शिकायतों का पुतला है मनुष्य
हम इन्सानों को सदा ही हर दूसरे व्यक्ति से शिकायत रहती है। हर मनुष्य को लगता है कि उसके बराबर इस संसार में कोई और बुद्धिमान नहीं है। वह अपने सामने किसी को कुछ समझता ही नहीं। इसीलिए हर किसी में कमियाँ ढूँढकर, उनका उपहास करके आत्मसन्तोष का अनुभव करता है। यदि उसमें दूसरों की कमियाँ देखने की आदत न होती तो बहुत अच्छा होता। दूसरों के स्थान पर अपनी कमियाँ ढूँढकर यदि वह उन्हें सुधार पाता तो इस संसार का भला हो जाता।
उसे अपने बन्धु-बान्धवों, संगी-साथियों के साथ-साथ प्रकृति, मौसम और ईश्वर से भी शिकायत रहती है। पति-पत्नी को एक-दूसरे से, बच्चों व माता-पिता, घर-परिवार के सभी सदस्यों, मित्रों, शत्रुओं, पड़ोसियों, कार्यालयीन साथियों आदि सभी से हमेशा शिकायत रहती है। उसे लगता है कि हर कोई उसका अहित करना चाहता है। सब उससे और उसके ऐश्वर्य से जलते हैं। तरक्की करते हुए उसे देखकर उसकी टाँग खींचकर जमीन पर पटखनी देना चाहते हैं। उसे सदा यही चिन्ता सताती रहती है कि किस तरह सबको नीचा दिखाकर वह पतंग की तरह ऊँचा उड़ता रहे।
इसी प्रकार दूसरों को कोसते हुए हम सभी अपने जीवन में अशान्ति खरीद लेते हैं। सब कुछ होते हुए भी परेशान रहते हैं। यही एक शंका मन में घुन की तरह लगा लेते हैं कि हमसे कोई आगे न निकल जाए। यदि कोई अपने परिश्रम से आगे निकलने में सफल हो जाता है तब बस फिर उसकी बुराइयाँ करने की कवायद शुरू होने लगती है।
प्रकृति जिससे वह सब कुछ लेता है, उससे उसे विशेष रूप से शिकायत रहती है। स्वयं प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने के उपरान्त भी उसका मन नहीं भरता और उसे दूषित करने से बाज नहीं आता। जब उसकी मूर्खता से अतिवृष्टि या अनावृष्टि होती है या भूकम्प आते हैं तब उनके कारण खेती और अन्य जानमाल की बर्बादी होने की शिकायत करता है।
नदियों पर बड़े-बड़े बाँध और पुल बनाकर सुविधाएँ भोगना चाहता है, उन्हें अपने यातायात के लिए प्रयोग करना चाहता है पर उनकी सफाई पर ध्यान नहीं देना चाहता। इसलिए उनके द्वारा होने वाली तबाही पर बिफरने लगता है।
सागर से उसे परेशानी है कि उसका पानी खारा न होकर मीठा होता तो पानी की समस्या हल हो जाती। स्वयं तो वह हर समय पानी को बर्बाद करता है। कुछ विद्वान कहते हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा।
पक्षियों से विशेषकर कोयल से उसे यह शिकायत है कि उसका रंग काला है। उसकी मधुर आवाज के साथ यदि रंग भी गोरा होता तो अच्छा होता। फूलों अर्थात् गुलाब से शिकायत रहती है कि उसमें काँटे होते हैं। यदि वे न होते तो बहुत अच्छा होता। जब वह उसे तोड़ना चाहता है, वे उसे चुभ जाते हैं।
पेड़-पौधों से शुद्ध वायु और सभी प्रकार के खाद्यान्न पाकर मुदित होता रहता है, फिर भी उन्हें काटकर अपने घर को सजाने तथा ईंधन के रूप में प्रयोग करने में जरा भी परहेज नहीं करता। उसे हर मौसम से भी शिकायत रहती है चाहे वह सर्दी हो, गर्मी हो, वर्षा हो या पतझड़ हो।
इसी प्रकार पशुओं को अपने आराम और मनोरंजन के लिए पालतू बनाता है और अपने जीभ के स्वाद के लिए मारकर खा जाता है। जब वे इसके विपरीत कार्य करने लगते हैं, तब उसकी रातों की नींद हराम हो जाती है।
ईश्वर जिसने उसे इस संसार में भेजा और झोली भर-भरकर नेमतें दी हैं, चौबीसों घण्टे किसी-न-किसी बात पर उसी से शिकायत करता रहता है। उसे यही लगता है कि दुनिया को मालिक सुख देता है किन्तु कांटें, दुख, कष्ट और परेशानियाँ उसकी झोली में डाल देता है।
इस शिकायत-पुराण को तिलांजलि देकर यदि मनुष्य सकारात्मक सोच अपना ले तो उसकी बहुत सारी स्थितियाँ स्वयं ही बदल जाएँगी।
चन्द्र प्रभा सूद