परमार्थ की ऊंची मिसाल थे पूजनीय बापू जी 5 अक्तूबर 17वें परमार्थी दिवस पर विशेष
लोग जिन्दगी को दो तरह से जीते हैं, स्वार्थ में तथा या परमार्थ में। आज का युग महास्वार्थी युग है, चारों ओर स्वार्थ का ही बोलबाला है। लगभग हर कोई स्वार्थ की भेंट चढ़ा हुआ है। इस स्वार्थी दौर में परमार्थ के लिए जीना बहुत दुर्लभ है। परमार्थ भाव जो दूसरों के लिए जीआ जाए, क्योंकि परमार्थ में जिंदगी का मकसद ही परहित के लिए जीना हो जाता है, जिसमें अपने लिए कोई जगह नहीं होती। हमेशा दूसरों के लिए ही कर्म किया जाता है।
भाव, सदा समाज और लोगों की दिल से हमदर्दी करते रहना। गरीबों, बेसहारों, पीड़ितों के दु:ख-दर्द में शरीक होना और उनके भले कि लिए कदम उठाना। परमार्थ का ऐसा जीवन कर्त्ता को अमर कर देता है। लोग उसकी जय-जयकार करने लगते हैं। परन्तु ऐसा परमार्थी जीवन जीने वाले कोई कोई ही होते हैं। लोगों के लिए उनका जीवन मिसाल बन जाता है और उनके पदचिन्हों पर चलते हुए लोग भी अपने आप को धन्य महसूस करते हैं।
ऐसे ही महान हस्ती के मालिक पूजनीय बापू नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी (पूजनीय गुरु संत डॉ गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के आदरणीय बापू जी) हुए हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन परमार्थ के लिए जीआ है। सेवा व सादगी की मिसाल पूजनीय बापू जी ताउम्र जरूरतमंदों के मसीहा बनकर रहे हैं। उन जैसी दरियादिली, हमदर्दी, मिलनसारता, अपनापन तथा भाईचारक सांझ रखने वाला इन्सान मिलना सामान्य बात नहीं है। ऐसे विरले इन्सान ही इस दुनिया में पैदा होते हैं और वह सदा अमर रहते हैं। दुनिया से जाने के बाद भी उनके नक्शे कदम लोगों का मार्ग-दर्शन करते हैं।
मानवीय गुणों के पुंज पूजनीय बापू जी 5 अक्तूबर 2004 को इस फानी दुनिया को अलविदा कहते हुए सचखण्ड जा विराजे। उनके आदर्श जीवन की पवित्र शिक्षाओं पर चलते हुए डेरा सच्चा सौदा की शाह सतनाम जी ग्रीन एस वैल्फेयर फोर्स विंग इस दिन को परमार्थी दिवस के रूप में मनाती है। परमार्थी कार्यों को समर्पित यह दिन प्रत्येक वर्ष परमार्थी दिवस के नाम से साध-संगत द्वारा मनाया जाता है।
इस दिन भी जरूरतमंदों की भरपूर मदद की जाती है। पूजनीय गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की प्रेरणा अनुसार इस दिन को समाज प्रति विशेष तौर पर समर्पित किया जाता है। पूजनीय बापू जी का पवित्र जीवन हमेशा
मानवता के लिए एक ऊंची मिसाल बनकर रहेगा जिनका कर्ज कभी चुकाया नहीं जा सकता।
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आदर्श जीवन दर्शन
पूजनीय बापू नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी का जन्म जिला श्री गंगानगर के गांव श्री गुरुसर मोडिया तहसील सूरतगढ में वर्ष 1929 के देशी महीने मग्घर में हुआ था। इसलिए माता-पिता, बड़े बुुजुर्गाें ने आप जी का नाम सरदार मग्घर सिंह जी रखा। आप जी के आदरणीय पिता जी का नाम सरदार चित्ता सिंह जी तथा माता जी का नाम संत कौर जी था। परन्तु पूजनीय बापू जी को उनके आदरणीय ताया सरदार संता सिंह जी तथा माता चंद कौर जी ने बचपन में ही गोद ले लिया था। यही कारण था कि पूजनीय बापू जी उन्हें ही अपना मां-बाप मानते थे। पूजनीय बापू जी का समस्त जीवन सदभावनाओं से लबरेज रहा है।
जीवन शैली
पूजनीय बापू नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी के स्वच्छ जीवन के बारे में यह कहना कोई अतिशोक्ति नहीं होगी कि उनका पवित्र जीवन ऊँचे संस्कारों की पाठशाला था। विशाल दिल और सादगी भरपूर पूजनीय बापू जी दूर-दराज तक किसी पहचान के मोहताज नहीं थे। उच्च घराने के मालिक व गांव के नंबरदार होते हुए भी उन्होंने अपने अंदर कभी अहंकार की भावना पनपने नहीं दी थी। बिल्कुल सादा जीवन और उच्च विचारों की जीवन शैली पर चलते हुए गरीबों, लाचारों के प्रति बेइन्तहा हमदर्दी रखते थे। हर किसी से खुले दिल से मिलते और उनकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। जो भी कोई दुखिया, जरूरतमंद उनके दरवाजे पर चलकर आता, कभी खाली नहीं लौटा। बल्कि पूजनीय बापू जी को मालूम होता कि फलां घर को मदद की जरूरत है और वह बिना कहे खुद उनके घर मदद लेकर पहुंच जाते। ऐसा सच्चा निष्काम हमदर्द तथा मददगार कहीं से भी ढूंढे नहीं मिल सकता।
गांव में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे कि पूजनीय बापू जी ने बिना कहे ही गरीब परिवारों की बेटियों की शादी-विवाह के समय आर्थिक सहयोग देकर उनके उस पवित्र कारज को सम्पन्न करवाया। इसके अलावा भूखों-प्यासों को उनके घर आप जी ने राशन-सामग्री दी तथा उनके भूखे-प्यासे पशुओं के लिए नीरा-चारा दिया और वह भी बिना किसी कीमत के। पूजनीय बापू नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी बहुत बड़े लैण्ड-लार्ड (जमींदार) थे। खेत में बहाईदार या नौकर-चाकर जो भी होते, कभी भी उनके साथ भेद-भाव नहीं किया था और न ही कभी उन्हें जरूरत का सामान सामग्री ले जाने से मना किया था।
बल्कि फसल आने पर भी यही कहते कि तुम्हें जितनी जरूरत है ले जाओ, हम तो अपना काम चला लेंगे। पूजनीय बापू जी के आदर्श तथा बेमिसाल जीवन-दर्शन से हर इन्सान नत् मस्तक हो जाता । गांव में हर जरूरतमंद की वह एक आशा थे और ऐसी आशा कि जहां पर आशा से भी अधिक मिलने की संभावना होती है। जब तक लेने वाले की झोली भर न जाती पूजनीय बापू जी अपना हाथ पीछे न हटाते। उन जैसा दरियादिल नेक इन्सान, उच्च कोटि का एक भक्त तथा आदर्श पुरुष आज के युग में (इन अलौकिक गुणों से भरपूर इन्सान) मिलना असंभव है।
अनमोल पिता प्यार
पूजनीय बापू नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी एक निरोल तथा पाक-पवित्र आत्मा थे। जिसके फलस्वरूप ही उनके घर ईश्वरीय ताकत (पूजनीय हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां) ने जन्म लिया। उनका भक्ति-भाव तथा मालिक प्रति प्यार की इन्ताह का ही सार है जो पूजनीय गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने आप जी के घर जन्म लेकर आप जी को और भी ऊंचा दर्जा प्रदान किया।
पूजनीय गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां 15 अगस्त 1967 को पूजनीय बापू नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी और अति पूजनीय माता नसीब कौर जी इन्सां के घर पैदा हुए। पूजनीय गुरु जी अपने आदरणीय माता-पिता की इक्लौती संतान हैं और पूजनीय माता-पिता के लगभग 18 वर्ष के लम्बे इन्तजार के बाद उनके घर जन्म लिया। पूजनीय गुरु जी अपने माता-पिता के पास केवल 23 वर्ष की उम्र तक ही रहे। पूजनीय गुरु जी तब 23 वर्ष के ही थे, जब पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने अपने पास बुला लिया और 23 सितम्बर 1990 को डेरा सच्चा सौदा में गद्दीनशीन कर लिया।
पूजनीय बापू जी का अपने लाडले से अत्यधिक प्यार था। पूजनीय बापू जी अपने दिल के टुकड़े को हर समय अपनी आंखों के सामने रखते और कहीं दूर जाने पर मछली की तरह तड़प जाते, उनका यह वैराग्य सहन न हो पाता। अपने लाडले पूजनीय गुरु जी को अपने हाथों से चूरी खिलाना, खेतों में अपने साथ अपने कंधों पर बिठाकर घूमाने ले जाना, रिश्तेदारी आदि में जहां भी जाना अपने साथ ही रखना, यानि हर समय वह अपने दुलारे को निहारते रहते। क्योंकि इसलिए भी कि एक इक्लौती संतान के अलावा संत बाबा त्रिवेणी दास जी ने पूजनीय गुरु जी के अवतार लेने से पहले ही बता दिया था कि यह एक रब्बी शक्ति है और तुम्हारे पास 23 वर्ष तक ही रहेंगे। पूजनीय बापू जी को जब भी कहीं खेत जाना होता या गांव में पंचायत में जाना होता तो अपने लाडले को अपने कंधों पर बैठा कर ले जाते।
माना कि छोटे बच्चे को तो हर कोई पिता अपने कंधे पर बैठा लेता है परन्तु पूजनीय बापू जी को अपने लाडले के प्रति इतना ज्यादा स्रेह था कि पूजनीय गुरु जी जब 13-14 साल के हुए और दूर-दूर तक टूर्नामेन्ट भी खेल आते, परन्तु खेत जाते समय पूजनीय बापू जी उन्हें अपने कंधों पर बिठा कर ही ले जाते कि नहीं, खेत जाना है तो कंधों पर बैठाकर ही ले जाना है। वह अपने लाडले को कोई तकलीफ नहीं देना चाहते थे। हालांकि पूजनीय गुरु जी बार-बार कहते कि अब हम बड़े हो गए हैं, हमें कंधों पर बैठे शर्म आती है। परन्तु नहीं, पूजनीय बापू जी कंधों पर बिठा कर ही ले जाते। कंधों पर बैठे पूजनीय गुरु जी के पांव पूजनीय बापू जी के घुटनों तक पहुंच जाते। लोग बाप-बेटे के इस प्यार भरे नजारे को देखते ही रह जाते और यह अद्भुत दृश्य पूजनीय बापू जी की पहचान बनकर भी प्रसिद्ध हुआ।
जब भी कोई गांव में आकर नंबरदार के बारे में पूछता तो लोग यही निशानी बताते कि एक हाथ में ऊंटनी की रस्सी होगी और उनका बेटा उनके कंधों पर बैठा होगा तो समझ लेना कि यही गांव श्री गुरुसर मोडिया के नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी हैं। वाकई ऐसा महान पिता का प्यार पूजनीय बापू जी का अपने बेटे के प्रति था। पूजनीय बापू जी अपने बेटे पर पूरी तरह कुर्बान थे।
बेइन्तहा त्याग (त्याग की मूर्ति)
एक बाप को अपने बेटे से हद से बढ़कर प्रेम हो, जो उसकी एक पल की भी जुदाई न सहन कर सके। जिसके अंदर उसकी जान, उसकी आत्मा, उसके प्राण हों, जब उससे वही चीज मांग ली जाए तो सोचो, उस पर क्या गुजरेगी। यह बहुत ही गंभीरता का विषय है। ऐसा ही समय पूजनीय बापू जी पर भी आया जो शायद उनकी परीक्षा की घड़ी ही कही जा सकती है। परन्तु धन्य-धन्य कहें पूजनीय बापू जी को जिन्होंने इस सख्त परीक्षा की घड़ी में अपना सब कुछ देने में देर नहीं की। यह समय था 23 सितम्बर 1990 का, जब पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने पूजनीय बापू जी तथा पूजनीय माता जी से उनके अति लाडले इकलौते पुत्र को डेरा सच्चा सौदा को सौंपने का वचन किया।
पूजनीय माता-पिता जी ने अपने सतगुुरु मुर्शिदे कामिल पूजनीय परम पिता जी के वचनों पर उसी पल हँसते-हँसते फूल चढ़ाए। अपने हृदय के टुकड़े को सत् वचन कहते हुए अपने सतगुरु को अर्पण कर दिया। जुबां से उफ तक न निकली। बल्कि पूजनीय माता-पिता जी ने यही विनती की, हे सतगुरु जी! हमारा सब कुछ ही ले लो जी, सब कुछ तुम्हारा ही है, हमारी जमीन-जायदाद भी आप ले लो, हमें तो बस डेरे में एक कमरा दे देना ताकि यहां रहते हुए भजन-बंदगी करते रहें और इन्हें(पूजनीय गुरु जी को) देख लिया करेंगे। वाकई त्याग की यह एक अद्वितीय घटना है, जिसका कभी मोल नहीं दिया जा सकता। इन्सान की कल्पना से परे है।
अपने सतगुरु के हुक्म को सिर-मत्थे मानते हुए पूजनीय बापू जी ने अपने इकलौते लाडले को पूजनीय सतगुरु जी के चरण-कमलों में समाज व जीवों की भलाई के लिए अर्पित कर दिया। यह पूजनीय बापू जी और पूजनीय माता जी का एक बहुत बड़ा बलिदान है जो इतिहास बना, जिन्होंने अपना 23 वर्ष का नौजवान पुत्र जिनके तीन छोटे-छोटे साहिबजादे, साहिबजादियां हैं, हमेशा के लिए सतगुरु जी को अर्पण कर दिया है। ऐसी महान हस्तियों का कोई देन नहीं दे सकता।
बेशक पूजनीय बापू जी शारीरिक तौर पर आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं, परन्तु उनके आदर्श, उनके उत्तम संस्कार, उनके नक्शे कदम आज भी हमें मानवता के प्रति सब अर्पित कर देने के लिए प्रेरित करते हैं और करते रहेंगे। उनका समस्त जीवन त्याग की अमर गाथा है और जो कि समाज के लिए बेमिसाल कुर्बानी है। इसके लिए जितना भी शुक्रियाअदा करें वो कम है। धन्य-धन्य ही कह सकते हैं। पूजनीय बापू जी को शत्-शत् नमन करते हैं और पूजनीय बापू जी के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि है। पूजनीय बापू जी का यह पवित्र दिहाड़ा 5 अक्तूबर हर साल डेरा सच्चा सौदा में शाह सतनाम जी ग्रीन एस वैल्फेयर फोर्स विंग व साध-संगत परमार्थी दिवस के नाम से मनाती है। इस दिन अधिक से अधिक मानवता भलाई के कार्य किए जाते हैं।