बेटा! तू हमारा है! तू हमारा है… -सत्संगियों के अनुभव
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने की अपार रहमत
जीएसएम सेवादार भाई जरनैल सिंह इन्सां पुत्र श्री सज्जन सिंह जी, निवासी गांव शाह सतनाम जी पुरा सरसा से पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की अपने पर हुई अपार रहमत का वर्णन करते हैं:
सन् 1975 की बात है। पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज एक बार मेरे पैतृक गांव महिमा सरजा जिला भटिंडा, पंजाब में पधारे हुए थे। आप जी रूहों का उद्धार करने के लिए घूमते-घूमते हमारे गांव के नजदीक एक खेत में पधारे। पूजनीय परमपिता जी की पावन हजूरी में कुछ सेवादार तथा साध-संगत बैठी हुई थी। उस समय मैं साध-संगत के पास से गिरता-पड़ता हुआ उस रास्ते से गुजरा।
पूजनीय परमपिता जी ने मेरे बारे साध-संगत से पूछा, ‘भाई, ये कैसे गिरता-पड़ता जा रहा है!’ उस समय पूजनीय परमपिता जी के पास खड़े हमारे गांव के एक प्रेमी सेवादार ने बताया कि पिता जी, ये देखने में ही बंदा लगता है। यह तो राक्षस है। दिन-रात शराब में धुत्त रहता है। इस पर आप जी ने फरमाया, ‘भाई, बंदा कितना भी बुरा हो, उसमें कोई न कोई गुण अवश्य होता है।’ गांव के प्रेमियों ने मुझे पूजनीय परमपिता जी द्वारा मेरे बारे में किए वचन बताए और मुझे शराब छोड़ने व नाम शब्द-गुरुमंत्र लेने के लिए भी प्रेरित किया। पूजनीय परमपिता जी के वचन सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई कि मेरे में भी कोई गुण है! फिर मैंने सोचा कि शराब छोड़ दूं तो बढ़िया है।
इस घटना के कुछ महीने बाद गांव बल्लूआणा में पूजनीय परमपिता जी का सत्संग था। मैं उस सत्संग पर पहुंच गया। सत्संग के उपरांत जब पूजनीय परमपिता जी नामाभिलाषी जीवों को नाम-शब्द देने लगे, तो मैंने पूजनीय परमपिता जी की पावन हजूरी में अर्ज कर दी कि पिता जी, मैं हर रोज पांच बोतलें शराब पीता हूं। अगर नहीं पिऊंगा तो तोड़ (तलब) तो नहीं लगेगी? तो पूजनीय परमपिता जी ने फरमाया, ‘भाई, तोड़ लगे, तो दोबारा पी लेना। हम कौन-सा तेरा हाथ पकड़ लेंगे! परन्तु बेटा, नाम में इतना नशा है कि बेशक शराब के सौ मट भी भरे हों, प्रेम की एक घूंट का मुकाबला नहीं कर सकते।’ फिर मैंने गुरुमंत्र ले लिया। गुरुमंत्र, नाम-शब्द लेते ही मुझे नाम का इतना नशा हो गया कि मेरे धरती पर पांव नहीं लगते थे। मैं नाम जपता रहता और अपने आप में मस्त रहता। मुझे शराब से नफरत हो गई। सतगुरु जी की रहमत से सभी नशे व बुराईयां छोड़कर मैं मालिक-सतगुरु का भक्त बन गया।
सन् 1978 की बात है कि रंगड़ी वाले खेत में कुएं की सेवा चल रही थी। एक कुआं बंद करना था और दूसरा कुआं खोदकर लगाना था। मैंने दो दिन उस कुएं पर सेवा की जो खोदकर नया लगा रहे थे। दो दिन के बाद मेरे पास एक जिम्मेवार सेवादार आया। वह मुझे कहने लगा कि भाई, आप तो बहुत बहादुर लगते हो! उस कुएं में से र्इंटें निकालनी हैं तथा कुआं बंद करना है। मैंने कहा, बताओ भाई जी कैसे करना है? उसने मुझे तथा हैड कविराज भाई दलीप सिंह जी इन्सां को कुएं में नीचे उतार दिया।
पूजनीय परमपिता जी ने सेवादारों को पहले ही समझा दिया था कि ‘पहले पल्ली मिट्टी की ऊपर से मंगवा कर रखो। फिर चार र्इंटें निकालो और वो जगह मिट्टी से भरकर, दबाकर व उसे पूरी करके फिर आगे चार र्इंटें निकालो और साथ की साथ पल्ली मिट्टी की ऊपर से और मंगवाकर रखो।’ हमने बिना सोचे-समझे, जल्दी-जल्दी में, हंसते-खेलते और बिना परवाह किए फुट-डेढ़ फुट कुएं में से र्इंटें निकाल दी। हम आपस में हंसने लगे कि इस तरह तो र्इंटें बहुत आसानी से निकलती हैं और इस तरह हमने कुछ मिनटों में ही चार फुट कुआं नीचे से उधेड़ दिया। वहां बोर लगाने वाली मशीन र्इंटें खींचती थी। र्इंटें खींचने वाली पल्ली नीचे थी। अचानक ऊपर से कुआं फट गया और अफरा-तफरी मच गई और हैड कविराज के पांव पल्ली में थे। ऊपर वालों ने पल्ली ऊपर खींच ली तो हैड कविराज ऊपर आ गया।
अन्दाजा ऊपर से पचास फुट छोड़कर चार फुट कुआं (र्इंटें, मिट्टी) नीचे बैठ गया। मैं कन्धों के बराबर तक मिट्टी में दब गया। मिट्टी लगातार गिर रही थी। मुझे इस तरह लगा कि अब तो जीवन की कहानी खत्म है। मैंने मदद के लिए अपने पूजनीय सतगुरु परमपिता जी को याद किया। मुझे पूजनीय परमपिता जी की आवाज में आकाशवाणी हुई, ‘बेटा, हिल-जुल कर।’ मैंने बाजुओं को हिलाया, टांगों को हिलाया। मैं ऊपर की तरफ आने के लिए कोशिश करता रहा। मैं मिट्टी के ऊपर आ गया। मुझे इस तरह महसूस हुआ जैसे किसी गैबी ताकत (स्वयं पूजनीय परमपिता जी) ने मुझे ऊपर की तरफ खींचा है। मिट्टी लगातार अभी भी गिर रही थी और फिर अचानक एकदम ज्यादा मिट्टी गिरने से मैं फिर से कमर तक दब गया। मैं घबरा गया, मैं डर गया कि अब तो नहीं बचता।
पूजनीय परमपिता जी की फिर आवाज आई, ‘बेटा, हम संभालेंगे, फिक्र न कर।’ मैंने फिर टांगों तथा बाजुओं को हिलाया, तो मिट्टी के ऊपर आ गया। मिट्टी अभी भी गिर रही थी। इतने में मुझे कुएं में लगी सीढ़ी दिखाई दी। मैंने हिम्मत करके सीढ़ी पकड़ ली, और सीढ़ी के द्वारा मैं बाहर आ गया। मैंने ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ नारा बोल दिया। सभी सेवादार दौड़कर मेरे पास आकर खड़े हो गए। सभी मालिक-सतगुरु जी का धन्यवाद, शुक्राना करने लगे। उनमें से ज्यादातर भाई तो मेरे जीवित रहने की आशा ही छोड़ चुके थे। उससे लगभग पांच मिनट बाद पूजनीय परमपिता जी पैदल ही चलकर दोपहर के करीब डेढ़ बजे स्वयं उस कुएं के पास पहुंच गए तथा पूछा कि कुएं में कौन था? जिम्मेवार सेवादारों ने बताया कि एक तो हैड कविराज था तथा दूसरा महिमा सरजा गांव का प्रेमी जरनैल सिंह था।
पूजनीय परमपिता जी ने जिम्मेवारों को फरमाया, ‘भाई! तुम्हें कितनी बार कहा है कि अपना साधु (जीएसएम) सेवादार ही कुएं में उतारा करो।’ तब मैं साधु (जीएसएम सेवादार) नहीं बना था। बेपरवाह जी के इतना कहने पर मैं ऊंची-ऊंची रोने लगा। वहां एक शीशम का पेड़ था, मैं उस के साथ माथा लगाकर ऊँची-ऊँची रोने लगा। पूजनीय परमपिता जी स्वयं चलकर मेरे पास आए और फरमाया, ‘बेटा, तू हमारा है! तू हमारा है! हमारी बात गौर से सुन! कि अगर तू कुएं में रह जाता तो मनमुखों ने प्रेमियों का पीछा नहीं छोड़ना था।’ फिर मुझे प्रशाद देते समय वचन फरमाया, ‘बेटा, तू हमारा था तो ही तो हम खुद शिखर दोपहरी में पैदल चलकर आए हैं!
सिर्फ तेरी खातिर! तू हमारा है! हम पास रखेंगे।’ उससे लगभग अढ़ाई साल बाद पूजनीय सतगुरु परमपिता जी ने मुझे अपने पवित्र चरणों में बुला लिया। मैं उसी दिन से ही दरबार में रह रहा हूं तथा हुक्म की सेवा निभा रहा हूं। पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के मौजूूदा पावन स्वरूप पूज्य हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के पवित्र चरण-कमलों में मेरी यही अरदास है कि प्यारे दाता जी, इसी तरह ही ओड़ निभा देना जी।