समस्याओं से भागें नहीं, मुकाबला करें
Problems face हम अक्सर समस्याओं से घिरे होने की बात करते हैं। सच तो यह है कि इन समस्याओं से अधिकांश को किसी बाहरी ने नहीं बल्कि हमने स्वयं अपने ऊपर लादा है या फिर किस मोह, स्वार्थ, लोभ, आनंद के कारण इन समस्याओं को लादा जाना स्वीकार करते हैं। हां, यह भी संभव है कि कोई समस्या अचानक, अकारण हमें घेर ले। जैसे एक बार एक संन्यासी कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक बंदर ने उन्हें घेर लिया और लगा दांत निकाल कर ‘खो.. खो’ कर डराने। संन्यासी डर के मारे पीछे हटने लगे। जैसे वो पीछे हटते, बंदर और निकट आ जाता और उनका सामान छीनने का प्रयास करता।
बंदर संन्यासी के हाथ से सामान छीनने वाला ही था कि एक राहगीर की आवाज सुनाई दी, स्वामीजी डरो मत, मुकाबला करो। संन्यासी ने अपने पैर से जूता उतारा और उसे बंदर को दिखाते हुए उसकी ओर बढ़े। अब संन्यासी एक कदम बढ़ाता तो बंदर दो कदम पीछे हटता। यह फासला बढ़ता गया और एक स्थिति यह आई कि बंदर मैदान छोड़कर भाग गया।
समस्याओं की भी यही गति है। जब तक हम उनके प्रति अनमने अथवा लापरवाह बने रहते हैं या फिर लोक लाज, आर्थिक हानि के डर से मौन रहते हैं तो ये समस्याएं लगातार बलवती होती जाती है। हमारी इस मानसिक स्थिति का लाभ उठाने वाले भी हमारे आसपास रहते हैं। कई बार जिसे हम अपना बहुत करीबी समझते हैं, निकटस्थ समझते हैं वह भी समस्याओं का कारण बन सकता है। इसके अतिरिक्त भी अनेक कारण हो सकते हैं लेकिन प्रश्न यह कि क्या हम समस्याओं के डर से स्वयं को पिंजरे में बंद कर लें? क्या हम किसी से कोई संबंध न रखें? क्या सामाजिक प्राणी होते हुए भी हम स्वयं को समाज से काट लें? इसका उत्तर निश्चित रूप से केवल एक है और वह है- ‘न’। सच तो यह है कि समस्याएं जब आती हैं तो कष्ट, तकलीफ, आशंकाएं लेकर आती हैं और जब जाती है तो अनुभव, ज्ञान, परख और परिपक्वता देकर जाती है।
अब बात करें समस्याओं की तो समस्याएं कई प्रकार की हो सकती हैं। जैसे ही हम उनकी चुनौती स्वीकार करते हैं और उन्हें उनके कद से छोटा करने का संकल्प लेते हैं, समस्या सहम कर छोटी हो जाती है लेकिन जब हम समस्या को हौवा बनाकर उससे डरते रहते हैं तो वह लगातार अपना भयानक रूपी आकार बढ़ाती रहती है। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जैसे परछाई। जब हम अपनी ही परछाई से डर कर उससे दूर भागने लगते हैं तो वह लगातार हमारा पीछा करने लगती है। जब हम पीछे मुड़ कर उसे अपने साथ आते देखते हैं तो स्वाभाविक है कि हमारा भय का भूत और मजबूत होने लगता है।
दूसरी ओर जब हम उसे पकड़ने के लिए उसकी तरफ एक कदम भी बढ़ाते हैं तो वह आपसे आगे भागने लगती है। आप उसे पकड़ने के लिए अपनी गति बढ़ाते है, तो भी अपनी चाल बढ़ा लेती है। अब उसे आपसे डर लग रहा है। बस यही स्थिति समस्याओं की है। जब हम उन्हें दूर करने की दिशा में एक कदम बढ़ाते हैं, वे छोटी होना प्रारंभ हो जाती है। छोटी होने का मतलब ही है उसने अपने साम्राज्य को सिकोड़ना आरंभ कर लिया है।
उसका सिकुड़ता आकार उसे समाप्त होने के लिए मजबूर ही करेगा। पर प्रश्न यह कि क्या हम में इतना धैर्य, इतना विश्वास है? ये धैर्य और आत्मविश्वास किसी महंगी दुकान या शोरूम में नहीं मिलते बल्कि हमारे ही मन-मस्तिष्क में ये सहज उपलब्ध हैं। कोई मोल नहीं। बिलकुल नि:शुल्क। बस चिराग की तरह अपने दिमाग को रगड़िए। ध्यान रहे दिमाग को रगड़ कर गरम नहीं करना। उसे ठण्डा बनाये रखिये। यानी हडबड़ाहट न करें। तनाव न पालें। तनाव और हड़बडाहट हमारी शक्ति को आधा कर देते हैं।
यदि धैर्य और आत्मविश्वास बरकरार तो सब काम आसान। समस्या आने पर हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहना। अकर्मण्यता उसे और जटिल बना सकती है। ज्यों ही अपने मन, वचन और कर्म को बुद्धि की कमांड स्वीकारने का आदेश देते हैं, समस्या को हल करना आसान हो जाता है। सार रूप में कहें तो सबसे पहले हमें समस्या रूपी बंदर के सामने डट कर खडेÞ होने का संकल्प और व्यवहार दिखाना पड़ेगा। यदि हम ऐसा कर सकें तो समझिए आधी समस्या तो तत्क्षण हल हो गई क्योंकि आपके उत्साह और संकल्प के सामने वह टिक ही नहीं सकती लेकिन फिर याद दिला रहा हूं- उत्साह और संकल्प में उत्तेजना नहीं होनी चाहिए। क्र ोध से बचना है। कुछ ऐसा करने से बचना है जिसे गैरकानूनी कहा जाए। अमानवीय माना जाए। जिसे अनैतिक माना जाए।
यदि आप ऐसा कर सकें तो दुनिया की कोई समस्या आपके सम्मुख टिक नहीं सकती। शायद आपके मन में यह सवाल आए कि ‘यदि समस्या हमारी औकात, हमारी क्षमता से बड़ी हो तब?’ तो यह समझ लीजिए समस्या आपकी औकात, आपकी क्षमता को नाप-तोल करके ही आती है। चींटी से भिड़ने कभी हाथी नहीं आता। चींटी से टिड्डा या कुछ ऐसा ही भिड़ेगा पर मत भूलो चींटी तो हाथी से भी नहीं डरती है, फिर आप क्यों?
-विनोद बब्बर