साहस औरसंकल्प का महापर्व विजयादशमी Dussehra
शहरों, कस्बों और गांवों में रावण के पुतलों को जलाने की तैयारियां कई दिन पहले शुरु हो जाती हैं। विजयादशमी (Dussehra) के दिन जगह-जगह तरह-तरह से बने रावण के पुतले बड़ी धूमधाम से जलाए जाते हैं।
आंखों को चौंधिया देने वाली आतिशबाजिÞयों और पटाखों के भारी शोर के साथ दशहरे की ये रस्में कब पूरी हो गई, पता ही नहीं चलता।
मगर दशहरे की सच्चाई क्या मात्र इन रस्मों के पूरी होने तक है अथवा फिर इस महापर्व के साथ कुछ विजय संकल्प भी जुड़े हैं? ये सवाल रावण की तरह ही जलते सुलगते रह जायेंगे। शायद ही किसी का मन इसका जवाब पाने के लिए विकल-बेचैन हो अन्यथा ज्यादातर लोगों की जिंदगी दशहरे की रस्में जैसे-तैसे पूरी करके फिर से अपने उसी पुराने ढर्रे पर ढुलकने, लुढ़कने और फिसलने लगेगी।
Also Read :-
यही हमारे सामाजिक जीवन की विडंबनाग्रस्त सच्चाई है। सभी अपनी भागदौड़ से परेशान हैं। सब अपने-अपने स्वार्थ और अपनी अहंकार की कारा में कैद हैं। ऐसे में सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्टÑीय महत्व के बिंदुओं पर सोचने का जोखिम भला कौन उठाए? यह हमारा राष्टÑीय और सांस्कृतिक प्रमाद नहीं तो और क्या है कि हममें से प्राय: सभी अपने पूर्वज ऋषियों-मनीषियों द्वारा बताई गई पर्वों की प्रेरणाओं और संदेशों को पूरी तरह भुला बैठे हैं। पर्वों में समाई सांस्कृतिक संवेदना हमारी अपनी जड़ता के कुटिल व्यूह में फंसकर मुरझा गई है।
सत्य को जानने, समझने और अपनाने का साहस और संकल्प शायद हम सभी में चूकता जा रहा है जबकि विजयादशमी इसी साहस और संकल्प का महापर्व है। जीवन को इन दो महत्वपूर्ण शक्तियों को जागृत करने और उन्हें सही दिशा में नियोजित करने की महान प्रेरणाएं इसमें समाई हैं। विजयादशमी (Dussehra) के साथ जितनी भी पुराण कथाएं अथवा लोक परंपराएं जुड़ी हुईं हैं, सबका सार यही है।
इस पर्व से जुड़ी सबसे पुरातन गाथा मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम जी की है। वह तिथि विजयादशमी ही थी, जब लोकनायक श्रीराम जी ने महर्षि के आश्रम में ‘निसिचर हीन करों महि‘ का वज्र संकल्प लिया था और इसके कुछ वर्षों बाद घटनाक्र म में आए अनेक मोड़ों के बाद वह तिथि भी विजयादशमी (Dussehra) ही थी जब समर्थ प्रभु ने अपने संकल्प को सार्थकता देते हुए रावण का वध किया था।
महर्षि मर्दिनी ने भी इसी पुण्यतिथि को महिषासुर के आसुरी दर्प का दलन किया था। जगदंबा ने अपनी विभिन्न शक्तियों के साथ शारदीय नवरात्रि के नौ दिनों तक शुंभ-निशुंभ की आसुरी सेना के साथ युद्ध किया और अंत में नवें-दसवें दिन क्र मश: निशुंभ और शुंभ का वध करके देव शक्तियों का त्रण किया। विजयादशमी माता आदिशक्ति की उसी समय गाथा की प्रतीक हैं। जिन्हें जीवन के भाव-सत्य से प्रेम हैं, वे इन प्रसंगों से प्रेरणा लेकर अपनी शक्ति की अभिवृद्धि की बात जरूर सोचेंगे।
धुंधले और धूमिल होते जा रहे इस प्रेरणादायी महापर्व की परंपरा के कुछ संस्मरण महान क्र ांतिकारी वीर रामप्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजÞाद से भी जुड़े हैं। ये क्र ांतिकारी इस पर्व को बड़े ही उत्साहपूर्वक मनाया करते थे। बिस्मिल जी का कथन था कि ‘विजयादशमी साहस और संकल्प का महापर्व है परंतु ध्यान रहे साहस का प्रयोग आतंकवादी बर्बरता के प्रति हो, अपनों के प्रति नहीं। इसी तरह का संकल्प देश के लिए मर मिटने का होना चाहिए, अहम् के उन्माद के लिए नहीं।‘ क्र ांतिकारी बिस्मिल की ये बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी पहले कभी थी।
हमारा साहस और संकल्प आज दिशा भटक गया है। हम साहसी तो हैं पर नवनिर्माण के लिए नहीं बल्कि तोड़-फोड़ के लिए। इसी तरह हम अपने संकल्पों की शक्ति निज के अहम् के उन्माद को फैलाने और सांप्रदायिक दुर्भाव को बढ़ाने में लगाते हैं। देश की समरसता एवं सौहार्द में विष घोलने का काम करते हैं जबकि साहस और संकल्प की ऊर्जा जातिवाद, आतंकवादी बर्बरता का विध्वंस करने में नियोजित करना चाहिए। हमारा समर्थ साहस और वज्र संकल्प उन्हें खंड-खंड करने में अपनी प्रतिबद्धता दिखाए जो देश की अखंडता को नष्ट करने पर तुले हैं।
हममें से हर एक साहस भरा संकल्प ले, अपने और सामूहिक रूप से समाज की दुष्प्रवृत्तियों को मिटाने का, अनीति और कुरीति के विरूद्ध संघर्ष करने का, आतंक और अलगाव के विरूद्ध जूझने का। हमारे इस संकल्प में ही इस महापर्व की सच्ची सार्थकता है। इस विजय पर्व पर यदि हम दुष्प्रवृत्तियों का रावण जला सके तो ही समझना चाहिए कि हमने सही ढंग से दशहरा मनाया। -उमेश कुमार साहू