पूजनीय सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम
सेवादार दादू पंजाबी डेरा सच्चा सौदा सरसा से शहनशाह मस्ताना जी महाराज के एक अनोखे करिश्मे का इस प्रकार वर्णन करता है:-
करीब 1957 की बात है डेरा सच्चा सौदा सरसा बाग के एक प्लाट में गाजरें लगा रखी थी। एक दिन पूजनीय बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने सेवादारों को हुक्म देकर साध-संगत की सेवा के लिए सभी गाजरें खुदवा कर लंगर-घर में रखवा दी। उस दिन दयालु सतगुरु जी ने अपनी मौज खुशी में आकर पन्द्रह सेवादारों को गर्म टोपियां बांटी पर मेरे को टोपी नहीं मिली। इस पर मेरा मन चिढ़ गया कि मुझे टोपी क्यों नहीं मिली। उस रात मुझे नींद नहीं आई। रात भर सोचता रहा कि प्यारे दातार जी ने मुझे टोपी क्यों नहीं दी? क्या मुझसे कोई गलती हुई है अथवा हमारे भागों में ही नहीं थी आदि।
अगले दिन सुबह उठकर मैंने सभी सेवादारों के लिए चाय बनाई, क्योंकि उन दिनों मेरी ड्यूटी दरबार में बतौर लांगरी की हुआ करती थी। मैंने सभी को चाय पिला दी। उस समय भी मेरे मन में बराबर यही ख्याल आ रहा था कि सार्इं जी ने मुझे टोपी क्यों नहीं दी। चाय पिलाने के बाद मैं गाय को तरबूज की छिलकें तोड़-तोड़ कर खिलाने लगा। वो छिलके पहले से वहां पर पड़े हुए थे। उस समय सुबह के आठ बजे थे। घट-घट की जाननहार आए और मेरे पीछे आकर खड़े हो गए। पूज्य बेपरवाह जी अपने पवित्र कर-कमलों में अपनी ही टोपी पकड़े हुए थे।
पूज्य सतगुरु जी के आगमन का मुझे जरा भी पता नहीं चला था। दूसरे अन्य सेवादार भाई तो देख ही रहे थे कि पूज्य दाता जी दादू के पीछे खड़े हैं और दादू को शहनशाह जी का पता ही नहीं है। मैंने अचानक पीछे घूमकर देखा तो प्यारे दाता जी को अपने पीछे विराजमान देखकर विसमय होकर रह गया। बेपरवाह जी ने वचन फरमाया, ‘पुट्टर! तेरे को रात टोपी नहीं मिली।’ मैंने हाथ जोड़ कर कहा, सार्इं जी! नहीं मिली। परम दयालु दातार जी ने अपने पावन कर-कमलों से टोपी पकड़ाते हुए वचन फरमाया, ‘ले पुट्टर! तेरे को अपने सिर की टोपी देते हैं।’ इस प्रकार घट-घट की जाननहार बेपरवाह मस्ताना जी महाराज ने मुझे टोपी बख्श कर बेअन्त खुशियां प्रदान की।
इसी तरह एक दिन रात को शहनशाह जी सत्संग फरमा रहे थे। अपनी मौज खुशी में आकर दाता जी ने साध-संगत को कम्बल, कोटियां, जुराबें, कोट बांटे। उस रात परम दयालु सतगुरु जी ने मुझे टी.टी. कोट पीतल के बटनों वाला दिया(जो रेल गाड़ी में टिकटें चैक करने वाले पहनते हैं।) मैंने वह कोट उसी समय पहन लिया पर मेरे मन ने वह कोट पसन्द नहीं किया। रात को मेरा मन कहने लगा कि तेरे को बेपरवाह सतगुरु जी ने क्या दिया, टी.टी कोट, पीतल के बटनों वाला? इन ख्यालों में मन ने न ही सुमिरन किया और न ही सोने दिया।
सुबह बेपरवाह जी अनामी गुफा से बाहर आए। उनके साथ सेवादार भाई नयामत राय भी था। समय आठ बजे का था। उस समय मैं कमरे की सफाई कर रहा था। मेरा मन बेईमान अपना काम कर रहा था और मुझे कह भी रहा था कि बाबा जी ने तुझे क्या दे दिया, टी.टी. कोट! पीतल के बटनों वाला। बेपरवाह जी ने सेवादार नयामत जी को कहकर मुझे अपने पास बुला लिया और वचन फरमाया ‘‘पुट्टर! बटनों वाला कोट तुम्हारे फिट नहीं है, इसको उतार दे।’’ मैंने सतगुरु जी का वचन मानते हुए तुरन्त ही वह कोट उतार दिया। फिर शहनशाह जी ने काले रंग का बढ़िया कोट पहना दिया। वह कोट भी मेरे नाप से कुछ बड़ा था। मेरा मन फिर भी चिढ़ रहा था कि सार्इं जी ने मुझे काफी लंबा कोट दे दिया है। मेरे मन को वह कोट भी पसन्द नहीं आया था। मेरा चंचल मन मुझे बार-बार कह रहा था कि कोट नीचा है, अच्छा नहीं लगता।
अगले दिन सुबह 8 बजे बेपरवाह शहनशाह जी अनामी गुफा से बाहर आए। उस समय मैं पहरे की ड्यूटी दे रहा था। अन्तर्यामी सतगुरु जी मेरे पास आकर रुक गए। दयालु दातार जी ने अपने हुक्म से वह कोट मंगवाया, जो शहनशाह जी ने तीन महीने डेरा सच्चा सौदा अनामी टिब्बों में पहना था। सतगुरु जी ने अपनी मौज खुशी में वह इलाही दात मुझे बख्शते हुए वचन फरमाया, ‘ले पुट्टर! तेरे को नूरी बॉडी का पहना हुआ कोट देते हैं। एक टाकी सौ रुपए की है। गर्म है। तेरे मन ने पहले दो कोट पसंद नहीं किए।
अब तेरे को यह कोट फिट है, पसंद है।’ जब शहनशाह जी ने मुझे वह इलाही दात बख्शी तो उस समय मेरे पैर खुशी में जमीन पर नहीं लग रहे थे। हालांकि वह मेरी बहुत भारी गलती थी, जो मैंने पूज्य सच्चे मुर्शिदे-कामिल प्यारे दाता जी की इलाही बख्शिश पर क्यों, किंतु किया था, लेकिन सतगुरु जी तो हमेशा दयालु होते हैं और हमेशा अपने शिष्य की भलाई के लिए ही वचन फरमाते हैं।