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परिभाषा The victory of truth
सत्य अजय, अमर, निष्पक्ष, निष्कपट, निस्वार्थ, चिरस्थयी, शुभ, सुखद, न्यायोचित तथा अध्यात्मिक चेतना है जिसका सम्बन्ध सीधा आत्मा और परमात्मा से होता है।
सत्य की शिक्षा
सत्य के लक्षण, सिद्घान्त, प्राप्ति, स्तुति, पालना, लाभ आदि के पूर्ण ज्ञान का बोध करने को सच्ची शिक्षा कहते हैं। इसके विपरीत मिथ्या, छल-कपट, दिखावा, परिवर्तनशील, दुखद, अशुभ, स्वार्थी, पक्षपाति, अधर्मी, मानसिक रोग को झूठ कहते हैं। इस दुनिया में अवतरित हुए संतो, परमसंतों ने यही शिक्षा दी है कि केवल ईश्वर ही सत्य है। शेष सब दुनियावी वस्तुएं असत्य हंै तथा काल-महाकाल की रचना है। सत्य का सुनना, कहना तथा उस पर अटूट विश्वास बनाये रखना, सच्चाई को दर्शाता है।
सत्य की परीक्षा The victory of truth
सत्य को अपनाना, निरन्तर निर्वाह करना, उसी के साथ जीना, अति कठिन कार्य है। जिसकी परीक्षा अक्सर, समय, स्थान तथा परिस्थितियों के अनुरूप होती रहती है। इतिहास में वर्णित है कि सत्यवादी हरिशचन्द्र की नियुक्ति एक शमशान घाट पर लगी हुई थी। वहां पर उनको प्रत्येक मुर्दा जलाने पर लकड़ी के प्रयोग का एक टक्का वसूल करना होता था। संयोगवश, उनके पुत्र रोहताश की मृत्यु, सांप के डसने से हो गई थी।
उनकी पत्नी तारामणी जब अपने बेटे की मृत देह का संस्कार करने शमशान घाट आई। तब भी हरीशचन्द्र ने एक टक्का देने को कहा। टक्का अदा किए बगैर उसका संस्कार नहीं करने दिया । वह अपने मालिक के प्रति निष्ठावान रहते थे। उन्हें सत्य के प्रति समर्पण रहने के कारण ही ‘‘सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र’’ कहा जाता है। महात्मा गांधी जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘सत्य की खोज’’ में दर्शाया गया है कि उन्हें सत्य की पालना तथा रक्षा के लिये कैसी-कैसी यातनायें झेलनी पड़ी।
सत्य की प्राप्ति
गहन प्रयास, संयम तथा निरन्तर साधना से सत्य की उपलब्धी मिलती है। प्रयत्नशील साधक में त्याग तथा सदभावना के सद्गुणों का समावेश होना चाहिये। मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए किसी मिथ्या, ईर्ष्या, घृणा, पाखण्ड, अहंकार इत्यादि को अपने मन से दूर रखे। प्रत्येक कार्य में प्रगति प्राप्त करने के लिए नियमानुसार सत्य की पालना करे। इन विशेषताओं से प्रेम का अंकुर फूटता है। आत्मा में जागृति आती है। संबंधियों और साथियों में अटूट विश्वास पैदा होता है और सच्चा इन्सान ईश्वर की आपार-कृपा का भागी बनता है। बच्चों को शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है तो उनमें अच्छे संस्कार तभी पड़ते है जब शिक्षा देने वाले खुद उस पर अमल करें।
सत्य के प्रारूप एवं प्रकार
सत्य केवल असीम सच्चाई होती है इसके कोई अलग से किस्में नहीं होती, क्योंकि यह बहरूपिया नहीं है। अधूरा सत्य, झूठ, से भी बदत्तर होता है।
सत्य की प्रतिक्रिया
सच्चाई अपनी क्रिया पर अडिग रहती है इसे अपनी जीत अथवा हार की परवाह नहीं होती।
झूठ बोलने से न केवल विश्वास का हनन होता है इससे आत्मा को भी ग्लानि का अहसास होता है।
सच्चाई भले ही कड़वी लगे परन्तु इसके परिणाम सुखद और सात्विक होते हैं।
सत्य का प्रयास भले ही लम्बा खिंच जाये, परन्तु जीत सुनिश्चित है।
-डा. त्रिलोकी नाथ चुघ इन्सां, को-ओर्डीनेटर, शाह सतनाम जी शिक्षण संस्थान, डेरा सच्चा सौदा, सरसा (हरियाणा)
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