Mandawa पधारो म्हारै देश मंडावा ‘आओ नी पधारो म्हारो देश’ का पर्यटन उद्घोष वाक्य देने वाले राजस्थान के राजसी ठाट के दृश्य बेहद लुभाते हैं। रजवाड़ों के ठाट देखने हों तो जोधपुर, जयपुर और उदयपुर जाते हैं, अगर राजस्थान के कलाप्रेमी सेठों से परिचित होना है तो आपको मंडावा जाना पड़ेगा। यहां की हवेलियां मध्यकालीन भारत की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। मंडावा राजस्थान के ‘शेखावटी’ अंचल का कस्बा है। समूचे भारत में शेखावटी ऐसा एकमात्र क्षेत्र था, जिस पर अंग्रेज कभी पूरी तरह शासन नहीं कर सके।
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कमाल के भित्ति चित्र:
मंडावा अपनी भित्ति चित्रकारी यानी ‘फ्रेस्को पेंटिंग’के लिए मशहूर है। फ्रेस्को पेंटिंग्स करीब 200 साल पुरानी है लेकिन इनकी चमक आज भी नई जैसी है। इन पेंटिंग्स को बनाने में शुद्ध प्राकृतिक रंग प्रयुक्त होते थे। इन पेंटिंग्स को ही नहीं, बल्कि रंगों को तैयार करने में भी चित्रकार जी-जान लगा दिया करते थे।
ओपन आर्ट गैलरी:
मंडावा की हर गली में एक हवेली है और हर हवेली एक ‘ओपन आर्ट गैलरी’ की तरह है। भारत की तरक्की में विशेष योगदान देने वाले मारवाड़ी व्यापारी घराने, जैसे-बिड़ला, मित्तल, बजाज, गोयनका, झुनझुनवाला, डालमिया, पोद्दार, चोखानी आदि के दादा-परदादाओं ने इस नगर को बसाया था और इन्हीं सेठों ने यहां एक से बढ़कर एक खूबसूरत हवेलियां भी बनवाई थीं।
सौ-डेढ़ सौ साल पुरानी इन हवेलियों की दीवारों, मेहराबों, खंभों पर बने भित्ति-चित्रों की खूबसूरती हर किसी का मन् मोह लेती है। इन चित्रों में रामायण, महाभारत और कृष्ण-लीला के प्रसंग बहुत बारीकी से चित्रित किए गए हैं। कुछ हवेलियों में राजस्थानी लोक कथाओं, पशु-पक्षियों, मिथकों, धार्मिक रीति-रिवाजों, आधुनिक रेल, जहाज, मोटर, ईसा मसीह आदि का चित्रण रंगों के माध्यम से किया गया है।
आलीशान मगर वीरान:
यें हवेलियां जिस दौर में तैयार हुईं, उस दौरान यहां आपस में प्रतिस्पर्धा थी कि किसकी हवेली कितनी शानदार होगी। कलाप्रेमी सेठों के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। अत: अपनी हवेलियों के सौंदर्यीकरण में वे कोई कसर नहीं रखना चाहते थे। ऐसा माना जाता है कि मंडावा पुराने सिल्क रूट पर पड़ने वाला मुख्य व्यापारिक केंद्र था, इसलिए यहां के व्यापारी खूब फले-फूले। बाद में वे मुंबई, दिल्ली, सूरत, कोलकाता आदि बड़े नगरों-महानगरों में चले गए। अब इन हवेलियों के मालिक किसी मांगलिक अवसर पर ही अपने कुलदेवता की पूजा-अर्चना करने हवेलियों में लौटते हैं।
एक मंडावा, अनेक हवेलियां:
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि मंडावा हवेलियों का कस्बा है। यहां एक नहीं, सैकड़ों हवेलियां हैं। कुछ प्रमुख हवेलियां हैं।
गोयनका हवेली:
इस हवेली का संबंध प्रसिद्ध कारोबारी गोयनका घराने से है। इसमें भगवान विष्णु का मंदिर भी है। हवेली की चित्रकारी और नक्काशी का काम देखने लायक है। बाहर से देखकर आप इसकी गहराई की थाह नहीं लगा सकते। जब आप हवेली में प्रवेश करते हैं तो यह आपके सामने किसी अनूठी किताब की तरह एक-एक करके खुलती चली जाती है।
लाडिया हवेली:
इसकी संरचना इतनी विशाल है कि इसकी छत से पूरा मंडावा नजर आता है। मंडावा में मोर बहुतायत में हैं। इन छतों पर टहलते हुए नाचते मोरों को निहारना आंखों को बड़ा सुकून देता है। लक्ष्मी नारायण लाडियाहवेली यहां की सबसे सुंदर हवेली है। इसकी दीवारों पर कृष्णलीला, रामायण और महाभारत के प्रसंग बहुत खूबसूरती से उकेरे गए हैं। इसे देखने के लिए थोड़ा समय निकाल कर जाएं क्योंकि यहां की खूबसूरत चित्रकारी को देखकर आप इसमें खो जाएंगे।
चोखानी डबल हवेली:
यह हवेली स्थानीय चोखानी भाइयों ने अपने रहने के लिए 19वीं शताब्दी में बड़े दिल से बनवाई थी। यह हवेली बहुत से आधुनिक रंग समेटे हुए है। यह मंडावा के वार्ड नंबर 5 में पड़ती है।
बिंसिधर नवातिया की हवेली:
1920 में बनकर तैयार हुई यह हवेली उस समय की एक आधुनिक हवेली थी। इसे बनवाने वाले यूरोपीय वास्तुकला के कितने बड़े प्रेमी थे, इस बात का अंदाजा इस हवेली की वास्तुकला में प्रयोग में लाए गए विदेशी पैटर्न और नमूनों को देखकर लगता है। यहां इन बेल-बूटों के बीच कार चलाती हुई महिला और हवाई जहाज उड़ाते राइट ब्रदर्स की तस्वीरों को देखने लोग दूर-दूर से आते हैं।
मुरमुरिया हवेली:
यह हवेली वर्ष 1930 के आसपास बनी थी। इस हवेली की दीवारों पर बनी फ्रेस्को आर्ट उस समय को दर्शाती है, जब भारत में रेलगाड़ी आई थी। इस हवेली में घोड़े पर तिरंगा लिए पंडित नेहरू की खूबसूरत पेंटिंग भी बनी हुई है।
मंडावा कैसल:
मंडावा कैसल का निर्माण सन् 1755 में शेखावटी राजघराने के ठाकुर नवल सिंह ने करवाया था। आज यह एक लग्जरी होटल में तब्दील हो चुका है, जिसमें 70 रायल सूट्स हैं। इस होटल के एक हिस्से में आज भी राजपरिवार के वंशज निवास करते हैं।
हरलालकर की बावड़ी:
मुरमुरिया हवेली से थोड़ी ही दूर स्थित है। बड़े-से चबूतरे पर बनी मीनारें और गुंबद इस संरचना को आकर्षक बनाते हैं। इस बावड़ी का निर्माण सेठ हरलालकर ने 19वीं शताब्दी में यहां के लोगों की पानी की आपूर्ति के लिए करवाया था।
मंडावा आर्ट विलेज:
लुप्त होती म्यूरल कला और फ्रेस्को पेंटिंग सिखाने के उद्देश्य से मंडावा में ‘मंडावा आर्ट विलेज’ की स्थापना की गई है।‘मंडावा का गुजरा वैभव तो वापस लाना मुश्किल है, लेकिन यहां की रौनक और कला को फिर से जगाना ही इसका उद्देश्य है। यह मंडावा से मात्र 4 किलोमीटर है। दावा किया जाता है कि यह आर्ट विलेज विश्व के गिने-चुने आर्ट विलेज (जैसे-मिस्र में नील नदी के किनारे बसा आर्ट विलेज, ट्यूनीशिया और ताइवान के आर्ट विलेज) जैसा अनोखा है।
वाह! बाजरे की रोटी, सांगरी का साग:
यहां के स्थानीय स्वाद में कैर और सांगरी की सब्जी मशहूर है जिसे बाजरे की रोटी से खाया जाता है। कैर और सांगरी जंगली वनस्पतियां हैं। कहते हैं कि अगर किसी के घर मे कैर का पेड़ है तो वह अकाल में भी जी सकता है क्योंकि कैर की जड़ें बहुत गहरे जाकर अपने लायक पानी जुटा लेती हैं।
कब और कैसे आएं:
यदि आपको यात्राओं का शौक है तो मानसून के दिनों में मंडावा जाना बेहतर रहेगा। अक्टूबर से मार्च माह भी सही है। मंडावा दिल्ली से 225 और जयपुर से 180 किलोमीटर की दूरी पर है। मंडावा का नजदीकी बड़ा रेलवे स्टेशन डुंडलोड मुकुंदगढ़ यहां से 17 किमी. दूर है और नजदीकी हवाई अड्डा गुलाबी नगरी जयपुर है।
-डॉ. घनश्याम बादल