मालिक की साजी नवाजी प्यारी साध-संगत जीओ! सबसे पहले जैसा कि आप जानते हैं यह महीना (नवम्बर) जो है सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह मस्ताना जी महाराज के जन्म महीने के रूप में मनाते हैं। जन्म महीने का वो पाक-पवित्र दिन जिस दिन बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने इस धरती पर चरण टिकाए, वो दिन कार्तिक पूर्णमाशी का है। आज के इस पाक पवित्र जन्मदिन की खुशियां झरनों की तरह सत्संगियों से फूट रही हैं। हों भी क्यों न, जिन्होंने इस सच्चे सौदे की नींव रखी, सच्चा सौदा बनाया, उन्हीं का आज जन्म दिवस है। एक मुरीद, एक शिष्य, एक सिक्ख के लिए इससे बड़ा दिन और कोई हो नहीं सकता।

इसलिए जो भी साध-संगत यहां पधारी है, आ रही है, रास्तों में भी आ रही है, आप सभी को बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के जन्मदिन की लाख-लाख बधाइयां देते हैं, मुबारकबाद कहते हैं। वो बीज जो सच्चा सौदा रूहानियत के रूप में बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने लगाया वो आज गुलशन बन गया है। रंग-बिरंगी फुलवाड़ी चारों तरफ नजर आ रही है। सच्चे मुर्शिदे-कामिल बेपरवाह मस्ताना जी महाराज, परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपार दया-मेहर का नमूना है कि लोग बुराइयां छोड़ कर, बुरे कर्म छोड़ कर अपने ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड, खुदा रब्ब से जुड़ रहे हैं और ये समाज उनके जुड़ने से एक स्वर्ग, जन्नत-सा आभास देता है।

सत्संग में आना कोई मामूली बात नहीं है। जहां पर आपको गर्ज है, स्वार्थ है, कोई पैसे का गर्ज, कोई धर्म-मजहब का गर्ज या अपनी मान-बड़ाई का गर्ज, स्वार्थ में लोग बिना बुलाए चले जाते हैं। सत्संग में चल कर आना बड़ा ही मुश्किल है। जहां पर केवल राम-नाम की कथा-कहानी चलती हो, अल्लाह, मालिक, वाहेगुरु की चर्चा हो तो ऐसे में जो चल कर आते हैं एक तो खुदमुखत्यारी की वजह से मालिक ने उनको दिमाग दिया है, अक्ल दी है और दूसरा सभी धर्माें में लिखा है, सत्संग में चलकर आना उस वाहेगुरु, राम की दया-मेहर के बिना सम्भव नहीं है।

आप पर मालिक की दया-मेहर हुई, सत्संग में आए हैं, बहुत सौभाग्यशाली हैं, आपके बहुत ही बड़े भाग्य हैं। आप सभी का यहां पधारने का तहेदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैल्कम।
जैसा आप को बताया, आज का दिन सच्चे सौदे के लिए बहुत ही पाक-पवित्र दिन है। सच्चे सौदे की जिन्होंने नींव रखी, उनका जन्मदिन है। उसी के अनुसार आज का भजन है, जिस पर आज का सत्संग होगा। भजन है:-

संत जगत विच औंदे,
है रूहां दी पुकार सुन के जी।।

सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज ने हमें समझाया और बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के बारे में बताया कि उन्होंने ये शिक्षा चलाई। तो भाई! ये है सच्चा सौदा जो किसी धर्म-जात, मजहब में दखलांदाजी नहीं देता। जो कर्म करने पर यकीन रखता है, किसी से मांगता नहीं। यहां जितने साधु, सेवादार रहते हैं करके खाते हैं। खुद भी खाओ और आए हुए को भी खिलाओ, ये असूल है। किसी से मांगना जहर की तरह है क्योंकि दूसरों से मांगने की जब आदत पड़ जाती है इंसान हराम की खाने का आदी हो जाता है। कर्म करना भूल जाता है। कर्म नहीं करोगे, तो जो खाओगे उसमें खुशी नहीं आएगी।

तो भाई! ये सच्चा सौदा बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने चलाया, बनाया, लोगों को बड़े ही सादगी पूर्ण तरीके से समझाया। बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के कुछ-एक वचन आपको बताते हैं ताकि कोई भ्रम जो आपके अन्दर है, वो दूर हो जाए।
बेपरवाह मस्ताना जी महाराज बिलोचिस्तान में शुरू से ही अल्लाह, वाहेगुरु, राम के आशिक थे। या यूं कहें कि वो बने ही मालिक के लिए थे, मालिक स्वरूप थे। शुरू से ही उनके अन्दर ये भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। बहुत सालों के बाद मां-बाप के घर पैदा हुए थे। एक बार का जिक्र है, बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के माता जी ने उनको पैसे दिए कि जाओ और बाजार से जाकर सामान ले आओ। बेपरवाह मस्ताना जी महाराज गए। वहां देखा कुछ लाचार लोग भूखे बैठे हैं। उन्होंने मांगा कि बच्चा, हमें खाना खिला। बेपरवाह मस्ताना जी माहराज ने सोचा, इससे अच्छा काम और क्या हो सकता है। उनको खाना खिला दिया। ये छोटे से बच्चे की सोच थी। बड़े की सोच तो अलग बात है, एक छोटा बच्चा क्या ऐसा सोच सकता है, सोचने वाली बात।

उन्होंने उन्हें खाना खिलाया लेकिन ख्याल ये भी आया कि अब माता जी ने जो पैसे दिए थे, अगर सामान लेकर न गए तो क्या होगा? फिर क्या किया, पास में कोई बाग था, माली थे, वहां पर सारा दिन मेहनत की, टोकरी वगैरह उठाते रहे या जैसा उन्होंने कहा काम किया। वहां से पैसा लिया और पूजनीय माता जी ने जो सामान मंगवाया था वो लेकर दे दिया छोटी-सी बात लगती है! लेकिन एक पांच-छ: साल के बच्चे के लिए बहुत बड़ी बात है। उनके अन्दर ऐसी भावना आना यही दर्शाता है कि संत, पीर-फकीर बनते नहीं, बने-बनाए मालिक की तरफ से आते हैं।
बेपरवाह मस्ताना जी के बारे में जब वचन किए, वो खूब मस्ती में आकर अपने मुर्शिदे-कामिल के सामने नाचा करते थे। कई लोगों ने टोका। सिक्ख गुरु साहिबानों की पाक-पवित्र गुरवाणी में आता है:-

‘नाच रे मन नाच गुर के आगे नाच।’ बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने वो वाणी निकाल के दिखा दी कि ये देखो, जब ये वाणी कह रही है तो आप कैसे रोक सकते हैं! इस तरह सावण शाह साईं जी के सामने नाचते रहे, खूब नाचते। वहां नारा लगाते ‘धन-धन सावण शाह सार्इं निरंकार तेरा ही आसरा।’ वहां के लोग बड़े गुस्से में आए कि ये इसने तो अपना अलग ही मत चला लिया है! अलग ही कुछ बोलता है! सावण शाह महाराज के सामने पेशी पड़ी कि जी! ऐसा बोलते हैं। बेपरवाह मस्ताना जी को बुलाया। सावण शाह जी महाराज फरमाने लगे, क्यों भाई, तू ऐसा बोलता है? मस्ताना जी कहने लगे, हां सार्इं जी। कहने लगे फिर तू ऐसा क्यों बोलता है! जब सारे दूसरा नारा बोलते हैं तू भी वैसा बोला कर! कहने लगे, मुझे इनका नहीं पता, मैं तो जो देखता हूं वो ही बोलता हूं। मुझे तो आप में ही अल्लाह, वाहेगुरु, राम नजर आता है। आप ही हैं जिन्होंने वो रास्ता दिखाया है। मुझे तो आपका ही आसरा है। मैं तो आपका ही यश गाऊंगा। बताइए, क्या अंदर-बाहर एक नहीं! सावण शाह जी कहने लगे, भाई! तू सही है। जिसकी ये आंख बन जाए उसी को पता चलता है, दूसरों के लिए बात कुछ और रहती है।

फिर बेपरवाह मस्ताना जी को हुक्म हुआ कि आप बागड़ में जाइए, वहां के लोगों को तारें। बेपरवाह मस्ताना जी ने हाथ जोड़ कर विनती की कि सार्इं जी! ये शरीर जो है इतना पढ़ा लिखा नहीं है और बोली भी अलग है क्योंकि वो शायद सिंधी बोला करते कुछ मिलती-जुलती भाषा। मस्ताना जी कहने लगे कि ये समझ नहीं आएगी। लोगों को कैसे पहचान आएगी? तो सावण शाह जी महाराज ने कहा, मस्ताना! तेरी आवाज में जादू होगा। तू बोला करेगा लोग तेरी आवाज से खिंचते चले आया करेंगे। मालिक से जुड़ जाया करेंगे। तेरी आवाज में एक ऐसा जादू मालिक की आवाज की तरह अलग ही होगा। ये सच्चाई है। पुराने सत्संगी जो बैठे हैं उनसे पूछो, समझ कम आती थी पर आवाज बहुत प्यारी लगती थी।

बगड़ में एक बार, वहां बागड़ी भाषा बोलते हैं, बेपरवाह मस्ताना जी ने सत्संग किया, तो लोगों ने नाम भी लिया। मस्ताना जी ने पूछा, क्यों भाई! आपको हमारी बोली की समझ आती है? आगे से वहां के जो सेवादार थे या जो श्रद्धावान थे, वो हाथ जोड़ कर कहने लगे, ‘सार्इं जी! थारी बोली को तो पता कोणी लागै पर थेह बोलो घणा ही मिट्ठा हो। थारी आ मिट्ठी बोली हूं मेह खिंचा चला आवां।’ कहने का मतलब कि आपकी आवाज बहुत मीठी है और कुछ नहीं कह सकते। आपकी मीठी आवाज ही हमें मोहित कर लेती है। बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने और भी वचन किए, करवाए कि सच्चे सौदे का मुरीद एक तो छोटे-छोटे स्टेशनों में न अटके। ये त्रिकुटी आ गया, ये भंवर गुफा आ गया, ये फलां आ गया। इसमें अटकते-अटकते हमारे वाला तो आगे जा ही नहीं पाएगा। सावण शाह जी कहने लगे, फिर आपको क्या चाहिए? कहने लगे, देना तो आपने है और मांगना हमने है और किससे मांगेंगे, आप से ही सब कुछ मांगेंगे। अगर आप हमें हुक्म देते हो कि नाम दो, तो जिसको नाम दें, आपकी दया-मेहर से उसका एक पैर यहां दूसरा सचखण्ड में हो।

ये बीच वाले स्टेशनों पे गाड़ी न रुके। सावण शाह जी महाराज ने कहा, मस्ताना! तेरे को ये भी दिया। फिर बेपरवाह मस्ताना जी कहने लगे, सच्चे सौदे का मुरीद, भक्त अगर सच्चे दिल से भक्ति करता है, वचनों पर सही है तो उसको अन्दर से और बाहर से किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़े। सावण शाह जी कहने लगे, जा मस्ताना! तेरे को ये भी दिया। हमने अपनी आंखों से देखा है, जो वचनों को मानते हैं, वचनों पर अमल करते हैं, भक्ति करते हैं वो राई से पर्वत बन गए। अन्दर-बाहर से उनको किसी के आगे हाथ फैलाना नहीं पड़ा। इस तरह से बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने सच्चे सौदे के लिए बेअन्त बख्शिशें हासिल की और जब परम पिता शाह सतनाम जी महाराज को गद्दी पर बैठाया, वो फोटो भी है, सारे बाजार में जलूस निकाला कि भाई! ये ताकत काम करेगी। शाह सतनाम जी महाराज को आत्मा से परमात्मा बना दिया है।

फिर ये भी वचन किए कि हमने तो जो ताकत मिली थी, उस रुपये में से एक दो आने ही खर्च की है, आने वाले समय में देखना जब ये रहमत काम करेगी तो यहां से लेकर या ये कह लें कि बेगू से लेकर, जो वचन हुए कि सरसा तक जो संगत आएगी, यूं थाली फैंकोगे तो नीचे नहीं गिरेगी, सिरों के ऊपर रह जाएगी। आज नजर मारें, ये शायद पच्चीस-तीस एकड़ के करीब पण्डाल है और साध-संगत से लगभग भरा हुआ है। पीछे अभी भी साध-संगत आ रही है और कुछ बाहर रह जाती है। भण्डारे के समय तो इस जितने पण्डाल कई बन जाते हैं यानि कई लाखों की तादाद में, अलग-अलग गिनती है! अपने कोई मान-बड़ाई नहीं है, बेपरवाह मस्ताना जी के वचन हैं। भण्डारे के समय कोई तीस लाख, कोई पचास, लाख, कोई साठ लाख कहता है। ये तो अल्लाह, मालिक जाने कितनी होती है, क्या होता है पर उनके जो वचन उस समय कई लोगों ने सुने शायद मजाक उड़ाया हो कि सार्इं जी सौ आदमी साथ हैं इतने कहां नजर आते हैं!

किसी ने ये जिक्र किया, बहुत सादा-लिबास पहनते हो। कई लोगों को ये भ्रम हो जाता है, जब बेपरवाह मस्ताना जी पहनते थे तो अपने कपड़े पर टाकियां लगा लेते थे। साधुओं के भी कपड़े ऐसे ही होते। कोई एक घुटने तक है, दूसरा नीचे पांव तक होता। किसी ने सवाल उठा दिया कि सार्इं जी! आप मालिक के प्यारे हैं, अच्छे कपड़े पहना करो, बढ़िया पहना करो, ये आप बिल्कुल सादे से पहनते हैं। बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने फरमाया, कोई समय आएगा आप देखना(उस समय टैरालीन मशहूर होती थी) कि साधु अपनी बॉडी में टैरालीन ही पहना करेंगे और बदल-बदल कर पहना करेंगे। अगर यकीन नहीं आता तो पुरानी साध-संगत जो है उनसे पूछिएगा, बेपरवाह मस्ताना जी के वचन हैं और आज ज्यों के त्यों पूरे हैं। आज साधुओं को देखेंगे आप किसी के ऊपर पैबंद (टाकी) लगी हुई नहीं है, सादे कपड़े हैं।

माना कि सादे हैं लेकिन वो ही मस्ताना जी के पाक-पवित्र वचन कि वो टैरालीन पहना करेंगे तो वो ज्यों के त्यों पूरे हो गए हैं। किसी को ये भ्रम रह जाता है, किसी ने आकर हमसे कहा था कि मस्ताना जी महाराज तो इतने फटे कपड़े पहनते थे। आपने तो सफेद पहन रखे हैं! हमने कहा, तुझे क्या बताएं, ये उन्होंने ही कहा है तभी पहन रखे हैं। तो भाई! सच्चाई यही है जो आपकी सेवा में अर्ज की। बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने और बहुत से वचन किए थे जो पूरे हो रहे हैं और पूरे होते रहेंगे। परम पिता शाह सतनाम जी ने वचन किए, बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने किए ज्यों के त्यों पूरे हुए हैं, पूरे हो रहे हैं और हमेशा पूरे होते रहेंगे। उनकी दया-मेहर, रहमत ने काम किया है, कर रही है और करती रहेगी।

परेशानी से बचने के लिए अल्लाह, वाहेगुरु, राम का नाम जपें और हर किसी से प्यार, मुहब्बत करें। अपने अन्दर खुदी का फाना, अपने आपकी हस्ती बनाने का मत सोचो, वरन् इन्सान मुंह के बल गिरता है, कुछ बचता नहीं। तो भाई! बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के बारे में जितना आपको सुनाएं उतना ही कम है।

एक बार कुछ साध-संगत बैठी हुई थी, बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने बकरियों के गले में नोट बांध दिए और चर्चा ये चल रही थी कौन बड़ा आशिक है मालिक का! कौन मालिक से प्यार करता है! उस चर्चा के बाद मस्ताना जी महाराज ने कुछ और बातें की, फिर खेल रच दिया, बकरी के गले में नोटों की माला बांध दी और उसे भगा दिया। बकरियां भाग गर्इं। साध-संगत को कहा, देखो भाई! कितने नोट जा रहे हैं? बस इतना कहने की देर थी बहुत सारे तो नोट छीनने के लिए भाग लिए।

तब नोटों की कीमत काफी होती थी। वो तोड़ने के लिए दौड़ पड़े। कुछ प्रेमी बेपरवाह जी के पास बचे। मस्ताना जी महाराज कहने लगे, देखो भाई! सब माया के यार हैं! मस्ताना, उस अल्लाह, वाहेगुरु, राम का यार तो कोई-कोई बचा है। जो पहले कहते थे हम आशिक हैं, तेरे लिए जान कुर्बान है, नोटों के लिए लार यूं टपक गई पता ही नहीं चला कब खिसक गए।  तो भाई! बड़े चोज खेले। उस समय वो जरूरत थी, आज ये जरूरत है जो आपकी सेवा में है। करने वाली ज्योति वो ही है, हम तो आपके सेवादार, चौंकीदार हैं। आवाज देते हैं। हम कोई अपना रुतबा बड़ा नहीं करते। आवाज देते हैं। आवाज वो देते हैं जैसा मुर्शिदे-कामिल खयाल देता है। ‘‘जैसी मै आवै खसम की वाणी तैसड़ा करी गिआनु वे लालो।’’ जैसा मुर्शिदे-कामिल का ख्याल आता है, विचार आता है आपकी सेवा में अर्ज करते हैं, वरन् हम तो आपके सेवादार हैं। कोई अपनी मान-बड़ाई के लिए नहीं कहते, कोई अपनी उपमा के लिए नहीं कहते।

अपने तो बस उस अल्लाह, वाहेगुरु, राम की चर्चा करते हैं और आपको सच्चा मार्ग बताना चाहते हैं। आपने झूठ में शायद जिन्दगी पता नहीं कितनी गुजारी होगी। आज आपकी सेवा में वो सच अर्ज करेंगे। क्या सच है! क्या वाहेगुरु है, है तो उसे कैसे देखा जा सकता है? वो किधर रहता है? कुछ एक बातें हैं जो पढेÞ-लिखे नौजवान बच्चे पूछते हैं। मालिक की दया-मेहर से 12-13 राज्यों में गए। मैडीकल कॉलेज के कई जगह बच्चे थे। वहां पर एक जगह कॉलेजों में भी सत्संग हुआ, विज्ञान के विद्यार्थियों ने सवाल उठाए कि भगवान है तो नजर क्यों नहीं आता? हम नहीं देख सकते मानी बात, पर गुरु जी! वो तो शक्तिशाली है, वो तो हमें दिख सकता है? वो क्यों नहीं दिखता? इसी का जवाब आपको सत्संग में बताएंगे। क्या वो है? है तो नजर क्यों नहीं आता? ये बातें आपको बताएंगे। पहले शब्द चलेगा और साथ-साथ बताते चलेंगे। आप से और कुछ भी नहीं लेना, नोटों आदि का कोई चक्कर नहीं। आपसे आपका यही घण्टा, डेढ़ घण्टा कीमती समय मांगेगे और इसी में आपको सब कुछ सच-सच बताना है। पढ़ी-पढ़ाई बातें तो आप जब मर्जी पढ़ सकते हैं पर जो अनुभव में आया, जो महसूस किया आपकी सेवा में अर्ज करेंगे और जो हमारे महापुरुषों के पाक-पवित्र वचन है सभी धर्माें के, वो आपको साधु पढ़ कर सुनाएंगे। इस बारे में लिखा है।

सन्त जगत विच औंदे,
है रूहां दी पुकार सुन के जी।

जब रूहें मालिक की तलाश में व्याकुल होती हैं और अपने निजघर जाने के लिए बिलकती हैं और हमारी आंखें उसको देखने के लिए तरसती हैं, भूखी होती हैं, उनकी तीव्र इच्छा पूरी करने के लिए सतगुरु अवतार धारण करता है। उनको बंधनों से छÞड़ाने के लिए बन्दी-छोड़, बनकर आ जाता है और ऐसी रूहों को उनके अधिकार के अनुसार उपदेश देकर मालिक से जोड़ देता है।

संत संसार समुद्र के मल्लाह हैं, जो आत्मा को परमात्मा के साथ मिलाने के ठेकेदार हैं। वो पाक पवित्र रूहें हैं और संत-महात्मा रूहों को मालिक की तरफ ले जाने का व्यापार करते हैं।

संत दुनिया में आकर किसी से किसी तरह की कोई गर्ज नहीं रखते। न पैसे का, न शरीरिक स्वार्थ, न जमीन-जायदाद का स्वार्थ, न अपनी वाह-वाह, मान बड़ाई करवाने का स्वार्थ। संतों का काम निरोल एक गाईड, एक टीचर, एक मास्टर, एक उस्ताद की तरह होता है। लोगों को सही रास्ता दिखाना होता है। जीवन जीने का उद्देश्य, मकसद, लक्ष्य क्या है, ये रूहानी पीर-फकीर बताते हैं। आपकी सेवा में उन्हीं की वाणी सुनांएगे। परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने वचनों द्वारा, जो भजनों के द्वारा फरमाया आपने सुना, वो ही भजन साथ-साथ चलेगा, उसी पर सत्संग होगा।

टेक:- सन्त जगत विच औंदे,
है रूहां दी पुकार सुन के जी।

1. भट्ठ दुनिया विच दिन-रात सड़दे,
ईर्खा, क्रोध कर आपो विच लड़दे।
तपदे दिलां ’च ठण्ड वरतौंदे।
है रूहां…

2. विषय-विकारां मत्त है मारी,
बुरे कम्मां विच पूंजी हारी।
हत्थों जन्म गया पछतौंदे।
है रूहा दी…

3. नाम जपन नूं जन्म थ्याया,
खाण सौण कम्मां विच क्यों है गवाया।
कम्म अपने दी सोझी है करौंदे।
है रूहां दी…

4. भवसागर विच रुड़दे जांदे,
विच मंझदार दे गोते खांदे।
बन मांझी आप पार लंघौंदे।
है रूहां दी…

भजन के शुरू में आया है:-
भट्ठ दुनिया विच दिन-रात सड़दे,
ईर्खा, क्रोध कर आपो विच लड़दे।
तपदे दिलां ’च ठण्ड वरतौंदे।

सन्त, पीर-फकीरों ने संसार को जलता-बलता भट्ठ बताया है। यहां पर काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी अग्नि जल रही है और हर जीव इसमें जल रहा है। या ऐसे कहें कि ये रोग हैं। मालिक के प्यारों के सिवाए हर इंसान रोगी है। संसार में कोई ऐसा नजर नहीं आता जो रोगी न हो। कोई शारीरिक तौर पर रोगी है या मानसिक, आर्थिक तौर पर रोगी है। काम-वासना विषय-विकार की बात, क्रोध, लोभ, लालच, मोह और अहंकार और दो मन और माया इन सातों का चक्रव्यूह, शिकंजा हर किसी पर कसा हुआ है। कोई होगा मालिक का प्यारा जो इस शिकंजे से बाहर निकल जाए वरन् इनसे बाहर निकलना बड़ा मुश्किल है। ये रोग हर किसी को लगे हुए हैं। ऐसे-ऐसे सत्संगी, ऐसे-ऐसे मालिक के प्यारे जो आपको नजर आते होंगे पर अपने देखा है उनकी आपस में इतनी ईर्ष्या होती है कि रूहानी पीर-फकीर भी कितनी हिदायत कर दें फिर भी वो अपनी ईर्ष्या को एक स्टैण्ड बना कर रखते हैं।

एक हउमै, खुदी बना कर रखते हैं। ईर्ष्या को नहीं छोड़ते। उससे होता क्या है जिनके अन्दर ईर्ष्या है, गीली लकड़ी की तरह जलते रहते हैं। खुशी तो आती नहीं। गीली लकड़ी होती है उसको आग लगा दो, पंजाबी ’च कहिन्दे हैं धुखदी रहिन्दी है। यानि धीरे-धीरे सुलगती रहती है। आग पूर्णत: नहीं। आग लग जाए, कोयला बन जाएगा, कोयले की राख बन जाएगी, पीछा तो छुटेगा। ये ईर्ष्या रूपी आग ऐसी है जो पीछा नहीं छोड़ती जिसको ईर्ष्या नफरत करने की आदत पड़ जाए वो अन्दर ही अन्दर सुलगते रहते हैं। संत, पीर-फकीर, गुरु आकर लोगों को समझाते रहते हैं कि भाई! ईर्ष्या छोड़ दो।

वैसे तो नशे सारे ही गन्दे हैं, बुरे हैं पर एक बात है नशा जो कोई करता है उसमें कुछ देर के लिए तो उतेजना आती है। चाहे वो तम्बाकू, अफीम, चरस, हिरोईन, समैक, भांग, धतूरा, शराब वो लेता है, तो कुछ देर के लिए जरूर उतेजना आती है यानि शरीर में एक नशा-सा छा जाता है लेकिन ये किसी की निंदा-चुगली करना, ईर्ष्या करना, एक-दूसरे के लिए जलते रहना इसमें कौन-सा नशा है? कौन सा मजा आता है? फिर भी लोग नहीं हटते। माता-बहिनों का तो नम्बर है। जब हम छोटे हुआ करते थे, लगभग 1972-1973 की बात है, हम देखा करते, एक-दूसरे के घर से बड़ा भाईचारा होता। एक-दूसरे के सब्जी लेने आते लेकिन वहां बैठकर, तेरी बहू बुरी, तेरी सासू बुरी, तेरे घरवाला बुरा। आग ऐसी लगा कर चले जाते, फिर कहते, मैं तो कुछ नहीं कहती, मैं तो सब्जी लेने आई थी। सारी आग लगा दी अभी कुछ भी नहीं कहती। पहले माता-बहिनों का नम्बर था लेकिन अब भाई लोग भी कम नहीं है। ये भी कहीं बैठे हों, एक-दूसरे की टांग खिंचाई इतनी करते हैं। दस लोग बैठे हैं, वहां जो ग्याहरवां नहीं है उसको बुरा कहेंगे।

वो बेकार है, किसी काम का नहीं, बिल्कुल गन्दा है, ये है, वो है। वो जो दस लोग ग्याहरवें को बुरा कह रहे हैं, वो दस क्या दूध के धुले हुए हैं? क्या उन्होंने अपनी आंखों से, अपनी हरकतों से कोई बुरा काम नहीं किया? अगर खुद किया है तो दूसरों को बुरा क्यों कहते हैं? कई दफ्तरों में, बड़े-बड़े आॅफिसरों के यहां क्या कहते हैं वो फलां आदमी तरक्की कर गया। दूसरा कहता है, करना ही है वो तो बॉस का चमचा है। ऐसे चमचागिरी की बात खूब चलती है। हम उनको टोका करते, अरे! ऐसा क्यों कहते हो? कहते, नहीं! वो चमचा है। चमचा वो है आप तो नहीं, कहते नहीं। तो चमचा बनने से तरक्की मिलती है? कहते, हां मिलती है। फिर आप कड़छा बन जाओ। वो चमचा है, आप बड़े वाला बन जाओ। अगर नहीं बन सकते, तो उसकी बुराई क्यों गा रहे हो? आप मत बोलो, नहीं बन सकते, बुरा कर्म नहीं कर सकते, झूठ नहीं बोल सकते। किसी की बुराई उसको चमचा-चमचा कहने से क्या आपको कोई तगमा मिल जाएगा? पर आदत है। पशु होता है, उसको रस्सा चबाने की आदत पड़ जाए तो सामने चाहे कितने चने पड़े हों, कितना बढ़िया-बढ़िया बिनौला-खल डाली हो वो उसको नहीं खाएगा, वो रस्सा जरूर चबाएगा।

फिर कहीं फटा पुराना कपड़ा पड़ा हो उसको चबाएगा। उसका तो इलाज है, एक छिकला बनाकर मुंह पर चढ़ा देते हैं। पर आदमी का क्या इलाज है, इसकी तो ढाई इंज की जीभ है और रहती भी मजबूत जगह में, ये तो हिल गई तो हिल गई। इसके कौनसी नथ मार दें। आदमी को पकड़ा जा सकता है, रुक जा भाई! ये वाली तो पकड़ी नहीं जा सकती, चलती रहती है। चलती भी एक दूसरे की टांग खिंचाई में है। अरे! किसी को बुरा कहने से पहले अपने गिरेबान में देखो, अपने अंदर नजर मारो जिसको बुरा कहने जा रहे हो क्या आप वैसी बुराईयां नहीं करते? अगर करते हो तो किसी का बुरा क्यों गाते हो।

घर का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिए।

घर शरीर को कहा गया है, शरीर के अंदर से बुराइयां निकाल दे तो तेरा अल्लाह, वाहेगुरु, राम, तेरे से दूर नहीं होगा। दूसरों की बुराई मत करो। यह ईर्ष्या रूपी आग सभी को जला रही है। जिसको भी ईर्ष्या लग जाती है, नफरत पैदा हो जाती है, उसको सामने वाला बहुत ही बुरा लगता है। ईर्ष्या, नफरत कभी नहीं करनी चाहिए। यही संत, पीर-फकीर समझाते हैं और जो जलते हुए तन-बदन, जमीर हैं उनमें ठण्डक पहुंचाते हैं। ईर्ष्या, नफरत कभी न करो बल्कि अल्लाह, वाहेगुरु से सभी के लिए प्यार, भला और मोहब्बत मांगो। अरे! आपके मांगने से चाहे किसी का भला न हो पर आपके अंदर दूसरों के प्रति भले की भावना है तो आपका भला अल्लाह,वाहेगुरु, राम जरूर करेंगे।
जैसी जिसकी भावना, तैसा ही फल दे।

यही धर्माें में लिखा है।

जो दूसरों का भला सोचते हैं। वाहेगुरु, अल्लाह, राम उनका भला जरूर करते हैं। इसीलिए कभी भी ईर्ष्या, नफरत नहीं करनी चाहिए।

विषय-विकारां मत्त है मारी,
बुरे कम्मां विच पूंजी हारी।
हत्थों जन्म गया पछतौंदे।

इस बारे में लिखा है।

जवानी और बचपन दोनों कीमती समय हैं। ये जीव खाने-पीने और विषय-विकारों में गुजार देता है और मौत को भुला बैठता है कि आएगी या नहीं। इसी तरह इस अनमोल जन्म का कीमती समय हाथ से गंवा बैठता है।

बचपन में जवानी का जो समय होता है उसमें अगर अल्लाह, वाहेगुरु, राम का नाम लेने के लिए इन्सान को कहो तो दुल्लती झाड़ देता है।

गधा पचीसी उम्रा जोर जवानी का।

जवानी की उम्र में विषय-विकारों के अलावा बुरा-बुरा देखना, बुरी सोच, नकारात्मक विचार इसके अलावा कुछ अच्छा ही नहीं लगता। कहता है भगवान का नाम लेने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है। जब बूढ़ा हो जाऊंगा तो माला ही घुमानी है। अभी तो मेरे खाने-पीने का समय है। अरे भाई! तू बूढ़ा हो जाएगा इसकी कोई गारन्टी नहीं है। नौजवान भी इस संसार को छोडकर जा रहे हैं। छोटे बच्चे भी जा रहे हैं। अरे! आज का समय तेरा है, आने वाला समय काल के गर्भ में छुपा है। कोई नहीं बता सकता कि आने वाला समय कैसा होगा? वो तो अल्लाह, राम, वाहेगुरु जानता है। एक कदम उठा लिया दूसरा उठाने का हुक्म हो या न हो। हमने अपनी आंखों से देखा कि एक नौजावान जिसकी उम्र करीब पच्चीस वर्ष की होगी और कद छ: फुट के करीब, पूरा पहलवान था। उसके ट्रैक्टर का सैल्फ खराब हो जाने की वजह से धक्का लगाने के लिए वह चारपाई से उठा। जैसे ही उठा, एक पांव में जूती डाली और दूसरे पांव में जूती डालने का हुक्म नहीं हुआ।

बुलावा आ गया, वहीं गिर गया। बिल्कुल तन्दुरुस्त था। हम भी वहीं पास से जा रहे थे। उन्होंने दौड़कर आवाज लगाई। गाड़ी लेकर हम पहुंचे तो देखा वहां तो कुछ भी नहीं था। खाली शरीर। आत्मा चली गई। तो भाई! क्या गारन्टी है, क्या भरोसा है। स्वास आ गया तो जिन्दगी है, स्वास नहीं आया तो मौत है। जिन्दगी और मौत में इतना ही अंतर है। तो आप कैसे कह सकते हैं कि आप बुढ़ापे में पहुंच जाएंगे, तब मालिक का नाम लेंगे। आपको बता दें, बचपन और जवानी की भक्ति वाहेगुरु, अल्लाह, राम पहले दर्जे की मन्जूर करता है। आज इस बात का गर्व है कि बहुत से नौजवान मालिक के नाम से जुड़े हुए हैं और जुड रहे हैं। जैसे फौजी साहिबान, कॉलेज के नौजवान विद्यार्थी मालिक के नाम से जुड़े हैं। यह हमने अपनी आंखों से देखा, सत्संग किया जब उन्हें सच्चाई का ज्ञान हुआ तो वो जुड़ गए।

बुढ़ापे में जाकर तो एक तरह मालिक का उलाहना उतारना है। जो बुजुर्ग आदमी यहां बैठे हैं, बुरा मत मानना, भक्ति तो बुढ़ापे की भी मन्जूर होती है लेकिन जवानी में अगर की जाए तो बात ही कुछ और है। जब बुजुर्ग अवस्था आ गई तो इन्सान एक तरह से उलाहना उतार देता है कि मालिक, मैं तेरे यहां आ गया, अब तू सम्भाल, मैं तेरा ही बन्दा हूं। सारा कुछ कर-करा कर बाद में तेरा ही बन्दा हूं। तो चलो! मालिक फिर भी दयालु है, दया-मेहर का दाता है। वो भक्ति मन्जूर कर लेता है पर अव्वल दर्जे की भक्ति तो बचपन और जवानी की है।

नाम जपन नूं जन्म थ्याया,
खाण सौण कम्मां विच क्यों है गवाया।
कम्म अपने दी सोझी है करौंदे।

यह उद्देश्य, लक्ष्य है कि आप मालिक का नाम जपें, ईश्वर की भक्ति करें पर लोग मालिक का नाम तो लेना चाहते हैं। बड़ी अजीब बातें हैं जो करते हैं। कुछ बातें आपको बताते हैं। वाहेगुरु, अल्लाह, राम, परमात्मा को पाना चाहते हैं पर तरीके बड़े अजीबो-गरीब हैं। आज कोई मेहनत नहीं करना चाहता। मंजिल को पाने के लिए छोटे रास्ते से जाना चाहता है। पैसा देने को तैयार है, भक्ति करने को नहीं। पैसा लेने वाले भी तैयार हैं। वे कहते हैं कि इतना पैसा दे दो तो आपके ग्रह चक्कर ठीक कर देंगे और आप अपने काम में सफल हो जाओगे। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि संसार में कोई ऐसा आदमी नहीं है जो किसी के ग्रह चक्कर बदल दे। केवल रूहानी पीर-फकीर ही कर सकते हैं।

जो मालिक का प्यारा भक्त हो वो मालिक से दुआएं करके तो ऐसा करवा सकता है अन्यथा ऐसा कोई आदमी नहीं जो किसी के ग्रह चक्कर बदल दे। कई कह देते हैं कि आपके ग्रह-चक्कर खराब हो गए आप हमें पांच सौ दे दो हम आपके ग्रह चक्कर ठीक कर देंगे। अगर कोई किसी के ग्रह-चक्कर पांच सौ लेकर सही कर सकता है तो वो खुद सारी दुनिया का राजा बनकर क्यों नहीं बैठ जाता? यानि अपने स्वयं के ग्रह-चक्कर सही कर ले और सारी दुनिया का बादशाह बन कर बैठ जाए। सभी को बांटता रहे तो उसको किसी के ग्रह-चक्कर ठीक करने की क्या जरूरत है? असल में उनका स्वयं का ग्रह चक्कर खराब हुआ होता है। जब आप नोट दे देते हैं तो आपका ग्रह-चक्कर तो ठीक हुआ या न हुआ परन्तु उनका ग्रह चक्कर तो नोट लेते ही ठीक हो जाता है। उन पांच सौ में एक महीने का राशन-पानी तो आ ही जाता है। इस तरह से ये पाखण्ड चलते हैं। ढोंग चलते हैं। आपको देते कुछ नहीं आपसे ले जाते हैं।

आगे आया है।

भवसागर विच रुड़दे जांदे,
विच मंझदार दे गोते खांदे।
बन मांझी आप पार लंघौदे।

इस बारे में बताया है

ये संसार भवसागर है। इसमें गुरु जहाज है और गुरु ही उसका कप्तान है। गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता। उसकी कृपा द्वारा ही हम मालिक को मिल सकते हैं।

दुनिया का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां पर मास्टर की जरूरत न पड़ती हो। बच्चे दुनियावी विद्या हासिल करते हैं। मास्टर की जरूरत पड़ती है और उसकी बातों पर हर कोई यकीन कर लेता है पर रूहानी पीर-फकीरों की बातों पर यकीन नहीं करते। विश्वास से ही दुनिया कायम हैं। प्रत्येक धंधे में विश्वास करना पड़ता है।

जैसे एक किसान भाई है और वो दुकान पर जाता है। दुकानदार कहता है कि ये नरमे का बीज ले जा और प्रति एकड़ यह 15 क्विंटल या 10 क्विंटल झाड़ देगा। क्या उसकी मनो-इंन्द्रियां बता सकती हैं कि वह बीज प्रति एकड 15 क्विंटल ही निकलेगा? नहीं बता सकती। यह सच है। फिर भी वो बीज ले कर आ जाता है क्योंकि उसे दुकानदार पर विश्वास है कि शायद ऐसा हो जाएगा। दूसरी बात डाक्टर कहता है कि आपका आॅप्रेशन होगा। क्या आपकी मनोइंद्रियां बता सकती हैं कि आपका आॅप्रेश्न सही हो जाएगा, आप बच जाएंगे? जब कि डाक्टर आपसे लिखवा लेते हैं अगर मर गया तो उसके जिम्मेवार आप हैं। आप अपने हाथों से लिख कर दे देते हैं कि मैं मर गया तो मैं ही जिम्मेवार हूं।

आप डाक्टरों से ऐसा करवाते हैं क्योंकि आपको जब तकलीफ है तो विश्वास करना ही पड़ता हैं। आप लिख कर भी दे देते हैं तो डाक्टर आप्रेशन करता है आप ठीक हो जाते हैं तब आप की मनोइंद्रिया काम करती हैं। आंखों से देखते हैं कि मैं सही हूं। आप सब कुछ सुनते हैं कि बिल्कुल ठीक हो गया। पहले तो आपने विश्वास ही किया है। इसी प्रकार संत, पीर-फकीर कहते हैं कि वाहेगुरु, राम तेरे अंदर है। यह तरीका है इसको आजमा कर देख, मालिक मिलेगा। इधर विश्वास नहीं करता। इधर कहता है कि पहले भगवान दिखा दो फिर भक्ति करूंगा। दुनिया का कोई भी क्षेत्र है उसमें पहले मेहनत करनी होती है फिर फल प्राप्त होता है। बच्चा पहले पढ़ता है फिर डिग्री हासिल करता है। फिर डाक्टरेट या किसी भी लाईन में चला जाता है। जमींदार है फसल बोता है, धरती की बुआई, निराई, गुड़ाई सब कुछ करता है।

तब जा कर फल मिलता है। दुनिया की थ्योरी है कि पहले मेहनत, बाद में फल मिलता है पर वाहेगुुरु, अल्लाह, राम की तरफ कहता है, नहीं! पहले परमात्मा और बाद में भक्ति करूंगा। अरे! जब परमात्मा ही मिल गया तो भक्ति किस चीज की है? अजीबो-गरीब बातें हैं। अल्लाह, वाहेगुरु, राम के लिए साल दो साल भी नहीं लगाना चाहता और बैठा-बैठा कहता है कि परमात्मा की बातें तो फजूल की बातें हैं। डिग्री लेने के लिए जिंदगी के बीस साल देने पड़ते हैं। अल्लाह, वाहेगुरु, राम के लिए साल, दो साल भी नहीं लगाना चाहता और बैठा-बैठा कहता है कि परमात्मा की बातें तो फजूल की बातें हैं। परमात्मा होता ही नहीं है। ये तो फजूल है। ऐसे लोग झूठ बोलते हैं। एक कक्षा पार करने के लिए एक साल देना पड़ता है। तो कया वाहेगुरु, राम के लिए समय नहीं लगाना चाहिए? क्या उसकी भक्ति इबादत के लिए समय नहीं लगाना चाहिए? लगाना चाहिए पर इंसान लगाता नहीं है। भाई! समय लगाएं तभी मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल बन पाएंगे। वो मालिक तो है पर वो मिलेगा तभी अगर उसके लिए समय आप दे पाएंगे।

गुरु, पीर-फकीर एक गाईड का काम करता है। जैसे टीचर एक फार्मूला बताता है। उस पर प्रयोग किया जाता है। बच्चा सही प्रयोग करे तो परिणाम जरूर अच्छा आता है। उसी तरह से रूहानी पीर-फकीर फार्मुला बताते हैं। उस पर अगर अमल किया जाए तो परिणाम अच्छा आएगा। तो भाई! मालिक कैसे मिलता है? मालिक पैसे से नहीं मिलता यह आपको बताया है। वो ढोंग पाखंड से नहीं मिलता और न ही किसी के हलवे प्रसाद से मिलता है, क्योंकि अगर वो तरह-तरह के प्रसाद से मिलता तो हलवाई की दुकान पर बैठा रहता। फिर मालिक कैसे मिलता है? कहां रहता है? इस बारे में बता रहे हैं। जैसे आपको बताया कि अगर आपको यह कहें कि जो आपने कपड़ा पहन रखा है, यह अपने आप बना है और अपने आप आपके शरीर पर आ गया, तो आप विश्वास नहीं करोगे क्योंकि कपड़ा बनाने के लिए बहुत से हाथों से काम लिया जाता है। रूई चुनते हैं, बीज निकालते हैं, धागा बनता है और फिर फैक्टरियों में जाता है।

डिजाइनर पास करता है। फैक्टरी मेें बुनकर बुनते हैं या फिर मशीनों के द्वारा बुना जाता है, फिर व्यापारी लाते हैं। फिर आप लाते हैं, दर्जी को देते हैं फिर वो दर्जी बनाता है तो आप शरीर पर पहनते हो। एक छोटे से कपड़े के लिए कितना कुछ करना पड़ा? अपने आप नहीं बना। अगर ये कपड़ा अपने आप नहीं बनता तो क्या ये सारी सृष्टि, पेड़, पौधे, जीव-जंतु, आदमी ये अपने आप बन सकते हैं? सोचने वाली बात है। इसको भी कोई बनाने वाला है। वैज्ञानिक इसे सुप्रीम पॉवर मानते हैं और अपने धार्मिक लोग ओ३म, हरि, वाहेगुरु, गॉड, खुदा, रब्ब कहते हैं। वो रहता कहां है, और मिलता कैसे है, थोड़ा सा भजन बाकी है, उसके बाद बताएंगे।

5. देख ऐसी हालत तरस है औंदा,
मन माया पिच्छे लग जन्म गवौंदा।
नाम जपन दी युक्ति बतौंदे।
है रूहां दी…

6. देश है तेरा और प्यारे,
जित्थों दे ने अजब नजारे।
चोला बन्दे दा पा के समझौंदे।
हैं रूहां दी…

7. आ इतबार जिन्हां नूं जांदा,
खुशियां माने निजघर जांदा।
‘शाह सतनाम जी’ वचन सुनौंदे।
हैं रूहां दी…।

भजन के आखिर में आया है

देख ऐसी हालत तरस हैं औंदा,
मन माया पिच्छे लग जन्म गवौंदा।
नाम जपन दी युक्ति बतौंदे।

मन जो इन्सान का बहुत ही बड़ा दुश्मन है, सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह मस्ताना जी महाराज फरमाया करते थे कि ‘ये बंगाल का जादूगर है।’ जो इन्सान को अपने हाथों पर नचाता है। कहीं से कहीं इन्सान के विचार ले जाता है। इन्सान बैठा कहीं और होता है और अन्दर कुछ और विचार चल रहे होते हैं। देखने में इन्सान भक्त नजर आता है और अन्दर कुछ और चल रहा होता है। ‘मुख में राम बगल में छुरी।’ ऐसा ये मन की वजह से है। मन जालिम इन्सान को इस तरह से तड़पाता रहता है, परेशान करता है। मन को रोकना कोई आसान काम नहीं है। मन ऐसा जंगली घोड़ा दौड़ता रहता है। इन्सान को चैन से नहीं बैठने देता। अल्लाह, वाहेगुरु का नाम लेने लगो तब तो इतने काम-धंधे गिनवा देता है कि आज तेरा ये करने वाला है, आज इस धंधे में खोटी हो जाएगा। तो भाई! इस मन को रोको, मन वैरी है। दोस्त बनकर धोखा देता है। सभी के अंदर बैठा है। मन के हाथ मत चढ़ो। मिट्टी पलीत कर देता है। सतगुरु की दया-मेहर, वाहेगुरु की जो रहमत, दया-मेहर होती है उसको भुला देता है। ये मन जालिम पल में भुला देता है। ऐसा पारा चढ़ाता है कि इन्सान एक बार इसके हत्थे चढ़ जाए तो मालिक का प्यारा ही बच सकता है वरन् ये दल-दल में डुबो देता है। फिर तड़प-तड़प कर रोते रहते हैं। मन के मते मत चलो। गरु, रूहानी फकीर जो मन से रोकने के लिए अल्लाह, राम, वाहेगुरु का नाम बताते हैं वो ही करो, उसी की भक्ति इबादत करो।

इस बारे में लिखा है

काल नहीं चाहता जो कोई जीव उसके राज में से निकल जाए, क्यों जो सृष्टि की रौनक जीवों के साथ ही है। इस कारण वो मन और माया द्वारा जीवों को अनेक प्रकार भरमाता और भटकाता रहता है। संत शब्द-साधन या नाम की कमाई करवा कर ही जीवों को मोक्ष द्वार का रास्ता बताते हैं। मालिक शब्द सरूपी है। इसलिए शब्द या नाम द्वारा ही उसका मेल और जीव का कल्याण है।

तो भाई! मालिक के नाम बिना मन माया का बंधन तोड़ा नहीं जा सकता।

आगे आया है।

देश है तेरा और प्यारे,
जित्थों दे ने अजब नजारे।
चोला बन्दे दा पा के समझौंदे।

संत, पीर-फकीर संसार में आते हैं। मलमूत्र वाली देह धारण करते हैं, इन्सानों की तरह रहते हैं। वही विचार, वही सब कुछ नजर आता है लेकिन असल में उनका हाथ मालिक से मिला होता है। मालिक से एक हुए होते हैं पर बाहर से जो उनके साथ प्यार मुहब्बत, अल्लाह, वाहेगुरु से जबरदस्त तरीके करता है, वो तो चाहे पहचान जाए वरन् आम इन्सान की तरह सारी गतिविधियां होती हैं। कुछ पता ही नहीं चलता। इन्सान सोचता है कि मेरे जैसा ही है, मेरे जैसे ही काम हैं, वैसे खाता है, पीता है कोई अन्तर नहीं है। उदाहरण के तौर पर एक पागलखाना होता है। उसमें पागल भी रहते हैं और डॉक्टर भी जाते हैं। दोनों ही रहते हैं। पागल इलाज करवाने के लिए वहां रहते हैं और डॉक्टर इलाज करने के लिए जाता है। वैसे ही संसार में जो जीव हैं वो तो जन्म-मरण की बीमारी से तड़प रहे हैं।

चौरासी लाख जन्म मरण की बीमारी लगी हुई है। ये तो अपना कर्माें का बोझ झेल रहे हैं। समय गुजार रहे हैं। फकीर आते हैं वो भी उनकी तरह ही रहते हैं पर इनका इलाज करने के लिए कि जन्म-मरण की बीमारी कैसे दूर हो सकती है। वैसे ही रहेंगे, देखने में भी वैसे सब कुछ, कोई फर्क नहीं पर अंदर से उनकी तार अल्लाह, वाहेगुरु, राम से जुड़ी होती है। मालिक की चर्चा करते हैं। किसी को लड़ाना, किसी को तड़पाना ऐसी शिक्षा न तो कभी देते हैं और न ही कभी किसी को आगे करने की प्रेरणा देते हैं। उनका उद्देश्य इन्सान को इन्सान से जोड़ो, इन्सान को अल्लाह, वाहेगुरु, राम से जोड़ो और इन्सान को परमात्मा की भक्ति से जोड़ो। ताकि इन्सान परमात्मा की भक्ति करके ओम, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु का नाम, इबादत, जाप करके इस धरती पर रहता हुआ स्वर्ग-जन्नत से बढ़कर नजारे ले सके वह संतों का उद्देश्य इन्सान को परमात्मा से जोड़ना है और दुई, द्वेष, नफरत की भावना खत्म करके प्रेम की गंगा बहाना ताकि प्रत्येक इन्सान सुख में जिंदगी जीअ सके। सुख में जीवन जीता हुआ आवागमन से आजाद हो सके। इसीलिए संत, पीर-फकीर दुनिया में आते हैं और ये बताते हैं जो तेरा असली मुकाम है निजधाम है वहां के नजारे अलौकिक हैं। जबरदस्त नजारे हैं। वहां बड़ा ही आनन्द, परमानंद है। ऐसी खुशियां हैं जिनका लिख-बोलकर वर्णन नहीं किया जा सकता। जिसे महसूस किया जा सकता है।

भजन के आखिर में आया है।

आ इतबार जिन्हां नूं जांदा,
खुशियां माने निजघर जांदा।
‘शाह सतनाम जी’ वचन सुनौंदे।

इस बारे में लिखा है।

रूस का बादशाह पीटर हॉलैंड देश में जहाजरानी का काम सीखने के लिए गया। मजदूरों का रूप धारण कर लिया। वहां रूस से निकाले हुए कई और भी काम करते थे। उनसे रूस की बातें करे और उनको अपने देश को जाने की प्रेरणा करे। उनका दिल भी अपने देश जाने को कर आया। कहने लगे, कि हमें बादशाह ने निकाला हुआ है। हम कैसे जा सकते हैं? पीटर ने कहा, बादशाह मेरा दोस्त है मैं तुम्हारी सिफारिश करूंगा, उम्मीद है कि बादशाह मान जाएगा। जब पीटर काम सीखकर अपने देश को वापिस आया तो मजदूर उसके साथ चल पड़े। जब पीटर अपने देश रूस में दाखिल हुआ सब उसकी इज्जत करने लगे। उन मजदूरों का हौंसला बढ़ गया कि इसका जरूर बादशाह से मेल होगा, हमें देश में वापिस आकर रहने की इजाजत दिला देगा। जब पीटर अपनी राजधानी में पहुंचा, तो वो तख्त पर विराजमान हो गया। साथ के साथी हैरान थे कि ये तो हमारी तरह मजदूर नजर आता था, हमें क्या पता था कि ये बादशाह है! दिल में शुक्र करें कि बादशाह मजदूरों का भेष धारण करके हमें साथ ले आया है।

तो भाई! रूहानी पीर फकीर भी ऐसे ही इंसान की तरह रहते हुए, वैसे खाते-पीते हैं उनमें कोई फर्क नहीं होता। फर्क यही होता है कि वो इन्सान को मालिक से जोड़ने आते हैं। कोई पाखण्ड, ढोंग दिखाने नहीं।

अब बात आती है अल्लाह, वाहेगुरु, राम रहता कहां है? वैसे तो वो कण-कण में है जर्रे-जर्रे में है। कोई जगह उससे खाली नहीं है पर इन्सान कहां से खोज करे? इस बारे में हमारे धर्माें में लिखा है, अजमाया है, सतगुरु, मुर्शिद की दया मेहर से अनुभव किया जाता है।

हिन्दू महापुरुषों ने लिखा है।

प्रभु का अपने हाथों से बनाया मन्दिर कोई है तो वो हमारा शरीर, हमारी काया है। इस काया मन्दिर में प्रभु का सिंहासन कोई है तो वो जगह है दिल जहां से सारा जिस्म चलता है यानि खून का दौरा, विचारों का आदान-प्रदान से इससे प्रभाव पड़ता है वो स्थान है दिल और इस शरीर रूपी मन्दिर का कोई दरवाजा है तो वो दोनों आंखों के बीच नाक के ऊपर ललाट के बीच की ये जगह है। जिसे उन्होंने ‘दसवां द्वार’ या ‘तिल’ कहा है।

सिक्ख धर्म में कहा है।

मनु मंदरु तन वेस कलंदरु
घट ही तीरथि नावा।।
एक सबद मेरे प्रानि बसत है
बाहुड़ि जनमि न आवा।।

तन मन्दिर है मन इस में बैठा हुआ है वो ही आसन है। एक शब्द यहां धुर की वाणी चल रही है उससे निबेड़ा हो सकता है।

अंगेज फकीर लिखते हैं।

’द बॉडी इज ’द टैम्पल आॅफ गॉड
हर्ट इज ’द सीट आॅफ गॉड।

यानि शरीर मालिक के रहने का मन्दिर है और दिल सीट है।
यही बात मुसलमान फकीर भी लिखते हैं।
अल्लाह की अपने हाथों से बनाई मस्जिद हमारा जिस्म है और जिस्म रूपी मस्जिद में अल्लाह का आसन दिल है। इस जिस्म रूपी मस्जिद में महराब, (मस्जिद में महराब कहते हैं, ऐसे कमानदार जगह होती है, ऐसे डाटदार जिसके नीचे मौलवी साहिब कलमा अदा करता है या दुआ फरमाता है) दोनों आंखों के बीच की कमानदार जगह है। यहीं बांगे इलाही चलता है।

चारों धर्माें की बात आपने सुनी। भाषा अलग है, बात एक ही है।
दिल्ली की तरफ, आज से शायद दस साल पहले की बात है, एक सज्जन हमें मिले जो कि डॉक्टर थे। उन्होंने हमारी बात सुनी और कहने लगे, गुरु जी! मैंने आप से सुना कि अल्लाह, वाहेगुरु, राम दिल में रहता है। कहने लगा, मैं हार्ट सर्जरी करता हूं, बहुत दिलों के आप्रेशन किए हैं। ओपन हार्ट सर्जरी की है, मुझे तो दिल में बैठा वाहेगुरु कभी नजर नहीं आया। हमने कहा, डॉक्टर साहिब! आपका सवाल तो बढ़िया है परन्तु जवाब भी लेते लाइए, हमने कहा, सामने जो गाय खड़ी है वो दस लीटर दूध देती है। आप आप्रेशन का सामान ले आइए, जहां थन होते हैं वहां पर आप्रेश्न करके देखिए क्या उसमें दस लीटर दूध है? डॉक्टर साहिब वहीं बैठे-बैठे कहने लगे, वहां एक बूंद भी दूध नहीं होगा। हमने कहा, डॉक्टर साहिब! अभी बछड़ा छोड़ देते हैं फिर देखना गाय के थनों मे दूध आ जाएगा। डाक्टर साहिब कहने लगे, ये तो गाय व बछड़े का भावानात्मक लगाव होता है। जब भावना बढ़ती है तब हार्माेन्स बढ़ते हैं। हार्माेन्स के बढ़ने से दूध आ जाता है। ये तो सीधी बात है।

हमने कहा, इसी प्रकार दिल में परमात्मा तो रहता है पर वो चीरा लगाने से नहीं, वो भी भावना को बढ़ाने से नजर आता है। भावना रूपी हार्माेन्स बढ़ेंगे तभी आप उसे देख पाएंगे। डॉक्टर ने फिर सवाल किया, गुरु जी! गाय की भावना बछड़ा छोड़ने से बढ़ जाती है। अगर बछड़ा न हो तो हम इंजैक्शन लगा देते हैं और गाय दूध दे देती है परन्तु हमारी भावना कैसे बढ़ेगी कि हमें भगवान नजर आ जाए, कहते आप कुछ बताओ। हमने कहा, डॉक्टर साहिब! जो गुरु मुर्शिदे-कामिल ने हमें सिखाया, हमने करके देखा जो हमारे धर्माें में लिखा है कि भावना कैसे बढ़ती है वो भावना, तरीका आपको बताते हैं तो हमने खुद करके देखा है।

हिन्दू धर्म में लिखा है।

कलयुग में केवल नाम अधारा।
सिमर सिमर नर उतरो पारा।

कलयुग में आत्मा का कोई आधार है या कोई उद्धार कर सकता है जो आत्मा को प्रभु तक ले जा सके, वो है प्रभु का सच्चा और पवित्र नाम। न घर, परिवार छोड़ो, न ढोंग, पाखण्ड और दिखावा करने की जरूरत है। सिमर सिमर नर उतरो पारा। राम का नाम सुमिरन करते रहो, हे प्राणी! आपका पार उतारा हो जाएगा।
यही बात सिक्ख धर्म में भी आती है:-

अब कलू आइओ रे।।
इकु नामु बोवहु बोवहु।।
अन रूति नाही नाही।।
मतु भरमि भूलहु भूलहु।।

‘अब कलू आइओ रे’, अब कलयुग आ गया है। शरीर रूपी धरती में कोई बीज डालने का समय है तो वो प्रभु-परमात्मा का सच्चा नाम। ‘अन रूति नाही नाही’, और किसी चीज की ऋतु नहीं है, किसी भ्रम-भुलेखे में मत रह जाना। मुसलमान रूहानी फकीर लिखते हैं।

अल्लाह के रहमो करम के चाहवान बन्दे! अगर उसके रहमो-करम का हकदार बनना चाहता है तो सच्चे दिल से उसकी इबादत, कलमा अदा कर तो अल्लाह के रहमो करम का हकदार बनेगा। गम, दु:ख, परेशानियों से निजात जरूर मिलेगी।
यही बात अंगेज फकीर लिखते हैं।

इफ यू वान्ट टू सी ’द गॉड
इफ यू वान्ट टू टाल्क ’द गॉड
दैन रिपीट ’द गॉडस् वर्डस्
ट्राई ऐण्ड ट्राई अगेन, दैन यू गोर्इंग वैरी डीप स्लीप प्वांर्इंट दैन यू सी द गॉड दैन यू टाल्क द गॉड।

अगर भाषा बदल जाए तो मूल तत्व नहीं बदलता। बात सभी ने एक ही कही है। हिन्दू और सिक्ख धर्म मेें मालिक तक जाने के मार्ग को ‘नाम’ कहा है। मुसलमान फकीर ‘कलमा’ कहते हैं और अंग्रेजी रूहानी फकीर गॉड्स वर्डस् कहते हैं। अगर आप उस मालिक को देखना चाहते हैं तो मैथड आॅफ मैडीटेशन, ध्यान का तरीका अजमाओ। पर भाई! ये नाम पर बहुत दुकानें खुल गई हैं। नाम कौनसा सही है, इस बारे हिन्दू महापुरुषों ने लिखा है।

ईश्वर नाम अमोल है, बिन दाम बिकाए।
तुलसी ये आश्चर्ज है, ग्राहक कम ही आए।

ईश्वर, परमात्मा का नाम अनमोल है। उसे कोई खरीद नहीं सकता पर कलयुग में सन्त फकीर जो सच्चे आएंगे, बिना दाम के वाहेगुरु राम का नाम देंगे वो ही सच्चा नाम होगा। हैरानी होगी कि ग्राहक यानि लेने वाले कम ही आएंगे। तो भाई! वही नाम हर कोई कहता है। नाम के भ्रम में, किसी चक्कर में मत पड़ जाना।
अपने देश में नकल बहुत जल्दी तैयार हो जाती है। इसी पर एक बात ध्यान में आयी कि अमेरिका की तरफ से एक सज्जन यहां पर यानि भारत आए। वो अपनी गाड़ी भी साथ लेकर आए। बाहर की गाड़ी थी, इधर उसका सामान कहां से मिलना था! पूरा भारत घूमने का प्रोग्राम बनाया हुआ था। सारा देश घूमते-घुमाते उनकी गाड़ी का फैनवैल्ट इत्यादि कुछ खराब हो गया। उन्होंने किसी मिस्त्री को कहा, भाई! यह खराब हो गया है। आप इसे डाल दें। मिस्त्री ने चैक किया और कहने लगा, ऐसा है कि ये आॅरिजनल तो हमारे पास नहीं है कोई जुगाड़ कर देते हैं।

वो कहता, ठीक है आपको पता ही है जुगाड़ किया तो गाड़ी चल पड़ी। ऐसे करते-करते सारा भारत घूमते-घूमते कई जगहों पर गाड़ी खराब हुई और जुगाड़ करके उसको चला दिया गया। वो अपने देश में चला गया। देश वालों ने पूछा, सुना भाई! भारत कैसा है? कहता, बहुत बढिया है वहां अलग-अलग तरह के लोग रहते हैं, मालिक की चर्चा वहां बहुत है पर वहां एक अजूबा है। कहने लगे, कौनसा अजूबा! कहता, अगर आपकी गाड़ी खराब हो जाए तो उनके पास एक जुगाड़ नाम का पूर्जा है जो जहां भी लगा दें फिट हो जाता है और गाड़ी चलने लगती है। वास्तव में इधर जुगाड़ बहुत होता है। नाम-नाम कह कर कोई भी फिट कर देता है नाम और बदले में लूट लिया जाता है।

आपको नाम दिया है इतने नोट निकालो और इन्सान नोट चढ़ा देता है। इस चक्कर जुगाड़ वाले में मत पड़ जाना। वो अल्लाह, वाहेगुरु, राम आपके अन्दर बैठा है और बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने ये बिल्कुल सीधा रास्ता नाम का बनाया है। नाम लो, घर-परिवार में रहो। कर्मयोगी बनो, अच्छे नेक कर्म करो साथ में नाम लेकर ज्ञानयोगी बनो क्योंकि कर्म योगी बन जाओगे तो कर्म तो गलत भी कर डालोगे अगर ज्ञान नहीं है, तो इसलिए ज्ञानयोगी भी बनो। कईयों को ज्ञान होता है, बड़े-बड़े ग्रन्थों का रट्टा लगा लेते हैं पर अमल खुद नहीं करते, तो ऐसे ज्ञान का कोई फायदा नहीं है। बोझा ढोने के अलावा कुछ भी नहीं है। ज्ञान योगी भी बनो और कर्म योगी भी बनो। मालिक का वो पाक-पवित्र नाम आप घर, परिवार में रहते हुए ले सकते हैं। कोई दाम नहीं देना, कोई धर्म नहीं छोड़ना, पैसा नहीं चढ़ाना, कोई ढोंग पाखण्ड नहीं है।

बहुत बड़ी बात है कि इतनी बड़ी संख्या में जहां भी नजर मारें, वहीं बेपरवाह मस्ताना जी के वचन कि ‘नजर मारोगे तो धरती नजर नहीं आएगी केवल सिर ही सिर नजर आएंगे।’ वो अल्लाह, राम, वाहेगुरु का ये नजारा सामने नजर आ रहा है। धन्य हैं ऐसे मुर्शिदे-कामिल जिन्होंने आज से चालीस साल पहले आज की बात कह दी। यह कोई मामूली बात नहीं, वो तो आपका प्यार ठाठें मार रहा है। समुन्द्र अल्लाह, वाहेगुरु, राम का प्यार नजर आ रहा है।
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