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रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, सरसा
बुरी आदतें सब तू छोड़ दे, ओ बांवरे छोड़े दे। झूठे नाते सब जग के, तोड़ दे ओ बाँवरे तोड़ दे।।

पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां
मालिक की साजी-नवाजी प्यारी साध-संगत जीओ, जो भी जीव यहां सत्संग पण्डाल में चल कर आए हैं। अपने कीमती समय में से समय निकाल कर मन का सामना करते हुए आप लोग पधारे हैं। बहुत ऊँचे भाग्य हैं आपके, भाग्यशाली हैं जो इस घोर कलयुग में राम-नाम की कथा कहानी में आकर बैठते हैं।

आप लोगों ने मालिक की याद में आकर बैठने का समय निकाला, यहां आकर दर्शन दिए हैं। आप सभी का यहां पधारने का तहदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते है, मोस्ट वैल्कम। आज जो आपकी सेवा में भजन बोला जाएगा,

जिस पर आज का सत्संग होना है वो भजन है:-

बुरी आदतें सब तू छोड़ दे,
ओ बाँवरे छोड़ दे।
झूठे नाते सब जग के,
तोड़ दे ओ बाँवरे तोड़ दे।।

बुरी आदत, बुरे विचार जिन जीवों के अन्दर चलते हैं, ये बुरे विचार उनको (मालिक की दया-मेहर-रहमत, उसकी दया-दृष्टि से) कंगाल कर देते हैं। अन्दर बुरे विचार घूमते रहते हैं और हमेशा उन बुराइयों से इन्सान या इन्सान का मन नजारे लेता है, खुशी महसूस करता है। दरअसल में वो खुशी कुछ पल की होती है, जो बुराई सोचने से आती है। दूसरों के प्रति बुरा देखने से जो बुरे ख्याल आते हैं वो क्षण-मात्र मन का आनन्द होता है

और उसके बाद उस बुराई की वजह से और बुरे ख्यालों की वजह से इन्सान को टैंशन, गम, चिन्ता, परेशानी का सामना करना पड़ता है। क्योंकि जैसे विचारों के आप स्वामी हैं, जैसे ख्याल आपके अन्दर चलते हैं वैसा फल आपको जरूर मिलता है। बुरे ख्याल, बुरी सोच आपको मालिक की निगाह से दूर करते हैं, आत्मिक बैचेनियां, परेशानियां पल्ले पड़ जाती हैं। अगर भली सोच होती है, नेक सोच होती है तो आत्मिक शान्ति, आत्मिक सुकून, अन्दर-बाहर की तन्दुरुस्ती मिलती है।

जैसी आदतें इन्सान को पड़ जाती हैं उन्हें छोड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के तौर पर जैसे पशु होता है, उसके लिए खाने को चाहे कितना भी बढ़िया चारा डाला जाए पर अगर उसे रस्सा चबाने की आदत पड़ जाए तो वो रस्सा चबाने से बाज नहीं आता। परन्तु उसका इन्तजाम हो जाता है कि जब भी पानी पिलाने लेकर जाते हैं मुंह पर उसके धागों से या रस्सी से बुना छिकला इत्यादि चढ़ा दिया जाता है ताकि वो इधर-उधर मुंह न मारे, पर इन्सान के तो ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा नहीं हो सकता कि इन्सान की आंखों पर कुछ चढ़ा दिया जाए कि वो बुरा न देखे, बुरा न सोचे।

ये तो अन्त:करण से परिवर्तन करना है। अन्दर की सोच को बदलना है ताकि बुरी आदत छोड़ सके, बुरे विचार छोड़ सके और अन्दर की आदत, अन्दर के विचार अगर कोई बदलना चाहे तो उसके लिए एक ही तरीका ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु का नाम है। नाम का सुमिरन ज्यों-ज्यों इन्सान करता जाता है, त्यों-त्यों बुरे विचारों में कटौती आना शुरू हो जाती है। बुरे विचार खत्म हो जाएंगे, क्योंकि पता नहीं मन के आप कब से आदी हैं, कब से आप उन बुरी आदतों से जुड़े हुए हैं, कब से आप वो बुराइयां कर रहे हैं।

बहुत समय से आप उनसे जुड़े हुए हैं तो छोड़ने में भी कुछ समय लगेगा। ज्यों-ज्यों आप सुमिरन करते जाएंगे, मालिक का नाम लेते जाएंगे, त्यों-त्यों आपके अन्दर की बुराइयां दूर होती चली जाएंगी और अन्दर की बुराइयां जैसे-जैसे दूर होती हैं इन्सान मालिक की दया-मेहर के काबिल बनता है, उस मालिक की दया-मेहर के लायक बनता है।

यही भजन में लिखा है कि हे इन्सान! बुरी आदतें छोड़ दे। हे भोले इन्सान, मन के गुलाम, माया में भ्रमाए हुए इन्सान बुरी आदतें छोड़ दे। ‘झूठे नाते सब जग के, तोड़ दे ओ बाँवरे तोड़ दे’, झूठ के साजो-सामान में हद से ज्यादा मत फंस। इतना मत खो कि अपने ओ३म, हरि, अल्लाह, राम को भूल जाए और बाद में दु:ख उठाने पड़ें।

इस बारे में लिखा है:-

ऐ इन्सान! तू इस तन की लज्जतों से हट। ल्ज्जतें और इन्द्रियों के भोगों से मुख मोड़ने में ही सब बरकतें हैं। जो शरीर के रसों में मस्त हो गया समझो वो आप अपना खून कर रहा है। तू तो सुन्दर स्वरूप युसूफ की तरह इस तन के कुएं में गिरा हुआ है। इसके अन्दर से निकलने के लिए एक गुप्त रस्सी, नाम की डोरी है जो मालिक की दया की धार अन्दर आ रही है। उस रस्सी को पकड़ कर इस तन रूपी कुएं से बाहर आ जा ताकि तू मालिक की दरगाह में पहुंच सके। यह अस्थूल आंखें तो फनाह को देखती हैं। यदि तेरे अन्दर की आंख खुल जाए तो तू अमर देशों को देख सकेगा।

हे इन्सान ! तू अपने तन की लज्जतों में खोया हुआ है। शरीर को कुआं मान कर अन्दर ही अन्दर गिरा हुआ है। अरे! नीचे की तरफ मुंह तो हैवानों, जानवरों का होता है। तेरा मुंह तो सीधा है। कभी सोचा कर, कभी अच्छी-नेकी की बात भी किया कर। केवल शरीर के भोग-विलास में, मिठास में, आनन्द, लज्जत, खुशी में खोया हुआ है।

कभी इनसे ऊपर आ तो बेशुमार आनन्द, लज्जत, जिसे परमानंद कहते हैं उसको भी चख पाएगा और मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल भी बन पाएगा। भाई! साथ-साथ भजन चलेगा. और साथ-साथ ,आपकी सेवा में अर्ज करते चलेंगे।

हां जी चलिए भाई:-

टेक:- बुरी आदतें सब तू छोड़ दे
ओ बांवरे छोड़े दे।
झूठे नाते सब जग के तोड़ दे
ओ बांवरे तोड़ दे।।
1. जैसी मन को आदत पड़ जाए
फिर कभी ना छोड़े ।
उसी काम को भाग के जाए,
मुड़ता ना फिर मोड़े।
कोई सन्त सुजान मोड़ दे
तो बेशक मोड़ दे। बुरी आदतें…।
2. सन्त कबीर जी शब्द द्वारा
जीवों को समझाते।
चोर जुआरी क्या बदलेंगे
आदत को फरमाते।
कोई बने शूरवीर
छोड़ दे तो आदत छोड़ दे। बुरी आदतें…।
3. मन विषयों को दौड़ के जाए
स्वामी जी फरमाते।
बुरे कामों के बदले
सीधे नरकों में हैं जाते।
सुख पाना प्रीत प्रभु से जोड़ दे
ओ बांवरे जोड़ दे। बुरी आदतें…।
4. जाने सब कुछ मन है
फिर भी बुरे काम है करता।
हाथ में दीपक लेकर देखो
कुएं में है पड़ता।
बन जा भोला चतुराई को छोड़ दे
ओ बांवरे छोड़ दे। बुरी आदतें…।

भजन के शुरू में आया है :-

जैसी मन को आदत पड़ जाए फिर कभी ना छोड़े।
उसी काम को भाग के जाए, मुड़ता ना फिर मोड़े।
कोई सन्त सुजान मोड़ दे तो बेशक मोड़ दे।।

जैसी मन को आदत पड़ जाती है उस तरफ से फिर वो मुड़ता नहीं, रुकता नहीं। जैसे विचार, जैसी सोहबत इन्सान करने लग जाए बड़ी मुश्किल से उससे बच पाता है। कई बार ये देखा गया कि बुजुर्गवार खाली होते हैं तो गांव में एक जगह होती है, शहरों में पार्क कह देते हैं, जिसे सांझी जगह कहते हैं जो सभी की बनाई हुई होती है वहां पर जाकर बैठ जाते हैं।

दूसरों की चुगली, निंदा करना और ताश के पत्ते कूटते रहना, ये उनकी आदत होती है। उन बुजुर्गों को कोई इन बातों से हटाए तो कहते, चला जा! हमारे काम के बीच में दखलअंदाजी मत कर। यानि निंदा-चुगली कम होने से बहुत घाटा पड़ रहा है॥ यही समय अगर राम-नाम की चर्चा की जाए तो वो समय लेखे में लग जाता है।

आप खाली हैं, बुजुर्ग हैं सभी इकट्ठे बैठो, मालिक की चर्चा करो, कोई शब्द वाणी करो, राम-नाम की उम्र है। ऐसी मन की गन्दी आदत है कि कहते सारी उम्र राम-नाम को सुनते-सुनते हो गई। पर निंदा-चुगली करते सारी उम्र हो गई उसके लिए नहीं कहता। वो तो कहेगा, नहीं ! ये पहले ऐसा था, अब कैसे बगला भक्त बनता है। फलां आदमी ऐसा था, वो वैसा था। दूसरों की मैल धोने में लगा रहता है।

भाई बात है आदत की, जैसी आदत पड़ गई वो छोड़ेगा नहीं। अपनी मान-बड़ाई की, अपनी बात सुनाने की कि मैं ऐसा था, मैंने ये किया, चाहे कोई सुने न सुने, चाहे सामने वाला थक जाए पर कई सज्जन ऐसे होते हैं जो बना-बना कर सुनाते ही रहते हैं। उनको अपनी बात सुनाने में रस आता है। ये आदतें हैं जिसको जैसी पड़ जाएं, तो ये रुकती नहीं हैं।

जैसी आदत पड़ी हुई है मन उसकी तरफ दौड़ कर जाएगा। ‘कोई संत सुजान मोड़ दे तो बेशक मोड़ दे।’ सन्त, पीर, फकीर ऐसे होते हैं जब चाहे अपने आप में जो मर्जी परिवर्तन ला सकते हैं। ये उस मालिक की दया-मेहर, रहमत होती है वो अपने आपको जैसा मर्जी बदल सकते हैं। उनके सामने मन पानी भरता है।

अन्यथा ये मन जालिम, ये मन पापी इन्सान का पीछा नहीं छोड़ता। गुमराह करता रहता है और बुरे विचार जैसे आ गए उनके पीछे चलता ही रहता है, उस आदत को छोड़ता नहीं है। सन्त, फकीर भी समझा देते हैं। कई बार हमने देखा, कई लोगों को समझाया जाता है कि ये बुरी आदत है, ये बुरा कर्म है मत कर। कह देते हैं नहीं करूंगा, कुछ देर करते भी नहीं, लेकिन जैसी ही देरी हुई, समय गुजरा फिर से वही गन्दी आदत, फिर से रस्सा चबाना शुरू कर देते हैं।

भाई उनको फिर सुख या आनन्द, खुशियां नहीं मिलती। पीर, फकीर दुनिया में आते ही इसलिए हैं कि हर किसी को सुख मिले, वचन भी इसलिए करते हैं यानि उनका हर कर्म दूसरों के लिए होता है, अपने लिए नहीं होता है। जब कोई संतों के वचनों पर अमल न करे, मनमर्जी करे, मनमते चले तो फिर सन्तों का दोष नहीं, उस मनमते चलने वाले का दोष है।

इसलिए फिर वो दु:खी, परेशान होता है और सुनना ये पड़ता है कि ये तो फलां सन्तों का शिष्य है, इसने ऐसा बुरा कर्म क्यों किया? ये कोई नहीं सोचता कि संत, पीर, फकीर कभी किसी को बुरा करने की, बुरा बोलने की, बुरा सोचने की शिक्षा नहीं देते हैं, न अकेले में, न सभी के सामने और न ही किसी को लिख के वाणी में देते हैं।

ये कोई कहता है कि करने वाला बुरा है। उसके मन ने बुरा कराया है। ये संसार की रीत है। भाई ! ये बिल्कुल गलत है। जो ऐसा इन्सान कहता है। मन के पीछे चलता स्वयं है, लेकिन गलत धर्म को कहा जाता है। धर्म में तो बहुत लोग होते हैं। जैसे एक कक्षा होती है उसको एक टीचर पढ़ाता है। उसी कक्षा में बहुत से बच्चे मैरिट में आते हैं, बहुत से प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी में आते हैं, कुछ पास हो जाते हैं और कुछ फेल हो जाते हैं।

अब अगर कोई एक या दो फेल हो गए तो उनकी चर्चा करता है कि ये फेल क्यों हुआ? मैरिट वालों का ख्याल नहीं है। पढ़ाया तो टीचर ने है, मैरिट भी तो ले गए, प्रथम श्रेणी भी ले गए, अच्छे भी बने, अगर उन्हीं में एक या दो अच्छे नहीं बने तो पढ़ाने वाले में कमी नहीं है। कमी उनकी नासमझी की है।

वो समझा नहीं, अमल नहीं किया। टीचर, मास्टर ने जो सिखाया उसको माना नहीं, अभ्यास नहीं किया तो नम्बर कहां से आएंगे। दोष उस मास्टर, टीचर का नहीं है, दोष उसे न मानने वाले का है।

ऐसे ही संसार में जितने भी संत, पीर, पैगम्बर, रूहानी सन्त-महापुरुष आते हैं उनका काम हर किसी को नाम जपाना, इन्सान को इन्सान से जोड़ना, इन्सान को भगवान से जोड़ना होता है पर अगर इन्सान न माने, वचनों पर अमल न करे तो दु:खी, परेशान होता है। इसका दोष गुरु, संत, पीर, फकीर का नहीं, न मानने वाले का है।

‘गुरु बेचारा क्या करे जा सिक्खन में चूक।’

गुरु, संत, पीर, फकीर क्या करे, अगर मानने वाला अमल नहीं करता, सुन कर छोड़ता रहता है। तो भाई! उस इन्सान को परेशानियों, मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। उसे अपने कर्म भोगने पड़ सकते हैं। फिर वो दु:खी, रोगी, परेशान होता है, फिर कहता है कि मालिक ने मेरे पर दया नहीं की।

हे इन्सान ! तू वचनों को मान नहीं रहा और-वो मालिक तेरे पर दया कैसे करे? मालिक तो दया-मेहर भेजता है, लेकिन तू वचन न मान कर, अमल न करके, मनमते चलने की वजह से अपने जमीर को फाड़ कर रखता है। जैसे दामन तो फैला लिया, लेकिन उसमें छेद ही छेद हैं। मालिक की रहमत आई छेद में से बाहर निकल गई। वैसे ही जो लोग अमल नहीं करते, पीर, -फकीर, संत, गुरु, महापुरुषों के वचन तो सुनते रहते हैं, पर करते मनमर्जी हैं। ऐसे इन्सानों को सच्चा सुख, आनन्द, लज्जत, खुशी नहीं मिलती। वो मन के धक्के चढ़े रहते हैं।

इस बारे में लिखा है :-

संत दयाल इस जीव को पुकार-पुकार कर कहते हैं कि तू सत्पुरुष का पुत्र है। ऐसी करनी मत कर जो यम की चोट खानी पड़े। पर ये जीव नहीं मानता और सन्तों के वचन का यकीन नहीं करता। वही काम करता है जिससे यम की ही चोट खावे।

सन्त कबीर जी शब्द द्वारा जीवों को समझाते।
चोर जुआरी क्या बदलेंगे आदत को फरमाते।
कोई बने शूरवीर छोड़ दे तो आदत छोड़ दे।

कबीर साहिब ने अपनी वाणी में लिखा है :-

‘मना रे तेरी आदत ने,
कोई बदलेगा हरि जन सूर।
चोर जुआरी क्या बदलेंगे
ये तो माया के मजदूर।।’

चोर, जुआरी ये तो माया के मजदूर हैं। अगर अपने अन्दाज से, अपने नजरिए से कहें कि क्या चोर जुआरी वही होते हैं जो चोर, ठग्ग, लुटेरे रात को चुपके-चुपके लूटते हैं? हो सकता है, वो बदनाम हैं उनका नाम चोर है। पर जो शरेआम दिन-दिहाड़े जैन्टलमैन बन कर लूटते हैं क्या वो चोरों के महाबाप नहीं हैं? ठग्गी मारना, बेईमानी करना, लोगों का खून चूसना, रिश्वत, इनके सामने चोर बेचारे तो बिल्कुल छोटे-छोटे हैं।

पर इनका नाम बदनाम नहीं है, क्योंकि ये जैंटलमैन हैं। ठग्गी भी मारते हैं और ऊपर से अपने-आपको भला भी कहते हैं कि हम तो नेक हैं। लाखों की ठग्गी मारी पांच हजार रुपया गरीबों में बांट दिया, जय-जयकार हो गई। ये तो बड़ा दानी है। ये नहीं पता कि ये पापों की नानी है। सच्ची बात कड़वी लगती है।

पर मुंह में सच आ जाता है, रहा नहीं जाता। ऐसे-ऐसे ठग होते हैं। कबीर जी ने जिस हिसाब से कहा पर हम तो अपने इसी नजरिए से कहते हैं कि ऐसे जो माया के लोभी-लालची हैं जो रात को चोरी करते हैं, शरेआम लूटते हैं वो मन की आदत को क्या खाक बदलेंगे?

हे मना! तेरी आदत को कोई उस प्रभु का भक्त ही बदल सकता है। इस बारे में परमपिता शाह सतनाम जी महाराज फरमाते हैं:-

गुरु शिष्य वो ही पूरा है,
गुरु को अंग-संग जाने जो।
नीचा होकर हउमै छोड़े,
सच्चा रास्ता पहचानें जो।।
गुरु-शिष्य वो है जो गुरु बताए,
उस ऊपर इतबार करे।
भाणा माने, मीठा बोले,
गुर-शिष्यों से प्यार करे।।
पल-पल ऊपर गुरु हैं राखा,
कहें शाह ‘सतनाम जी’ ऐसा गुर-शिष्य,
लाखों का कल्याण करे।

ऐसा कोई शूरवीर बनें जैसा बेपरवाह जी ने अपने शेयरों में फरमाया कि जैसा उसे पूर्ण पीर, फकीर मिले, गुरू मिले उसके वचनों पर वो यकीन करे, विश्वास करे, व्यवहार का सच्चा बने, हर किसी से बेगर्ज, नि:स्वार्थ प्रेम करे, नाम का सुमिरन जितना कर सके जरूर करे और परमार्थ, दूसरों के भले में भी समय लगाए, ऐसा गुर-शिष्य जो वचनों पर अमल करता है वो मन की आदत को भी बदलता है और उसके जरिए सन्त, पीर, फकीर लाखों का उद्धार कर दिया करते हैं। भाई ऐसा अगर कोई बने तो मन की आदत बदल सकती है। वरन् ये मन जालिम तो कोहलू वाले बैल की तरह वहीं चक्कर लगवाता रहता है।

आगे आया है :-

मन विषयों को दौड़ के जाए है
स्वामी जी फरमाते।
बुरे कामों के बदले सीधे नरकों में है जाते।
सुख पाना प्रीत प्रभु से
जोड़ दे ओ बांवरे जोड़ दे।

इस बारे में स्वामी जी महाराज ने लिखा है:-

विषयों की प्रीत में जो कि बारम्बार नरक को ले जाने वाली है, ये मन दौड़ कर जाता है तथा नाम और सतगुरु की प्रीत से जो कि सदा सुख देने वाली है ये मन भागता है।

spiritual-satsangमन बुराई की तरफ दौड़ कर जाता है। कई बार कई माता-बहिनें, भाई-बुजुर्ग मिलते हैं। हमने कहा, भाई! सुमिरन कर लिया करो। कहते हैं, जी! राम का नाम लेना मुश्किल हैं। हमने कहा क्यों मुश्किल कैसे है? हमने कहा रोटी खाते हो? चाय पीते हो? कहते जी! वो तो पीते हैं, रफा-हाजत जाते हो? कहते, वो भी सुबह-सुबह जाना ही पड़ता है और काम-धन्धा करते करते हो? कहते वो भी करते हैं।

तो इसका मतलब राम का नाम ही फिजूल हो गया जो नहीं लेते! हमारे पास ये पंख हैं। कई बार ये पंख देख कर कई लोग मन में सोच लेते हैं कि इससे छू-मन्तर करेंगे और काम ठीक हो जाएगा। ये तो भाई! हम हवा लेने के लिए रखते हैं, कोई मक्खी आ जाती है, उसे उड़ाने के लिए रखते हैं। कई इधर ध्यान नहीं देते।

कहते, गुरू जी! नाम नहीं जपा जाता। इधर ध्यान रखते हैं कि ये पंख ऐसे लगाओ और पार हो जाओ। ये तो गड़बड़ है। ऐसा तो मुश्किल है। कभी ऐसा नहीं होता। हैरानीजनक बात है कि खाना भी खा सकते हैं, बाहर भी जा सकते हैं, काम-धन्धा भी कर सकते हैं पर राम का नाम नहीं लिया जाता तो फिर कल्याण भी नहीं होता। आप परेशानी में हैं, मुश्किल में हैं किसी भी तरह से तो अगर सुमिरन करोगे, परेशानियों से जरूर निकल पाओगे। अगर सुमिरन नहीं करते, मालिक का नाम नहीं लेते तो भाई! परेशानियों से बाहर नहीं आओगे।

जानें सब कुछ मन है,
फिर भी बुरे काम है करता।
हाथ में दीपक लेकर देखो कुएं में है पड़ता।
बन जा भोला चतुराई को
छोड़ दे ओ बांवरे छोड़ दे।

हे इन्सान! दुनियावी बुरे विचारों से भोला बन जा, चतुर-चालाक बनकर क्या लेना है। परन्तु आजकल तो भोला भी भोला नहीं बनता चतुर-चालाक ने तो भोला क्या बनना है? किसी भोले इन्सान को, जिसमें बुराइयां कम हों, दुनियावी विचार कम हों या दुनियावी सोच न हो, चतुर-चालाक अधिक न हो, उसे भोला कह दें तो ऐसे लगेगा जैसे करंट के हाथ लगा बैठे हो। वो कहेगा, मैं भोला नहीं हूं तेरा बाप भोला होगा, ऐसा सुनने को मिला।

भाई! जो भोले होते हैं दुनियावी विचार कम करते हैं, दुनियावी बुराइयों से बचे रहते हैं इतने ज्यादा चतुर-चालाक नहीं होते वो मालिक की रहमत, दया-मेहर को अधिक और जल्दी पैदा कर लेते हैं? और जल्दी लाभ उठा लेते हैं। जो चतुर-चालाक होते हैं वो क्यों, किन्तु, परन्तु, इसको ये मिला, उसको वो मिला, मेरे को क्यों नहीं मिला? बस! उनकी यही रील चलती रहती है। यही उनके अन्दर चढ़ा रहता है।

ये चतुर-चालाकी जितनी करेगा उतना ही इन्सान मालिक की दया-मेहर, रहमत से दूर होगा। मालिक की दरगाह में अक्ल का दखल जितना अधिक दोगे उतना ही परेशानी का सबब (कारण) बन जाता है। यह नहीं कहते कि पागल बन जाओ, पर ‘पा-गल्ल’ बन जाओ। ‘मालिक की रमज को पाने वाले बन जाओ। चतुर-चालाकी से मतलब कि आप दुनियावी विषय-विकारों में, दुनियावी झूठ में वही सारा काम मालिक के सामने मत चलाया करो।

जबकि याद में बैठे तो भक्ति करते हो कि मालिक मैं कोई बुरा काम नहीं करूंगा, अन्दर किसी कोने में होता है, मैं कौन सा पता चलने दे रहा हूं। आजकल के लोग कमाल के एक्टर हैं। उनके एक्शन, उनका दिखावा, उनकी बोली क्या कहना! पर उनके अन्दर सब गड़बड़ होती है। बाहर से बेचारे यूं लगते हैं कि कितना भोला है, कितना भक्त है।

जो इतना छल-कपट होता है। ऐसा देखने में कई बार झलक पड़ जाती है। तो ये चतुर-चालाकी उस परमात्मा की याद में जब बैठो तब तो छोड़ दिया करो। पर नहीं, कहता न, चतुर-चालाकी से ही मालिक को लूटूंगा। कितना समझदार है ये इन्सान। अपने आप को कितना चालाक समझता है। ये इस छोटे से दिमाग से उस अल्लाह, राम, वाहेगुरु को लूटना चाहता है चतुर-चालाकी से, जिसने इस जैसे अरबों दिमाग बनाए हैं।

इह इतना भोला खसम नहीं,
जो मकर चलित्र ना समझे।
इहदे घर विच ओही वस सकदी
जो सब चतराईयां भुल्ल जाए।।

खसम उस अल्लाह, राम को कहा है, कि वो इतना भोला नहीं है। वो मालिक तो कण-कण की, पल-पल, जर्रे-जर्रे की खबर रखता है। वो वाहेगुरु, राम, अल्लाह इतना भोला नहीं है। ‘इहदे घर विच ओही वस सकदी’ यानि उस वाहेगुरु, राम, परमात्मा की दया-मेहर, उसके दर्शन-दीदार वही कर सकता है जो सब चतुराइयां भूल जाए।

चालाकी, ठग्गी, बेईमानी, मालिक के सामने दो रुपये चढ़ाए और बाद में लाखों की ठग्गी में लग गया, कल को दो और चढ़ाऊंगा। ऐसी चालाकी वाला मालिक की दया-मेहर को कभी हासिल नहीं कर सकता। अरे! अन्दर बाहर से एक बनो। ये नहीं सामने तो हां जी, राम-राम और बाहर निकलो वो अपना काम है, ऐसा करने वाला तो फिर उलझा ही रहता है।

जाने सब कुछ मन है,
फिर भी बुरे काम है करता।

कइयों को पता होता है सत्संग सुनते रहते हैं, ज्ञान भी आ जाता है ये काम बुरे हैं, ये गलत हैं, नहीं करने चाहिएं। सब कुछ जानते हुए भी बुरे कर्म करने से बाज नहीं आते। कहते, अब नहीं रहा जाता। बाद में मालिक से क्षमा मांग लेंगे, दया मांग लेंगे। कपड़ा फटता जाता है तो उसमें पैबन्द लगते चले जाते हैं। हर पैबन्द को हाथ लगाओ तो हाथ में रड़क पैदा हो जाती है। यहां भी फटा है, पैबन्द लगा है वो चुभने लगता है। वैसे ही जितनी कोई गलती करता चला जाता है, पैबन्द लगते चले जाते हैं उतना ही मालिक की दया-मेहर से या दर्शन-दीदार से वो दूर होता चला जाता है। इसलिए गलती मत करो।

इस बारे में लिखा है:-

कबीर मनु जानै सभ बात
जानत ही अउगनु करै।।
काहे की कुसलात, हाथि दीपु कुएं परै।।

कबीर जी कहते हैं कि मन सब कुछ जानता है, परन्तु जानता-बूझता कसूर अथवा पाप करता है। जब हाथ में दीपक पकड़ कर कुएं में गिरता है तो इसको किस तरह सुख हो सकता है।

भोले लोग बेचारे तो रह जाते,
यदि चतर ही उसको भरमा लेते।
वो तो प्रेम के साथ है वश आता,
वहां काम ना अक्ल चतुराई का है।
जीते मर कर पहले दिखाना पड़ता,
तो फिर दर्श प्यारे का मिलता है।

भाई वहां इन चीजों ढोंग, पाखण्ड, दिखावे की कोई जरूरत नहीं है। उसके लिए तो जीते-जी मरना, अपने खुदी-अहंकार को मारना, अपने अन्दर की बुराइयों को छोड़ना, राम-नाम के सहारे ही है। अगर ऐसा कर पाओ तो जीते-जी उसके दर्शन-दीदार आप कर सकते हैं, उसकी दया-मेहर के काबिल बन सकते हैं।
थोड़ा शब्द और है:-

5. भय का गहरा सागर,
माया की है घुम्मनघेरी।
डगमग डोले खाए
बेड़ी जिन्दगी की है तेरी।
मन सागर में बेड़ी रोड़ दे
न तेरी रोड़ दे। बुरी आदतें…।
6. मात पिता भाई सुत नारी
सब झूठे हैं नाते।
भीड़ पड़े कोई काम न आए,
साथ न कोई जाते।
शमशानों में जाकर छोड़ दे
अकेला तुझे छोड़ दे। बुरी आदतें…।
7. सत्संग में तू आके भाई,
नाम की युक्ति पा ले।
जन्म-मरण का चक्कर मुका ले
मुक्ति पद को पा ले।
नाम मिले न बजारों चाहे
लाख ते करोड़ दे, करोड़ दे।
बुरी आदतें…।
8. जब तक बन्दा छोड़े नाही,
बुरे जीवों का संग।
मन मैले पर चढ़ता नाहीं,
नाम का पूरा रंग।
कहें, ‘शाह सतनाम जी’ कुसंग, छोड़ दे
ओ बांवरे छोड़ दे। बुरी आदतें…।

भजन के आखिरी में आया है:-

भय का गहरा सागर, माया की है घुम्मनघेरी।
डगमग डोले खाए, बेड़ी जिन्दगी की है तेरी।
मन सागर में बेड़ी रोड़ दे, न तेरी रोड़ दे।

ये संसार सागर भय का सागर है। यहां पर जीवन पूरा करने के लिए इन्सान को बहुत से पहलुओं में से गुजरना पड़ता है। कभी सुख, कभी दु:ख, कभी शान्ति, कभी टैंशन, कभी परेशानी। तो इन गम-चिन्ता, परेशानियों में जिन्दगी रूपी नैया डोले खाने लगती है, डगमगाने लगती है। साथ में माया का जोर है। आज जिसे देखो माया की तरफ दौड़ता नजर आ रहा है। संत, फकीर माया के खिलाफ नहीं हैं कि माया न कमाओ। कमाओ पर किसी का खून चूस कर मत कमाओ। मेहनत की, हक-हलाल की जितनी मर्जी कमाओ कोई रोकता नहीं, पर दूसरी बात कमाने के लिए जीना ये मालिक की तरफ से इन्सानी फितरत नहीं है।

जीने के लिए कमाना ये जरूरी है पर ये सन्तोष तभी आएगा अगर राम का नाम जपा जाए। सन्तोष तो इन्सान को आता ही नहीं। इन्सान जितना भी करता है, कमाता है, बनाता है अपनी औलाद के लिए, अपने शरीर के लिए बनाता है। एक दिन औलाद छोड़ जाएगी, शरीर को जला-दफना दिया जाएगा। परमार्थ में जो भी कोई चलता है कोई सेवादार, भक्त, साधु, फकीर है वो कमाई अपनी औलाद के लिए नहीं करता, वो कमाई परमार्थ के लिए करता है यानि दूसरों का भला करने में समय लगाता है।

उसकी यह सेवा दरगाह में जरूर मंजूर-कबूल होती है और मालिक की दया-दृष्टि उस पर जरूर बरसती है। भाई संसार में रहते हुए मेहनत की रोजी-रोटी खाओ, राम-नाम के गुण गाओ तो मालिक की खुशियां आप हासिल कर सकते हैं। मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल बन सकते हैं।

इस बारे में लिखा बताया है :-

केवल नाम ही एक रास्ता है जो कि हमें अपने निज मुकाम में पहुंचा सकता है। ये एक ऐसा जहाज है, जोकि भवसागर से पार जीव को मालिक की गोद में पहुंचाने का जरिया है। मालिक के नाम से ही जिन्दगी को किनारा मिलता है, सुख मिलता है, शान्ति, आनन्द मिलता है।

भाई! मन के धक्के चढ़ गया तो ये मन ऐसा गुमराह करेगा, भरमाएगा कि मालिक की तरफ ध्यान नहीं आने देगा और यहीं पर तेरी बेड़ी खत्म याानि जिन्दगी खत्म होगी और आत्मा को आवागमन में जाना पड़ेगा। तेरी जिन्दगी का वो गोल जो पाना चाहिए उससे तू वंचित रह जाएगा। इसलिए जरूरी है कि आप सुमिरन करें, जिससे मन-माया के बंधन ढीले पड़ सकें।
मात पिता भाई सुत नारी सब झूठे हैं नाते।

भीड़ पड़े कोई काम न आए,
साथ न कोई जाते।
शमशानों में जाकर छोड़ दे
अकेला तुझे छोड़ दे।

संत-फकीर अपनी वाणी में हमेशा से लिखते हैं कि अगर इन्सान मालिक को सच मान कर चले, उस सच के अनुसार चले तो माता-पिता, बेटा-बेटी, पत्नी-पति आदि जितने भी रिश्ते-नाते हैं गर्ज होती है। मां को प्यार करता है, मां सीने से लगाती है, ममता का उसे आनन्द मिलता है।

बच्चा बड़ा होता है माता-पिता का प्यार कम होता है। पर मां-बाप को ये जरूर होता है कि बड़ा होकर बेटा हमारी सेवा करेगा, बड़ा होकर हमारे लिए ये बनाएगा, वो बनाएगा यानि बात गर्ज की, स्वार्थ की है। स्वार्थ के बिना अगर कोई रिश्ता है तो शायद मालिक के प्यारों का, भक्तों का है। अन्यथा संसार में जितने रिश्ते-नाते हैं, सब गर्जी, स्वार्थी हैं। किसी को अपनी वाह-वाह करवाने का स्वार्थ, किसी न किसी स्वार्थ से इन्सान फंसा हुआ है, बंधा हुआ है, तभी ये रिश्ते-नाते कायम हैं। और वो बंधन, वो विचार आपस में मिलने बंद हो जाएं तो ये रिश्ते-नाते पल में टूट सकते हैं।

इस बारे में लिखा है :-

का की मात पिता कहु का को
कवन पुरख की जोई।।
घट फूटे कोऊ बात न पूछे काढहु काढहु होई।।
देहुरी बैठी माता रोवे खटीआ ले गए भाई।।
लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंस अकेला जाई।।

कबीर साहिब जी कहते हैं कि कौन किसी की माता, कौन किसी का पिता है और कौन किसी का भ्राता है और कौन किसी की औरत है। जब शरीर रूपी मटका टूट जाएगा अथवा नाश हो जाएगा तो निकालो-निकालो होगा। ड्योढ़ी में बैठकर माता रोएगी। खाट भाई उठा कर ले जाएंगे। बाल छोड़कर औरत रोएगी और जीव रूपी हंस अकेला ही जाएगा।

परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज फरमाते हैं:-

अरे नर ! तेरा इस जहान में,
कोई ना साथी बेली है।
तेरे साथ किसी नहीं जाना,
जानी जिंद अकेली है।
माता रोती रह जानी है…
चुक लै जाना भाइयां ने,
मार दोहथ्थड़ रोवे बहुरी,
झूठी हाल दुहाइयां ने।
तेरे किए अमलां बन्दे,
साथ ही तेरे जाना है।
कहें ‘शाह सतनाम जी’ प्रभु बिना सारा,
झूठा ताना बाना है।

भाई! यही होता है जब कोई मर जाता है, जिसके माता-पिता जिंदा हैं वो रोते हैं, औरत बाल खुले छोड़ कर रोती है। औरत की कंगन, चूड़ी इत्यादि फोड़ दी जाती है, दु:ख मनाया जाता है, लेकिन सब रिश्ते वहीं छूटते चले जाते हैं। कोई घर की देहरी से आगे नहीं जाता। शमशान भूमि तक चले जाते हैं, चिता में रख दिया जाता है।

तब बार-बार चेहरा देखने को कहते हैं। जब चेहरा देखने का वक्त था तब शायद देखा ही न हो। आखिरी समय नहीं देखा। जीते-जी चाहे गालियां देता रहा हो, ये भी देखा है। बड़ा पश्चाताप करते हैं। आखिर में बेटे चिता पर रख कर आग लगा देते हैं। बस! यहीं तक रिश्ते-नाते सारी कहानी खत्म हो जाती है। तूने जो पार्ट करना था वो अदा हो गया। तेरी अब इस जहान में कोई जरूरत नहीं है। पांचों तत्व अलग-अलग तत्वों में मिल जाएंगे।

जो बचेगा अगर कहीं दूर ले गए तो उसका भी टैक्स लगेगा, क्योंकि हड्डियों का भी टैक्स ले लेते हैं। उसको भी मुफ्त डुबोने नहीं देते। कई जगहों पर तो ऐसा भी है कि इसको अगर डुबोना चाहते हो तो इतना पैसा देना पड़ेगा, इतने रुपये देने पड़ेंगे। मालिक के प्यारे वो समझ लेते हैं कि माटी है इसमें अब कुछ नहीं रह गया।

आत्मा तो मालिक के पास गई। कहने का मतलब साथ कुछ जाने वाला नहीं है। आत्मा को अकेला जाना होगा। उस समय आत्मा का साथ देने वाला परमात्मा, ओ३म, वाहेगुरु, हरि, अल्लाह, राम ही है। मालिक की भक्ति की हो, उसकी याद में समय लगाया हो तो आत्मा का साथ मालिक देते हैं और अपने निज-मुकाम पहुंचा कर ही छोड़ते हैं। भाई ! जब भीड़ पड़ती है तो रिश्ता-नाता कोई नजर नहीं आता।

‘भीड़ पड़े कोई काम ना आए,
साथ ना कोई जाता है।’

जब भीड़ पड़ती है, परेशानी आती है अपने भी मुंह फेर लेते हैं। तू जाने तेरा काम जाने, हम क्या करें? तब पता चलता है कौन अपना है कौन पराया है।

आगे आया है:-

सत्संग में तू आके भाई, नाम की युक्ति पा ले।
जन्म-मरण का चक्कर मुका ले
मुक्ति पद को पा ले।
नाम मिले न बजारों चाहे
लाख ते करोड़ दे, करोड़ दे।

नाम मालिक को याद करने का ढंग, वो तरीका, युक्ति, जो सत्संग में आकर मिलती है। सत्संग सुने, अमल करे तो वो नाम मिलेगा जिससे इन्सान सब परेशानियों से आजाद हो सकता है। जिसके लिए न पैसा देना, न चढ़ावा देना, न धर्म छोड़ना, न पहनावा बदलना है। एक रिसर्च करने के लिए तरीका है। वो शब्द, मैथर्ड आॅफ मैडिटेशन कहें या गॉड परेयर कहें या गुरमन्त्र, नाम-शब्द, कलमां कहा जाए बात एक ही है।

वो प्रभु के शब्द, मालिक का नाम, वो तरीका, वो युक्ति सत्संग में मिलती है। लाख, करोड़ रुपये देने से भी वो चीज नहीं मिलती है। सत्संग में आए, सुने, ध्यान से अमल करे तो मालिक का नाम मिलता है जो आवागमन और यहां के दु:ख, कलह-कलेश, परेशानियों से आजादी दिलवाता है, दु:ख-दर्द दूर करता है।

इस बारे में लिखा है :-

दुनिया के दु:खों-कलेशों और जन्म-मरण के चक्कर से छूटने का साधन बिना नाम के और कोई नहीं। ये सब साधनों से ऊंचा और स्वच्छ साधन है। इसकी कमाई करने वाले को और सब साधनों के गुण प्राप्त हो जाते हैं। इसकी कमाई से आप मुक्त हो जाओगे और माया के बन्धनों से आजाद हो जाओगे।

मालिक का नाम जपने में कोई शारीरिक परेशानी नहीं आती। शरीर को कोई बेचैनी नहीं आती पर फिर भी नाम न जपे तो इन्सान की स्वयं की कमी है। कोई पैसा नहीं देना, चढ़ावा नहीं देना, फिर भी नाम लेने से इन्सान डरता है। कोई धर्म नहीं बदलना, पहनावा नहीं बदलना, भाषा नहीं बदलनी, कोई ढोंग-पाखण्ड नहीं करना, घर-बार नहीं छोड़ना, बाल-बच्चों में रहते हुए, परिवार में रहते हुए आप मालिक का नाम लेकर देखो।

कोई टैक्स नहीं देना, पर फिर भी मालिक के नाम से कई लोग बड़ा डरते हैं, मालिक के नाम से दूर भागते रहते हैं। भाई ! मालिक का नाम तो अनमोल है। बिना दाम के फकीर बताते हैं। अमल करो तो बेड़ा पार हो जाता है।
यानि खुशियां मिलती हैं और आवागमन से मोक्ष-मुक्ति मिलती है।

भजन के आखिर में आया है :–

जब तक बन्दा छोड़े नाही,
बुरे जीवों का संग।
मन मैले पर चढ़ता नाहीं,
नाम का पूरा रंग।
कहें, ‘शाह सतनाम जी’ कुसंग, छोड़ दे
ओ बांवरे छोड़ दे।

जब तक इन्सान बुरे लोगों का संग नहीं छोड़ता, जब तक इन्सान, चुगली-निंदा, बुरी सोहबत से परे नहीं रहता तब तक राम-नाम का असर पूरा नहीं होता। जैसे खारा कुआं होता है, उसमें लाखों मन चीनी डाल दें वो मीठा नहीं होगा। जैसे कौआ है उसके सफेद रंग कर दो लाल चोंच बना दो, जो मर्जी कर दो पर वो हंस नहीं बनेगा।

वो जाकर कूड़ा-कर्कट में ही चोंच मारेगा। उसी तरह से इन्सान अगर बुराई का संग करेगा तो वो बुराई बदलेगी नहीं, बल्कि इन्सान के विचार बदल जाते हैं। जो मालिक को नहीं मानता, परमात्मा की याद में नहीं बैठता, बुरी बात करनी, हर समय माया, व्यापार, राम का तो नाम लेना ही फिजूल समझते हैं, ऐसों की सोहबत करनी। फिर इन्सान को बड़ा मुश्किल हो जाता है और दु:ख-परेशानियां उठानी पड़ती हैं।

राम-नाम की गांठ उसके सामने भी खोलो तो वह ले नहीं सकता, पर जो प़ारखू होते हैं वो मोल भी ले लेते हैं। भाई ! जैसे कोई सपेरा बीन बजाने वाला है, बीन बढ़िया बजाता है, सांप नाचता है बड़ा उछलेगा, कूदेगा। पर वही बीन भैंस के आगे बजाने लग जाए कि मैं भैंस नचा कर छोडूंगा। खूब बीन बजाई, खूब जोर लगाया। भैंस अपना खाना खा रही थी। कुछ देर सुनती रही। जब वो नहीं हटा तो वह जोर से रंभी यानि खूब बड़ी आवाज निकाली तब ये कहावत बनी:-

भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस बैठी पगुराए।

भैंस के आगे बीन बजाई कि वह नाचेगी पर वो जुगाली करती रही और अंत में उसने बड़ी आवाज निकाली। कहने का मतलब कि अगर ऐसे लोगों के पास जो मालिक की बात को मानते नहीं हमेशा बुराई करते रहते हैं, ओ३म, हरि, अल्लाह, राम की निंदा ही करते रहते हैं अगर उनके पास जा कर बैठते रहोगे तो यकीन कीजिए आप पर उनका रंग चढ़ जाएगा।

इसलिए बेपरवाह सच्चे मुर्शिदे कामिल शाह सतनाम जी महाराज फरमाते हैं :-

जब तक बन्दा छोड़े नाहीं बुरे जीवों का संग।
मन मैले पर चढ़ता नाहीं, नाम का पूरा रंग।

राम का रंग तो चढ़ जाएगा पर पूरा असर नहीं होगा, क्योंकि वो बुराई की बातें, बुरी कही हुई बातें आपका मन आपको दोहराता रहेगा, आपके सामने लाता रहेगा, कुछ न कुछ होगा, ऐसा होगा, वैसा होगा, ये नहीं तो वो होगा। जैसे सुमिरन करने लगोगे तो वो बुरे विचार, बुरी बातें आपके सुमिरन में रुकावट पैदा करेंगी। इसलिए बुराई का संग छोड़ दीजिए।

इस बारे में लिखा है :-

नीच ख्यालों को पाक-साफ करने के लिए सत्संग से बढ़कर सारी दुनिया में कोई मशीन नहीं है। नेक सोहबत में इन्सान नेक हो जाता है और सब ऐब पाप धुल जाते हैं।

बेपरवाह जी ने भजन के आखिर में कहा कि हे भाई ! कुसंग छोड़ दे, बुरे विचार छोड़ दे, बुरी सोहबत छोड़ दे तो मालिक का रंग पूरा तेरे पर जरूर चढ़ेगा। उसकी दया-मेहर, रहमत के लायक तू बन पाएगा। अगर तू बुरे विचारों में हां में हां मिलाता है, चुप रहता है तो तेरा मन तुझे बैठने नहीं देगा।

इसलिए भाई ! बुराई का संग त्यागो, भलाई-नेकी का संग करो जो आपके जीवन को महका डालेगा । सत्संग करो, राम का नाम जपो तो दोनों जहान में आपको सच्चा सुख मिलेगा, आनन्द, खुशी, लज्जत से आप माला-माल हो जाएंगे। अमल करोगे तो मालिक की रहमत आप पर जरूर होगी।

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