इक पैगाम, प्यारे बच्चो! आपके नाम -सम्पादकीय
प्यारे बच्चो! मस्ती भरे दिन आ गए हैं। ‘छुट्टियां ही छुट्टियां’ हुण मौजां-ही-मौजां। फुल मस्ती और घुमक्कड़ी वाले दिन शुरु हैं। पिकनिक व सैर-सपाटे वाले प्लान आपकी तरफ से पहले ही बन जाते हैं आजकल। मम्मी-पापा को तो जैसे आॅर्डर ही करना है, क्योंकि जेब तो उनकी ही ढीली होनी है न! आपको तो सिर्फ मस्ती करनी है। हाँ, कुछ पेरेंटस नहीं भी जा पाते होंगे। उनके भी अपने किस्से होंगे। उनकी कुछ विवशताएं होंगी। आपका उनके साथ सहमत होना भी जरूरी है। एक सौहार्दपूर्ण माहौल बना कर रखना है, क्योंकि बड़े तो बड़े हैं। उनका भी मान रखना होता है। बच्चे जब बड़ों की बात मान लेते हैं तो उनका सीना गर्व से फूल जाता है।
गर्मी की ये छुट्टियां प्यारे बच्चो, आपके नाम ही दर्ज होती हैं। छुट्टियां और बचपन के सुनहरे दिनों की दास्तां अज़ीज़ होती है। इन छुट्टियों में आपके मिज़ाज सावन के घुम्मकड़ बादलों से कम नहीं होते। छुट्टियों की धमा-चौकड़ी और बचपन की निराली यादें सदा महकती रहती हैं। हम कितने भी बड़े हो जाएं, हमारा ये बचपन हमें खुशमिजाज़ बनाए रखता है। अपने पैरेंटस (माता-पिता) से उनके बचपन के बारे में जानना। देखना वो बड़े नाज़ से किस्से सुनाते नहीं थकेंगे! सच में, वो जमाना और वो बचपन भी हद दर्जे का बेफिक्री वाला था। बचपन तो वो ही था! एकदम आज़ाद, मस्तमौला, आसमां की तरह खुल्लमखुला। आज की तरह गैर जरूरी चीज़ों से लदा हुआ नहीं था।
आज नाना-नानी, दादा-दादी के घर जाने की बातें लगभग बिसरा ही दी गई हैं। दादा-दादी के पास जाने की बात होती भी कहां थी। क्योंकि बचपन तो बीतता ही उन्हीं के प्यार के साये में था। आज तो दादा-दादी के पास जाने को भी तरस जाता है बचपन। ये अमीरी वाला बचपन है। वो फकीरी वाला था और जो नज़ारे फकीरी में हैं, वो अमीरी में कहां! खाने-पीने की बात करें तो एकदम देशी। चटनी से लेकर दूध, मलाई, दही, लस्सी, घी-मक्खन तक सब घर में बनी देशी खुराक। आज की तरह लिफाफा बंद या पैकेट वाला कुछ नहीं था। देशी खुराक से ही सेहतमंद था बचपन।
कितनी भी गर्मी पड़े, धूप कितनी ही तेज हो, पारा कहीं भी आएं-जाएं कोई परवाह न थी। बल्कि दुपहरी तो और भी मजेदार होती। मित्रमंडली की सिफारिशें ही मान्य होती। भरी दोपहर में खेलना है तो खेलना है। दुपहरी के पीक आॅवर्स अर्थात् बारह से तीन बजे का टाईम अपनी धमा-चौकड़ी के लिए पूरा समर्पित था। घर वाले सौ बार मना करते, लेकिन अल्हड़ बचपन कहां रहने वाला होता। जैसे ही घर वाले मानो सो गए, तो छुप-छुÞपा के पहुंच जाते मित्रमंडली के पास। बड़े-बड़े पीपल, बरगद या नीम के पेड़ किसी साझी जगह होना आम बात थी। वहाँ बच्चों का जो मेला लगता, आज वालों के हिस्से वो कहां है! पूरी दोपहर जमकर मस्ती होती। पेड़ों पर चढ़ते, उछलते-कूदते।
जब पूरी तरह मिट्टी से धूल-धूसरित हो जाते, फिर तय होता नहाने का प्रोग्राम। पता है वो भी कहाँ! आज की तरह स्वीमिंग पूल नहीं थे। गाँव का वो बड़ा-सा जोहड़ जिसका पानी एकदम साफ-सुथरा और नहाने वाला होता। सारी टोलियाँ वहाँ पूरा हो-हल्ला मचाती, छल्लांगें लगाती। एक-दूसरे को पकड़-पकड़ पानी में फेंक मारते। कई गुदड़ी के लाल यहीं से परफैक्ट तैराक बन जाते। खेलते-खेलते दुपहरी बीतने वाली होती तो दिमाग का अलार्म बज उठता। सबको पता होता कि घर वालों के जाग जाने से पहले पहुंचना लाजिमी है। अपने कपड़े-लत्ते उठाए और फिर होती भागम-भाग।
ऐन सही टाईम पर पहुंचकर ऐसे लगता जैसे कोई मैदान फतेह कर लिया है। किताबें-कापियां अगल-बगल ऐसे रख दी जाती कि उनको लगे जैसे बहुत बड़े पढ़ाकू बस ये ही हैं। ऐसी बेशकीमती यादें हैं उस जमाने वाले छबीले बचपन की। निरा फकरों वाला बचपन था वो। इन छुट्टियों में इन हसीन किस्सों को सुनने के लिए कुछ टाईम फिक्स कर लेना। आपके पास दादा-दादी, नाना-नानी हैं तो आप बड़े खुश किस्मत हो। छुट्टियों के कुछ दिन उनके लिए भी रख लेना। उनकी दुआओं में यश है, कीर्ति है, जो किसी के बड़ा बनने में बड़ी सहायक सिद्ध होती हैं। तो बड़े-बुजुर्गों की सेवा करके उनका स्रेह पाना। प्यारे बच्चो! इसी स्नेह के साथ आपकी ये छुट्टियाँ मंगलमय हों!