कौन सी चीज़ मकान को घर बनाती है?
यदि आप मकान को घर बनाना चाहते हैं तो ईंट-गारे से बनी इस इमारत में अपनी भावनाओं का भी थोड़ा निवेश करें। भवन की दीवारों को स्मृतियों की अदृश्य तस्वीरों से सजाएं। फिर देखिये, भवन खुले दिल से आपको अपनाएगा। जब आप उस भवन से बाहर जाने लगेंगे तो परिचितों की तरह नहीं करीबी दोस्तों की तरह जुदा होंगे। इसी तरह कोई मकान घर बनता है।
इस सवाल का जवाब देना किसी ऐसे शख्स के लिए मुश्किल है, जिसने अपने जीवन में शुरूआती बीस साल तक गर्मियों की तमाम छुट्टियां एक ऐसे भवन में गुजारी हों, जो १०० से ज्यादा वर्षों तक घर बना रहा।
तमिलनाडु के उम्पलपुराम में पुश्तैनी जगह पर हमारा एक घर था। जिसका आकार रहवासियों की संख्या बढ़ने के साथ साथ बढ़ता गया। बगैर किसी निश्चित योजना के, बिलकुल बेतरतीब तरीके से। परिवार को जब जरूरत होती, एक नया कमरा बनवा दिया जाता। जिस तरह पेड़ की जड़ें फैलती हैं, उसी तरह हमारा यह मकान भी जहां जगह मिली, उसी और बढ़ता गया।
हालांकि यह बहुत सुन्दर नहीं दिखता था। इसकी मिटटी से बनी दीवारें एक मीटर तक चौड़ी थी। इनका प्लास्टर कई जगह अधूरा था, जिसकी वजह से इनमें लगे पत्थर किसी पुराने घाव के दाग धब्बों की तरह नजर आते। उन धब्बों को ढंकने के लिए मेरे दादाजी हर साल स्वतंत्र रूप से बटने वाले कैलेंडर ले आते और इन दीवारों पर टांग देते। इन कलेंडरों को सजाने का कोई निश्चित क्रम नहीं होता, जिसके चलते यहां हमेंशा दिलचस्प चित्र संयोजन तैयार हो जाता। भगवन गणेश के बगल में अभिनेत्री वैजयंती माला और नेहरूजी व महात्मा गाँधी के बाजू में हेमा मालिनी।
हमारे इस घर में हर चीज के लिए जगह थी। पुराने बर्तन, बेंत से बना चरमराता सोफा (जिसे डालडा के खाली पीपों के सहारे स्थिर किया गया था), पुरानी पत्रिकाओं का ढेर, एक पुराना ट्रांजिस्टर रेडियो, जो काम नहीं करता था, लेकिन एक जगह पर पूरी शान से जमा हुआ था. आम की पत्तियों से बनाये गए पिछले साल के तोरण, जो दरवाजे पर सूखी व मुरझाई अवस्था में लटकते रहते, पुराने टीन के डिब्बों से बनाया गया पिरामिड, कोई नहीं जानता था कि उनके भीतर क्या है, लेकिन वे सभी चीजें वहां जमा थी।
यह भवन बड़े दिलवाला और क्षमाशील था। आप इसकी दीवारों पर जहां चाहे कील ठोक सकते थे, अपनी मर्जी के मुताबिक जहां चाहे लिख या आकृतियां उकेर सकते थे और भूली बिसरी चीजों की खोज में कोना कोना छान सकते थे।
यह मकान सिर्फ उन लोगों का ही घर नहीं था, बल्कि इसमें कई अन्य तरह के प्राणी भी रहते थे। यह सिर्फ एक भवन नहीं था यह एक इकोसिस्टम था।
इसमें एक नन्ही गिलहरी भी थी, जो दिन भर अतिथि कक्ष के अंदर बाहर फुदकती। घर के बाहर लगे नारियल के पेड़ पर चढ़ती उतरती, बिस्तर के इर्द गिर्द चक्कर काटती रहती। यहां मानसून के मौसम में मेंढ़कों की टर्र टर्र का आलाप सुनाई देता।
घर में छोटी छोटी काली चीटियों की कतार अक्सर नजर आ जाती। मकड़ी अपने द्वारा बने हुए महीन जाले में न जाने किसका इंतजार करती रहती।
कोई भी इन बिन बुलाये अतिथियों से परेशान नहीं होता था। वे सब हमारे साथ घर में रहते। हमने साथ साथ रहना सीख लिया था। मैंने कई बार बरसात की रातों में मेंढक को अपने बिस्तर पर बैठा पाया है।
लेकिन मुझे इस घर की एक बात जो सबसे ज्यादा पसंद है, वह है छत पर लगे मैंगलोर टाइल्स के बीच से छनकर आती रौशनी। यह रौशनी नरम, थोड़ा पीलापन लिए होती।
सूर्य कि यह रोशनी एक स्तम्भ के रूप में अंदर आती, जिसमें धुल के छोटे छोटे कण लगातार नाचते रहते। मैं इस रोशनी के स्तम्भ को अपने हाथ में पकड़ने की कोशिश में लगा रहता।
ऐसा करने में मुझे खूब मजा आता।
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