हमारे शरीर में है और उसको बुलाने के लिए कौन तड़पता है? जीवात्मा-रूह। और वो कहां है? वो भी शरीर के अंदर। तो आत्मा भी अंदर है और परमात्मा भी अंदर। बाहर किसके आगे शोर मचाते हैं जब दोनों ही अंदर हैं। क्यों नहीं अंदर दुआ-इबादत करते सच्ची तड़प, लगन से! अजी बाहर वाला दिखावा ज्यादा होता है, अमल कम होता है और अंदर अगर करो तो दिखावा कम होता है, असर ज्यादा होता है। इसलिए मालिक से भक्ति-इबादत करते हो,दुआ-प्रार्थना, अरदास करते हो तो अंदर ही अंदर तड़प के, दिल से, ख्यालों से करो तो वो प्रार्थना, वो दुआ अगर सच्ची लगन से, सच्ची तड़प से की जाए तो मालिक जरूर मंजूर, कबूल करते हैं। इसलिए आप सोचिए, विचार कीजिए। क्या बनाया था, किसलिए अकल दी थी और आप क्या कर रहे हैं! भजन में आगे आया जी –

‘पींदा शराब नाले खांदा है मांस जी।
अनमोल जीवन दा करी जांदा नाश जी।
कदर कुछ ना पाया, जेहड़ा मुद्दतां बाद हत्थ आया।’

शराब पीना, मांस खाना, जहां तक हमने पवित्र ग्रंथों को पढ़ा, हमें किधर भी लिखा हुआ नहीं मिला, जरूर बताइएगा ऐसा कुछ लिखा हुआ हो। कहीं भी लिखा हुआ नहीं है कि मांस खाना चाहिए या ऐसा नशा पीना चाहिए। बल्कि शराब के बारे में तो बड़ा खोल कर लिखा है। हिन्दू धर्म में लिखा है-शराब नरकों में ले जाने के लिए मां की मां का काम करती है। इस्लाम धर्म में-फारसी में आता है शराब शब्द के अगर दो हिस्से करें, सन्धिविच्छेद जिसे कहते हैं, तो बनता है ‘शर+आब’ शर यानि शरारत या शैतान और आब यानि पानी। हे खुदा की इबादत करने वालो! शराब शैतान का पानी है पीना मत वरना इबादत को खाक में मिला देगा और सिक्ख धर्म में एक नशा नहीं सारे नशे मना हैं।

अगर आप गुरु की निशानी पहने हुए हैं, अपने आप को सिक्ख कहलवाते हैं तो गौर कीजिएगा कि ‘पोस्त भंग अफीम मद नशा उतर जाए प्रभात। नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात।’ अर्थात् कि पोस्त, भांग, अफीम, मद—शराब सुबह पीओ उसका नशा शाम को और शाम को पीओ सुबह को उतर जाता है। अजी! नशा करना है तो उस ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु, राम के नाम का करो अगर एक बार चढ़ गया तो जिंदगी भर उतरता नहीं। दुनियावी नशा बर्बाद करता है और ओ३म, हरि, अल्लाह, राम के नाम का नशा अंदर-बाहर से इन्सान को आबाद, मजबूत करता है और बेअंत खुशियां बख्शता है। धर्मों में नशों से मना किया है।

सार्इंटिस्ट, वैज्ञानिक लोग भी अब मानते हैं कि नशे नहीं करने चाहिएं। अण्डा—मांस के बारे में भी हमारे जिस्म को शाकाहारी बताया है। बड़े-बड़े डाक्टरों ने रिसर्च किया तो ये पाया कि हमारे नाखून, हमारे दांत, हमारा जबड़ा, हमारी पाचन-क्रिया, हमारी आंतड़ियां बहुत कुछ ऐसा है जो यह साबित करते हंै कि हम शाकाहारी हैं। कई सज्जन कह देते हैं कि मांस-अण्डे में पावर होती है। अगर मांस नहीं खाएंगे तो ताकत किधर से आएगी।

अगर आपको लगता है कि मांस में ताकत है और आप मांस खाने वाले हैं तो हाथी से टक्कर लगाकर देखिए, किस में पावर ज्यादा है। आप मांस खाते हैं लेकिन हाथी मांस नहीं खाता। तो आप मानेंगे न कि पावर हाथी में ज्यादा है। साईंटिस्ट मान चुके हैं कि सबसे शक्तिशाली अगर कोई जीव है पावर के हिसाब तो वो हाथी है, घोड़ा है, गैंडा है, जिराफ है, झोटा है, बैल है जिनमें पावर बहुत है और सभी शाकाहारी हैं। तो यह कह देना कि इसमें पावर नहीं होता ये आपका भ्रम है। अण्डे में प्रोटीन अगर 14-15 प्रतिशत है तो सोयाबीन में 43 प्रतिशत है यानि लगभग 3 गुणा, चनों में 22-23 प्रतिशत और मूंग में भी 22 या 25 प्रतिशत है। शाकाहारी चीजों में पावर ज्यादा है।

अगर आप पावर के लिए मांस—अण्डा खाते हैं तो आपका ये भ्रम है। तो सच्चाई ये ही है कि ‘मास मछुरिया खात है, सुरा पान के हेत। ते नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी का खेत।’ कोई कसर नहीं छोड़ी हमारे पीर-पैगम्बरों ने, ऋषि-मुनियों ने समझाने में। अगर किसी आदमी को यह हुक्म दिया तो आदमी से आदमी की बली मांगी, कुर्बानी मांगी और वो आदमी देने को तैयार हो गया। ये तो मालिक की दया-मेहर, रहमत हुई ये तो माजरा ही कुछ और हो गया। लेकिन आज अपनी बलि देने को कौनसा इन्सान तैयार होता है? पशु को पकड़ा, दूसरे के बेटे को पकड़ा और बलि चढ़ा दिया। आज कल तो ये भी खबर, शायद कल-परसों किसी ने बताया, कि अपने ही बेटे की बलि चढ़ा दी एक इन्सान ने।

बड़े अजीबो-गरीब हालात हैं। अरे! देवता, फरिश्ता किसे कहते हैं आज वाला तो ये भी भूल गया। देवता, फरिश्ते का मतलब है जो मजबूरों का साथ दे और जुल्मो-सितम करने वालों को रोके उसे देवता या फरिश्ता कहते हैं। यानि भलाई-नेकी का साथ दे और बदी को रोके। लेकिन आज इन्सान निर्दोषों को काट कर उनकी बलि देवताओं को चढ़ाता है तो बताइए देवता खुश होगा? नहीं, वह नाराज होगा। क्योंकि वो तो निर्दोषों की मदद करने वाला है। तो भाई! ये अजीबो-गरीब मंजर इस कलियुग में, शैतान के युग में चल रहा है। इस बारे में लिखा-बताया है:-

औगुण कहूं शराब का ज्ञानवंत सुन ले।।
मानस से पसुआ करै दर्व्य गांठ को दे।

शराब या चाहे कोई भी नशा है सब बर्बाद करने वाले हैं, आप उसके गुलाम हो जाते हैं, उसके बिना चल नहीं पाते। नई पीढ़ी, नए नशे। चरस, हिरोइन, स्मैक, इंजेक्शन तरह-तरह के लोग लगाते हैं, अपने हाथों अपने आपको बर्बाद करते हैं। अपनी तबाही का सामान खुद बना रहे हैं। इसमें कोई मान-बड़ाई नहीं। आप सोचते हैं कि मैं बड़े घराने से हूँ तो बड़ा नशा करूं। ऐसा करने से आप तबाही की तरफ जा रहे हैं। अरे! नशा करना है तो ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु, राम की याद का नशा करो, ऐसा नशा न खरीदना पड़े, न अलग से कहीं छुपना पड़े और न चुपके-चुपके करना पड़े। सरेआम कर सकते हैं, कोई रोक नहीं सकता। कोई टोक नहीं सकता। पर कई छुप-छुप कर करते हैं कि पता भी न चल जाए और करना भी जरूर। तो ये बिल्कुल गलत है। घरों के घर बर्बाद हो जाते हैं।

आप सेवा, नेक कर्म करते रहिए और साथ में मालिक की भक्ति-इबादत करते रहिए। यहां बहुत लोग आते हैं, रोजाना लगभग 100-200 लोग यहां नशा छोड़ने आते हैं। तो भाई! मालिक की भक्ति में शक्ति है, उसकी इबादत में ताकत है अगर इन्सान भक्ति के द्वारा उसे हासिल कर ले तो नशे छूट जाते हैं क्योंकि अंदर वाला नशा आना जब शुरू होता है तो ये नशे गंदगी के मानिंद लगते हंै। इसलिए भाई! ये नशे छोड़ो, भगवान ने कंचन जैसी, सोने जैसी काया दी है। यह शरीर, यह जिंदगी बर्बाद न करो। जो कहते हैं, जो खिलाते-पिलाते हैं उनका कुछ नहीं जाएगा लेकिन आप बर्बाद हो जाएंगे। आने वाले समय में आपको बहुत कष्ट उठाने पड़ेंगे। तो नशे को छोड़ना बहुत जरूरी है। भजन में आगे आया—

‘सारा दिन रहिंदा है बुराइयां नूं लोचदा।
करां केहड़ा कम्म भैड़ा ऐहो सोचदा।
जी कम्म भैड़ा ना छड्डेआ, जो नजर है इसदे आया।’

ज्यादातर लोगों की सोच बुराई की तरफ चलती है। कहीं भी जाएंगे, पहले देखेंगे, कोई खुराक है। जैसी अंदर गंदी सोच होती है वैसा सामान इधर है कि नहीं। खाने का, पीने का, देखने का। क्योंकि अंदर गंदी सोच, गंदगी का कीड़ा बन जाता है वह इन्सान और कुछ भी अच्छा नजर नहीं आता। जहां भी जाएगा, पहले यही तहकीकात होती है कि यहां गंदगी क्या है और कैसे उसे ले सकता हूँ, किस तरह से ग्रहण कर सकता हूँ! तो वहां ध्यान जाता है और दिलो-दिमाग में हमेशा बुराई की बात चलती रहती है। चुगली-निंदा, दूसरों की बुराइयां, बुरे कर्म ये ख्यालात ज्यादा घूमते हैं, अच्छाई-नेकी नहीं। इस बारे में लिखा-बताया है:-

एन अकल का कोई ना काम किया, शक्ल धारकर आपने इन्सान वाली।
दाढ़ी-मूछ से आदमी लगता है, है पर आदत सभी हैवान वाली।
माया के लिए पाप कमाता है, रीत छोड़ कर धर्म-ईमान वाली।
बिशन दास नहीं मौत याद तुझे, जालिम चोटी से पकड़ ले जाने वाली।।

बुरे कर्म करता है। दौलत के लिए दीन-ईमान सब कुछ बेच देता है और ये बुराई का नतीजा बुरा जरूर निकलता है। इसलिए भाई! आप बुरे कर्म छोड़िए, दिखने में जरूर दाढ़ी-मूंछ से इन्सान नजर आता है लेकिन काम जानवरों वाले ही हैं। इस बात पे आपको एक बात सुनाते हैं— एक इन्सान नशेड़ी था। गिरता-पड़ता जा रहा था। पहले माता-बहनें एक दरवाजे में बैठ जाया करती थी, चरखा-सूत काता करती थी। बातें भी करती रहती। वो जब वहां से गुजरा तो उसने माता-बहनों को देखा और कुछ अश्लील हरकत की, कुछ गलत बोल गया। वो आगे चला गया। एक माता दूसरी से पूछती है, ये कौन है? वो कहती, ये वो है! पहली कहती, इसके वो तो है नहीं। दूसरी कहती कि ये बिना वो के ही वो है! तो पहली पूछती कि ये कौन है, दूसरी कहती, ये वो है यानि पशु है। तो पहली कहती, इसके वो तो है नहीं, यानि सींग और पंूछ। तो दूसरी कहती कि ये बिना वो के ही वो है। तो इतनी ऊंची जूनि। मालिक ने खुदमुखत्यार बनाया, अपना नूर संतों ने लिखा और ऐसी हरकतें करके क्या बना, पशु। क्या शक है? पशु भी कई तरीकों से बेहतर है लेकिन इन्सान बहुत पीछे है इस मामले में। भजन में आगे आया—

‘भुल्ल गया कम्म जेहड़ा करन सी आया।
मोह-माया ने जाल बिछाया।
जो फंस जाए इक वारी, ओह फिर छुटणे ना पाया।’

सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने एक-एक शब्द सच ऐसा लिखा है कि अगर ध्यान से सुनो जिंदगी का सार, जीने का रहस्य मिलता है। क्या फरमाया- मोह-माया ने जाल बिछाया हुआ है, एक बार फंस गया, निकल नहीं पाता। बिल्कुल सच। बड़ा मुश्किल है निकलना। मोह-ममता में जो अंधे हो जाते हैं, कितना भी ज्ञान दे दो। कितना भी समझा लो, कितनी भी शिक्षा दे दो, सब ताक पे रख देते हैं। जब मोह की बात आती है, जब मोह-ममता का चक्कर चलता है तो कैसा भगवान, कैसी नेकी, कैसा मालिक का रहमो-करम सब पल में भुला देता है।

उसकी दया-मेहर, रहमत को ताक पर रख देता है और माया के लिए, मन—अहंकारी के लिए जुट जाता है। ऐसे लोगों के पास बार-बार जाता है जो बुराई में डूबे होते हैं। जो उनकी सोहबत, उनका संग करता है, कितने दिन बचेगा। आखिर बुराई का प्रतीक बन जाएगा। इसलिए मोह-ममता में अंधे मत बनो।

मोह-ममता कहते किसे हैं? अपने बच्चों को, जो आप ने पैदा किए हैं, उनको अच्छे संस्कार देना, उनसे प्यार-मुहब्बत करना एक हद तक ये मोह-ममता नहीं है लेकिन आठों पहर उन्हीं की चर्चा दिलो-दिमाग में छाए रहना कि, वो मर गया, वो डूब गया, वो लुट गया, वो बर्बाद हो गया। आप कितनी दुआएं दे रहें एक तरह से अगर देखा जाए तो। एक कहावत है पंजाबी में कि ‘बच्चे दा माड़ा बच्चे दी मां पहलां सोचदी है,’ कोई शक नहीं। पहले ये ही सोचती है कि पहले ये होगा, पहले वो होगा, तो ये है मोह-ममता में अंधे लोगों का काम। वो हद से ज्यादा उनके फिक्र में लगे रहते हंै। बस, तड़पते रहते हैं, बेचैन रहते हैं, अपने मालिक की भक्ति-इबादत नहीं करते, जिससे सुकून मिले, उनका भी फायदा हो। जी नहीं, ऐसा नहीं करते जिनके अंदर मोह-ममता आ जाती है, उनको दुनिया सब गंदी लगती है।

अच्छा वो लगता है, जिससे मोह-प्यार है, चाहे सारी दुनिया वालों से उसकी न बनती हो लेकिन वो मालिक का रूप लगता है और वास्तविक मालिक का रूप दूर हो जाता है और मालिक का प्यार दूर हो जाता है क्योंकि मोह-ममता बड़ी जबरदस्त आरी (छुरी) है। जो इसमें डूबता है, ये इतनी तीखी है कि अल्लाह, राम से संबंध तोड़ देती है और दुनियावी रिश्तों से जोड़ देती है। दुनियावी रिश्तों का क्या भरोसा, कब दगा दे जाएं। जब तक आप देते हैं वो आपके हैं और जब देना बंद कर दिया तो आप कौन और वो कौन? लेकिन ज्ञान चाहे कोई कितना भी दे, चाहे कितना भी समझाए जीव नहीं मानता और जब ठोकरें लग जाती हैं, बुरा हश्र हो जाता है, फिर माने न माने उसकी मर्जी।

तो मोह-ममता में हद से ज्यादा न पड़ो। ये भी ऐसी जंजीरें हैं जो जकड़ लेती हैं और फिर छूटती नहीं तथा माया में अंधे मत बनो। आपके जीवन का जो लक्ष्य है, जो निशाना आपने निर्धारित कर लिया है उस निशाने के ऊपर चलो, नेकी करो, भले कर्म करो और मालिक की भक्ति-इबादत करो। चैन से जिंदगी जीओ, खुद भी जीओ और दूसरों को भी जीने दो। क्योंकि आप नासमझ हैं। अपने आप में अगर आप नासमझ हैं तो दूसरों को क्या समझ देंगे। बल्कि आप डूबेंगे तो उनको भी डुबोएंगे। इसलिए आपका फर्ज है मालिक की भक्ति-इबादत करना, मेहनत की रोजी-रोटी खाना, सबका भला सोचना और अव्वल जो प्यार-मुहब्बत होना चाहिए वो अपने मालिक से करना।

अजी! रोते हो तो उसकी याद में रोओ, वैराग्य आता है तो अपने मालिक के लिए, अल्लाह, ओ३म, हरि के लिए रोओ। अजी! आंखों में आंसू बह जाएंगे वो हीरे-लाल, जवाहरात बन जाएंगे जो उसकी याद में बहते हैं और जो दुनियावी रिश्तों-नातों के लिए आप तड़पते रहते हैं, आपका दिल हल्का हो सकता है और इसके अतिरिक्त मन हल्का हो सकता है, रत्ती भर भी उसका फायदा नहीं है। तो भाई! मोह-ममता में मत पड़िए। सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने बड़ा जबरदस्त लिखा है अगर कोई समझे तो। ‘भुल्ल गया कम्म जेहड़ा करन सी आया। मोह-माया ने जाल बिछाया। जो फंस जाए इक वारी, ओह फिर छुट्टण न पाया।’

वो छूटता ही नहीं, एक बार इनके जाल में फंस गया तो। छूट सकता है अगर फकीर की बात को सुने और ओ३म, हरि, मालिक की भक्ति-इबादत करे तो ये बंधन ढीले हो जाते हैं और इन्सान मालिक के रहमो-करम का हकदार जरूर बन जाता है। तो इस बारे में लिखा-बताया है जी-

परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज फरमाते हैं-

‘पापों बिना ना होती इकट्ठी, वो भी जाती साथ नहीं।
बन्दा जीते-जी ये समझे, आना कभी भी काल नहीं।
पुत्र-पुत्रियां, कुटुम्ब कबीला, ये सब यहां ही रह जाना।
आस उम्मीदों का ये मंदिर, एक ही क्षण में ढह जाना।
जिसको तू रहा अपना समझ, ये तो सब कुछ तेरा नहीं।
कहें ‘शाह सतनाम जी’ ज्ञान के बिना, होता कभी सवेरा नहीं।’

कि जिसे तू अपना समझता है ये सब पराया है और जो अपना है उसे तू पराया समझता है। हिन्दू धर्म में, सिक्ख धर्म में, इस्लाम धर्म में लिखा है कि जो कुछ भी नजर आता है सब कुछ तबाहकारी है, फनाहकारी है, फानी है और कुछ भी साथ जाने वाला नहीं, सब कुछ बदल जाएगा। जो साथ जाने वाला ओ३म, हरि, अल्लाह, मालिक का नाम, भक्ति-इबादत है उसकी तरफ तेरा ध्यान नहीं जाता और उसको तू फिजूल की लेक्चरबाजी, धूआंधार भाषणबाजी कहता है। अरे! वो ही मालिक का नाम दोनों जहानों का साथी है, यहां-वहां दोनों जहां में तेरा साथ देगा और मालिक के चरणों में जा बिठाएगा। ‘भुल्ल गया कम्म जेहड़ा करन सी आया।’ माालिक को भूल गया, ‘मोह-माया ने जाल बिछाया’, ऐसा मोह-माया के जाल में फंस गया कि उसी का बनकर रह गया।

‘जो फंस जाए इक वारी, फिर छूटने न पाया’, एक बार जो फंस जाते हैं तो वो बाहर नहीं आते। जो अपने पीर-फकीर पर दृढ़ विश्वास रखते हैं, दृढ़ विश्वास की क्या निशानी है कि फकीर जो कहता है उसपे जो मुरीद अमल करते हैं,उसको मान लेते हैं, वे सब कुछ हासिल कर जाते हैं, दूसरे को यह सब नसीब में नहीं मिलता। तो भाई! फकीर कभी किसी का बुरा नहीं करते, किसी को बुरा कहते नहीं। लोग उन्हें काफिर कहें, बुरा कहें कोई असर नहीं होता उनको। लेकिन वो (रूहानी पीर-फकीर) वही कहते हैं जिसमें सबका भला हो। वे सबको नेकी के वचन, भलाई के वचन करते हैं। तो बात यहां पे आई थी कि अगर आप पीर-फकीर की बात को मान लो तो मन जालिम, काम वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मन-माया सब कुछ छूट जाए। जब हउमै-खुदी आती है तो खुदा दूर हो जाता है। जब अहंकार आता है, ‘मैं’ आती है तो मालिक की दया-मेहर, रहमत से इन्सान दूर हो जाता है, पास होते हुए भी खजाना खाली रह जाता है। तो फकीरों का काम नेक-नीयत होती है, सबके लिए दुआ करना, भला मांगना और भला करने की प्रेरणा देना होता है। भजन के आखिर में आया हैै-

‘भेजेया सी रूप अपणा बणा के। बण गया वहिशी डंगर आके, डंगर आके।।’

तो भाई! इन्सान को बनाया कुछ और था और वह कुछ और बनकर बैठ गया। अपना रूप बनाकर मालिक ने भेजा लेकिन यहां पर आकर पशुओं की तरह काम करने लग गया। पशु दौड़ते हैं, इन्सान भी दौड़ता नजर आता है। पशु अपने पेट के लिए, अपने बच्चों के लिए दौड़ते हंै तो इन्सान भी अपने पेट के लिए और बच्चों के लिए भागता हैै। इन्सान जैसा चाहता है वैसा खाने की कोशिश करता है और पशु को जैसा मिल जाए, जब मिल जाए वैसा खाने की कोशिश करता है लेकिन दोनों का मकसद अपनी जठर अग्नि, पेट की अग्नि को शांत करना व अपने लिए शक्ति, पावर हासिल करना है। बाल-बच्चे इन्सान के होते हैं तो पशुओं के भी होते हैं।

घर इन्सान बनाता है तो पशु-पक्षी भी कोई जगह अपने लिए निश्चित करते हैं या घोंसला इत्यादि बनाते हैं। तो भाई! बिल्कुल उन्हीं की तरह ही इन्सान है अगर ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु को याद नहीं करता। यही तो एक फर्क है इंसानों में और हैवानों (जानवरों)में। बाकी कोई फर्क नहीं। इन्सान अगर चाहे तो मालिक की भक्ति-इबादत करके उसकी दया-मेहर, रहमत के काबिल बन सकता है और पशु चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर सकते। इस बारे में लिखा-बताया है जी:-
हम जन्म से लेकर मरने तक जिंदगी खाने और सोने में गुजारते हैं पर अपना आप और इसके आधार मालिक परिपूर्ण को नहीं जानते। हम बाहर वाली चीजों में मस्त हुए रहते हैं फिर हम उस मालिक को, जो अंतर्मुख है, कैसे पा सकते हैं।

‘तूड़ी खाके गड्डा हल वाहुंदे, पशुआं दे चम्म हड्ड कम्म औंदे।
जी उम्र गुजारी ऐबां विच, अते मरके वी कम्म न आया’

अगर पशुओं का जीवन देखें कि घास-फूस या जैसा मिल गया खा लिया और अगर पालतू है तो जैसा आप ने डाला वैसा खा लिया, गुजारा कर लिया और काम पर लग गया। वह न चाहते हुए भी परमार्थ करते हैं, भला करते हैं, आपका काम करते हैं, आपके लिए काम करते हैं। जैसे गाय, भैंस है वह आपके लिए दूध नहीं देती वह तो अपने बछड़े, अपने कटड़े के लिए दूध देती हैं। लेकिन होता क्या है, आप जानते हैं कि जरा सा बछड़ा छोड़ा, दूध आ गया तो बछड़े को हटाकर दूध को धना (धार निकाली) और बाल्टी में ले लिया। हालांकि वो तो अपने बच्चे के लिए दे रही थी लेकिन आपको पीने के लिए मिला अर्थात वे तो परमार्थ कर रही हैं चाहे किसी भी रूप में कर रही हैं।

क्या पशु अच्छे नजर नहीं आते! आदमी को अपने लिए एक प्लाट मिल गया, दूसरा मिल गया तो ठीक है नहीं तो मैं चंद आदमी भेज दंूगा, मैं ये कर दूंगा अर्थात हर तरह का जायज-नाजायज तरीका प्रयोग में लाता है, ऐशो-इशरत के लिए। क्या पशु ऐसा करते हैं? अगर आज सारी दुनिया को यह कहें कि बारूद के ढेर पर बैठी है तो गलत नहीं होगा। एटम, हाइड्रोजन, परमाणु इत्यादि ऐसे-ऐसे बम बन गए हैं जिसकी वजह से सारे लोग बारुद के ढेर पर बैठे हैं। क्या ऐसा खतरा किसी पशु से हो सकता है? क्या पशु इतनों को खा जाएगा जितनों को यह एक पल में खाने को तैयार बैठा है? क्या पशु बेहतर नहीं हुआ? यही नहीं, जीते-जी उनका मल-मूत्र काम में आता है।

नई-नई बातें आ रही हैं कि गऊओं का पेशाब बहुत सी दवाओं में काम आ रहा है और उसके परिणाम भी काफी अच्छे आ रहे हैं, यह सुनने में आया है। अगर इन दवाओं को भी छोड़ दें फिर भी उनका मल-मूत्र खाद बनाने में काम आता है लेकिन इन्सान का इनमें से कुछ भी काम नहीं आता। मरने के बाद पशु की हड्डियां, उसका चमड़ा, मांस भी काम आता है। इन्सान का न जीते जी कुछ काम आए और न ही मरने के बाद काम में आए। अरे! तेरा जो थोड़ा सा सामान बचता है, जो गोथली सी बांधकर लाते हैं, जिसे पंजाबी में फूल (अस्थियां) कहते हैं, उन्हें भी जब दूर बहाने के लिए जाओ तो टैक्स लगता है।

तो बड़ा अजीबो-गरीब मामला है तेरा (इन्सान का)। जबकि पशुओं की हड्डियां, चमड़ा सब कुछ काम में ले लेते हैं। तो किस मामले में आप बेहतर हैं, किस मामले में आप अपने आप को बढ़िया समझते हैं? अगर आपने साइंस में अच्छाई के लिए कुछ बनाया है तो बुराई में भी बहुत कुछ बनाया हुआ है। तो भाई! एक ही तरीका है अगर आप बेहतर हैं और आपको संतों ने क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा, पशुओं को क्यों नहीं कहा! क्योंकि वे मालिक की भक्ति-इबादत चाहते हुए भी नहीं कर सकते और आप भक्ति-इबादत करके उसकी दया-मेहर, रहमत को ही नहीं बल्कि उसके दर्श-दीदार के काबिल भी बन सकते हैं। इस वजह से आपको अतिउत्तम, खुदमुख्तयार, सर्वश्रेष्ठ, सरदार, सरताज जूनि कहा है, अब आप देख लीजिए कि आप कौन से कर्म ज्यादा करते हैं ।

जो संतों ने आपको सर्वश्रेष्ठता का खिताब दिया वो वाले या फिर दूसरे जैसा कि ऊपर बताया गया है। आप समझ गए होंगे। ज्यादा क्या कहें, बार-बार कहते हुए ही शर्म आती है, सुनते हुए तो आएगी ही। तो भाई! अजीबो-गरीब हालत है इन्सान की।

जीते-जीअ बुराइयां, नशे, चुगली-निंदा, दूसरों की बुराइयां जी भरकर की और मरने के बाद किसी काम में नहीं आया, जला दिया गया, दफना दिया गया। तो भाई! सोचो, विचार करो। इस बारे में लिखा-बताया है:-

परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज फरमाते हैं,

‘बंदे से पशु अच्छा, जे बंदे वाली बात नहीं।
बंदे से नेक परिंदे, जो मचाते तड़थल्ल नहीं (करते उथल-पुथल) नहीं।
पशुओं की तो खाल भी हमारे काम अनेकों आती है॥
उनकी फितरत भी हमें कई बातें समझाती है।
पशु और पुरुषों के अंदर फर्क सिर्फ प्रभु जानने का।
कहें ‘शाह सतनाम जी’ सिर्फ बंदे को हक है, प्रभु पहचानने का।’

तो भजन के आखिर में आया जी:-

‘नाम जपके सी जेल मुकाणा।
बिछडेÞआ जित्थों, जाके मिल जाणा।
इतबार इहनूं ना आवे, ‘शाह सतनाम जी’ ने बड़ा समझाया’

नाम जपने के लिए, भक्ति-इबादत के लिए ये शरीर मिला, संतों ने समझाया, पाक-पवित्र ग्रंथों में दर्ज किया सब कुछ लिख कर दिया लेकिन एतबार नहीं करता, संतों, पीरों-फकीरों की बात पर विश्वास नहीं करता। झूठी बातों पर झट से विश्वास कर लेता है और विश्वास-यकीन के बिना दुनिया में कोई भी कार्य नहीं हो सकता। जैसे डाक्टर है वह आॅप्रेशन करता है। पर आपसे पहले लिखवाकर ले लेता है कि आॅप्रेशन के दरमियान आपका पटाका बोल गया यानि आप ओ३म, हरि, अल्लाह को प्यारे हो गए तो मैं जिम्मेवार नहीं। अरे, क्यों लिख कर दे रहे हो भाई! क्या आपकी कोई ज्ञान-इन्द्री आपको बता रही है, मनोइंद्री कि आप बच जाएंगे? अपने हाथों से आप लिख कर देते हैं कि ठीक है जी, आप हस्ताक्षर कर देते हैं कि मैं जिम्मेवार हूँ, मेरा आॅप्रेशन करो।

क्यों करवा रहे हैं भाई! आपको विश्वास हैं ना इसलिए, और तो कोई बात नहीं। आप गाड़ी पे चढ़ जाते हैं, बस पे और बड़ी तेज रफ्तार है, एक्सप्रेस पर चढ़ते हैं, क्या आपको पता है कि वो ड्राइवर टेंÑड है। आपकी मनोद्रियां आपको बताती हैं? क्या, देख कर, सुनकर या सूंघ के या स्पर्श करके क्या बता सकते हैं कि वो ड्राइवर वाकई ट्रेंड है? जी नहीं! अगर कहीं एक्सीडेंंट हो गया तो? आप क्यों बैठ रहे हैं? सिर्र्फ आपको विश्वास है। जमींदार भाई दुकानों पर जाते हैं और वहां से बीज देता है दुकानदार। क्या कहता है, कि एक एकड़ से दस क्विंटल, 15 क्विंटल झड़ेगा। आप खा के देख लो, सूंघ के, देख के या स्पर्श करके देखो, क्या आपको पता चल जाएगा कि ये बीज इतना ही झड़ेगा, झाड़ इतना ही होगा? नहीं पता चलता ना! फिर भी आप महंगे रेट का वो बीज खरीद लेते हैं।

क्यों? क्योंकि आपको विश्वास है। तो आपने देखा हर काम के लिए विश्वास जरूरी है पर जब संत, पीर-फकीर अल्लाह-वाहिगुुरु, राम की बात करते हैं और बदले में लेते भी कुछ नहीं। न रुपया, न पैसा, न चढ़ावा, न धर्म छोड़ो, न दीन-ईमान, मजहब बदलना। क्या कहते हैं भक्ति, कलमा, नाम, गुरुमंत्र लो, उसका जाप करो, मालिक के रहमो-करम के हकदार बन जाओगे, फिर भी लोग विश्वास नहीं करते, क्यों! क्यों, नहीं करते जरा बताइए। जितने पवित्र ग्रंथ संतों ने लिखे, पीर-पैगम्बरों ने लिखे, सारा जीवन, सारा परिवार तक कई महापुरुषों ने कुर्बान कर दिया पर फिर भी उनकी बातों पर विश्वास नहीं। विश्वास उनपे है जो झूठ बोलें, विश्वास उनपे है जो बुराई की तरफ चलते हैं।

वहां कोई क्यों नहीं आगे बढ़ता। क्योंकि पंजाबी में कहावत है कि ‘नाल दी नाल कन्न सेक दिंदे ऐं।’ उसकी तरफ नहीं कोई बढ़ता और नेकी-भलाई की तरफ चलने में विश्वास नहीं है। तो भाई! आप राम, अल्लाह, वाहिगुरु, गॉड, रब्ब के ऊपर विश्वास रखिए और सुमिरन कीजिए। संत कुछ लेते तो नहीं न आपसे, कोई टैक्स नहीं, कोई चढ़ावा नहीं फिर भी आप विश्वास क्यों नहीं करते। इस क्यों का जवाब है कलियुग। जहां झूठी, बुराई की बातें लोग चटकारे ले-लेकर करते हैं और नेकी-भलाई, अल्लाह, मालिक की बात के लिए कहते हैं, पहले भगवान दिखा दो, फिर मानूंगा फकीर पूरा है , पहले एम.ए. की डिग्री दे दो, कहता फिर मैं एल.के.जी., यू.के.जी. करूंगा।

है ना हंसी वाली बात! तो क्या रूहानियत में ये मूर्खता वाली बात नहीं है कि पहले भगवान? अभी गुरुमंत्र तो लिया ही नहीं, जाप किया ही नहीं, भक्ति-इबादत की ही नहीं। हर क्षेत्र में एक थ्योरी है कि, पहले मेहनत करो और फल बाद में। तो ऐसी थ्योरी ही अल्लाह, वाहिगुरु, मालिक की तरफ है। पहले भक्ति-इबादत करो, दया-मेहर, रहमत बाद में बरसेगी। तो इसलिए भाई, पहले इस थ्योरी पर अमल करो। यही सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने फरमाया। बहुत समझाते हैं पीरो-मुर्शिदे-कामिल, फकीर। पर विश्वास जो करते हैं वो रहमत से झोलियां भर लेते हैं, जो विश्वास नहीं करते पारे की तरह विश्वास ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे मनमते चलता रहता है वो खुशियों के हकदार नहीं बन सकते।

सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने फरमाया कि भाई एतबार करो। क्योंकि संत-महापुरुष, फकीर जो कहता है, वो सबके भले के लिए कहता है, अपने फायदे के लिए कभी नहीं कहता। आप अमल करके देखो, यकीन करके देखो, मालिक के रहमो-करम के हकदार आप जरूर बनेंगे। मान लो आप जिंदगी में, अपनी गुजरी हुई जिंदगी में कोई पाप-गुनाह कर बैठे हैं, घबराओ मत, वो रहमत का दाता है, वो दया का सागर है अगर सच्चे दिल से भक्ति-इबादत करोगे तो बड़े-बड़े राक्षसों को उसने माफ किया है, वो आपको भी माफ करेगा और अपना प्यारा भक्त बनाकर दया-मेहर, रहमत से मालामाल जरूर कर देगा। इसलिए भक्ति-इबादत करो तभी छुटकारा है, तभी परेशानियां दूर होती हैं।
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