दृढ़ संकल्प का प्रतीक है विजयदशमी Vijayadashami [Dussehra]
सत्य को जानने, समझने और अपनाने का साहस और संकल्प शायद हम सभी में चूकता जा रहा है जबकि विजयदशमी इसी साहस और संकल्प का महापर्व है। जीवन की इन दो महत्वपूर्ण शक्तियों को जागृत करने और उन्हें सही दिशा में नियोजित करने की महान प्रेरणाएं इसमें समाई हैं। विजयदशमी के साथ जितनी भी पौराणिक कथाएं अथवा लोक परंपराएं जुड़ी हुईं हैं, सबका सार यही है।
दरअसल श्रीराम जी और रावण दोनों ही अलग अलग प्रतीक हैं। हम चाहे उन्हें मानव व दानव के रूप में देखें या आध्यात्मिक और भौतिकतावादी संस्कृतियों के रूप में। चाहे उन्हें राक्षस और रक्षक के रूप में देखा जाए या दमनकारी और उद्धार करने वाले तत्वों के रूप में, हर रूप में वे दो विपरीत ध्रुवों का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं।
एक और श्रीराम जी हैं, जो अपने पूज्य पिता जी की आज्ञा पालन में, मिलने जा रहे राज्य को छोड़कर सहर्ष वन-गमन कर जाते हैं तो दूसरी तरफ रावण है जो सब कुछ अपनी ही मुट्ठी में रखने को आमादा है। यहां तक कि उसे अपने ही भाई विभीषण की सलाह भी ऐसी नागवार लगती है कि वह उसे एक ही झटके में देश निकाला दे डालता है।
उसे केवल अपनी ही सम्पत्ति से संतुष्टि नहीं मिलती बल्कि औरों की सम्पत्ति तक लूटने, हड़पने तक के लिये वह सतत् प्रयत्नशील रहता है और अपने धन व रुतबे को बढ़ाने के लिये वह निकृष्ट से निकृष्ट कृत्य करने से भी बाज नहीं आता, यहां तक कि अपनी प्यारी बहन के अपमान के बदले की आड़ में वह श्रीराम जी की उस सुंदर पत्नी (सीता माता) का अपहरण कर डालता है जिसे पाने में वह धनुष-यज्ञ में सफल नहीं हो पाया था।
दूसरी तरफ श्रीराम जी शापग्रस्त अहिल्या को शापमुक्त कर महिला उद्धारक के रूप में उभरते हैं। शबरी के जूठे बेर खाकर वे अपने आप को जात-पात से बहुत ऊपर सिद्ध कर देते हैं, तो जटायु का तर्पण करके वे अपने प्रति निष्ठावान लोगों को कृतज्ञ व दयालु होने का भी परिचय दे देते हैं। रावण जहां अपनी शक्ति के मद में फूला रहने का आदी है, वहीं श्रीराम जी अधिक संसाधनों के न होने पर भी एक अच्छे प्रबंधक के रूप में उभरकर सामने आते हैं और रावण जैसे महाबली पर विजय प्राप्त की। यहां एक बार फिर यही सिद्ध होता है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए संसाधन नहीं, वरन् एक दृष्टि, लग्न, निष्ठा, ईमानदारी व शुचिता का होना कहीं ज्यादा जरूरी है।
श्रीराम जी और रावण दोनों दो अलग-अलग विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। दोनों की सोच, प्रकृति व प्रवृत्ति में जÞमीन आसमान का फर्क है। एक जिÞद का दूसरा नाम है तो दूसरा दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। एक सब कुछ हड़प लेना, छीन लेना, पा लेना चाहता है, तो दूसरा अपना सब कुछ शांति और राष्टÑ की समृद्धि के लिए त्याग देने में भी नहीं हिचकता। उसके लिए अपना सुख कम और दूसरों का सुख ज्यादा मायने रखता है।
श्रीराम जी और रावण दो एकदम विपरीत ध्रुव हैं और यही अंतर उनकी जीत और हार का कारण भी बनता है। समय भले ही कितना क्यों न बदल गया हो पर आज भी सत्य यही है कि दृढ़ संकल्प के साथ अंतत: जीत सच की होती है।
-घनश्याम बादल