सार्इं जी के हुक्म से सन् 1957 में बना दरबार MSG Dera Sacha Sauda
गांव वालों में सत्संग सुनने से ज्यादा बाबा जी को देखने की खुमारी चढ़ी हुई थी। गांव के उगाड़ में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हो गए। सार्इं मस्ताना जी ने उस दिन सत्संग में लोगों को बड़े प्यार से समझाया कि तुम सतपुरुष के पुत्र हो, जीवन में हमेशा सच्चाई के साथ आगे बढ़ो।
सतपुरा धाम में सेवा कार्य करते हुए सेवादार व तेरा वास का दृश्य (नीचे)।
दक्षिण पंजाब की सीमा पर बसा एक छोटा-सा गांव करंडी, अपनी पौराणिकता के साथ-साथ रूहानियत के महान फलसफे को भी संजोये हुए है। पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1957 में इस गांव की माटी को रूहानी स्पर्श देकर ग्रामीणों के उज्ज्वल भविष्य के द्वार खोल दिए थे। सार्इं जी की अपार रहमत से यहां पर बना डेरा सच्चा सौदा सतपुरा धाम आज भी पंजाब के साथ-साथ सीमावर्ती हरियाणावासियों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। कहने को तो यहां के लोग पंजाबी कल्चर में पले-बढ़े और ढले हुए हैं, लेकिन असल में पूरा गांव बागड़ी तबके से जुड़ाव रखता है।
करीब 63 साल पूर्व इस गांव का एक नया भाग्य उदय हुआ जब सार्इं मस्ताना जी महाराज सत्संग करने के लिए यहां पधारे, उस दिन लोगों में उत्साह देखते ही बन रहा था। गली-गली में इस बात का जिक्र हो उठा कि ‘सरसे आलो बाबो आयो है सत्संग करण’। गांव के बीचों-बीच बने चौगान (उगाड़) में सत्संग होना था। इसलिए लोग टोलियां बनाकर उधर की ओर निकल पड़े। सबके मन में एक ही उत्सुकता थी कि ‘देखां! बाबो है घिसो कै’। इस नजारे के साक्षी रहे न्यामतराम इन्सां बताते हैं कि उस दिन गांव में एक गजब खुशी देखने को मिल रही थी।
ज्यों ही दोपहर ढली, मस्ताना जी महाराज गांव में सूरजा राम के घर आ पधारे, उस दिन सुबह कान्हेवाला गांव में सत्संग हुआ था। सायं का सत्संग करंडी में होना था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस दिन सार्इं जी पैदल ही कुछ एक सेवादारों के साथ यहां पधारे थे। बताते हैं कि सूरजाराम का कान्हेवाला में ननिहाल है, वहां सत्संग के दौरान सार्इं जी के चरणों में सूरजाराम के पिता जी ने करंडी में सत्संग करने की अर्ज की थी, जिसे बेपरवाह जी ने मंजूर कर लिया था। वे बताते हैं कि गांव वालों में सत्संग सुनने से ज्यादा बाबा जी को देखने की खुमारी चढ़ी हुई थी। गांव के उगाड़ में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हो गए। सार्इं मस्ताना जी ने उस दिन सत्संग में लोगों को बड़े प्यार से समझाया कि तुम सतपुरुष के पुत्र हो, जीवन में हमेशा सच्चाई के साथ आगे बढ़ो।
ईमानदारी से जीवन जीना सीखो, दूसरों का हक कभी नहीं मारना, बल्कि गरीबों की मदद करनी है। न्यामतराम बताते हैं कि सत्संग में सार्इं जी ने बागड़ी के साथ-साथ सिंधी भाषा में कई बातें सुनाई जो लोगों को बहुत पसंद आई। उस दिन सत्संग के बाद गांव के काफी लोगों ने गुरुमंत्र भी लिया।
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इलाही वचनों से बना धाम
सार्इं मस्ताना जी महाराज द्वारा गांव में फरमाए सत्संग में गांव के अधिकतर लोगों ने नामदान ले लिया था। एक दिन इन सत्संगी लोगों ने मिलकर विचार-विमर्श किया कि क्यों ना गांव में डेरा बनाया जाए। सारी संगत ने इस पर सहमति जताई और पूजनीय सार्इं जी से इस बाबत मिलने का विचार बनाया। सन् 1957 के नवंबर-दिसंबर की बात है, सरसा दरबार में महीने का आखिरी रविवार का सत्संग होना था।
करंडी गांव से सत्संगी भाई सावल मल, सुरजाराम, भोमा राम, रामजीत, धनपत राम, माता चावली, माता रेशमा सहित काफी संगत उस दिन सत्संग सुनने के लिए दरबार में पहुंची। सत्संग के बाद सार्इं जी से मिलकर गांव की संगत ने अर्ज की कि सार्इं जी, गांव के लोगों की तड़प है कि हमारे गांव में भी डेरा बनाओ और फिर से सत्संग लगाओ। इस पर सार्इं जी ने वचन फरमाया- ‘जगह देखकर डेरा बना लो, जहां आपको अच्छा लगता है।’ सार्इं जी के वचनों ने मानो गांव को उल्लास से भर दिया। संगत ने गांव में इस विषय पर गहन चर्चा की और डेरा बनाने के लिए जमीन की तलाश शुरू कर दी। किसी ने शामलाट की जमीन के बारे में बताया तो किसी ने अन्य जगह के चयन का सुझाव दिया।
इसी दरमियान गांव के ही रामचंद ने डेरा बनाने के लिए अपनी जमीन दान में देने की बात कही। रामचंद की दिली इच्छा का सम्मान करते हुए साध-संगत ने उनकी बात पर सहर्ष सहमति जताई। इसके बाद गांव के कुछ जिम्मेवार सत्संगी सरसा दरबार पहुंचे और सार्इं जी से इस बारे में दोबारा अर्ज की। सार्इं जी ने फरमाया- ‘भई! जहां पर साध-संगत ने जगह पास की है, वहां पर डेरा बना लो।’ संगत के प्रेमभाव को देखते हुए सार्इं जी ने अपनी मौज में आकर चौधरी रामजी लाल के गले में पांच सौ रुपये के नोटों के हार डलवाए और फिर से हुक्म फरमाया- ‘जाओ डेरा बनाओ।’ सार्इं जी ने साथ ही डेरे का नामकरण करते हुए ‘डेरा सच्चा सौदा सतपुरा धाम’ नाम रखने के भी वचन फरमाए।
गांव के उम्रदराज लोग बताते हैं कि उस दौरान संगत ने आपसी सहयोग से कच्ची इंटों से तेरा वास का निर्माण करवाया और साथ में एक कमरा भी तैयार किया। वहीं डेरे की जमीन के चारों ओर कांटेधार झाड़ियों से बाड़ तैयार की गई। थोड़ा समय और गुजरा तो गांव की संगत ने 25 हजार पक्की र्इंटें लाकर डेरे में शहनशाही गुफा (तेरा वास), दो कमरे, रसोई, एक चौबारा बनाया और उसकी चार दीवारी भी कर दी।
जब दूसरी पातशाही के आगमन से रोशन हो उठा डेरा
पुराने सत्संगी बताते हैं कि बेशक सार्इं मस्ताना जी महाराज के हुक्म से गांव में डेरा बनाया गया था, लेकिन सार्इं जी कभी यहां नहीं आए। करीब 21 साल के लंबे इंतजार के बाद गांव पर फिर से सतगुरु की रहमत बरसी। सन् 1978 में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज करंडी गांव में पधारे और सत्संग फरमाया। बताते हैं कि वह सत्संग डेरा सच्चा सौदा सतपुरा धाम में ही हुआ था, जिसमें बड़ी संख्या में संगत पहुंची थी। बहुत से जीवों ने गुरुमंत्र लिया था। माता दलीप कौर इन्सां बताती हैं कि पूजनीय परमपिता जी ने पहला सत्संग गांव में बने डेरे में फरमाया था। इसके बाद पूजनीय परमपिता जी दो साल के अंतराल में ही तीन बार गांव में पधारे और ग्रामीणों को खुशियों से लबरेज करते रहे।
सार्इं जी, फिर जवां होकर पधारे
डेरा सच्चा सौदा के प्रति करंडी गांव का बेहद लगाव रहा है, तभी तीनों पातशाहियों ने समय-समय पर गांव में पधार कर भरपूर रहमतें लुटाई हैं। शहनशाह परमपिता जी सन् 1978 में सतपुरा धाम में पधारे, जिसके करीब 16 वर्ष बाद पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां भी जीवों की तड़प सुनकर यहां पधारे और अपने पावन चरणों की छौह से यहां की आबोहवा को फिर से महका दिया। पूज्य हजूर पिता जी सन् 1994 व सन् 1998 में यहां पधारे और डेरे के आयाम को और चार चांद लगा दिए।
उससे पूर्व डेरा सतुपरा धाम की चारदीवारी कच्ची इंटों की बनी हुई थी, जो बारिश आदि के चलते कई बार गिर भी जाती थी। पूज्य हजूर पिता जी जब दूसरी बार यहां पधारे तो सेवादारों को वचन फरमाया- ‘बेटा! पक्की इंटें मंगवाकर डेरे की चार दीवारी को पक्का कर दो।’ ‘जी सत्वचन’ के साथ ही सेवा कार्य शुरू हो गया। ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ की गूंज के बीच देखते ही देखते करीब 6 एकड़ में बने दरबार की चार दीवारी को पक्का कर दिया गया। पूज्य हजूर पिता जी ने संगत की सुविधा के लिए दो और कमरों का भी निर्माण करवाया।
‘पुट्टर! आज तूने मर जाना था, सतगुरु जी ने ही तेरी रक्षा की है।’
शहनशाह मस्ताना जी महाराज के चोज निराले थे। सन् 1959 की बात है, सार्इं जी ने सेवादारों को डेरा सच्चा सौदा सरसा (वर्तमान शाह मस्ताना जी धाम) का गेट गिराने का हुक्म दिया। सेवादार इस कार्य में जुट गए। पूजनीय शहनशाह मस्ताना जी महाराज इस सेवा कार्य को अपनी पावन हजूरी में चौबारे के आगे खड़े होकर पूर्ण करवा रहे थे। इसी दरमियान गेट की डाट टूट कर नीचे को आने लगी। लेकिन इस सब से बेखबर वहां सेवा कर रहे करंडी गांव के सेवादार रामचंद उसी डाट को हाथ लगाए खड़ा था।
तभी एकाएक पूजनीय शहनशाह जी ने अपने मुखारबिंद से ऊंची आवाज में ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का नारा उच्चारित किया। सार्इं जी ने ज्यों ही नारा बोला वह डाट जो रामचंद पर गिरने वाली थी, अचानक उससे दूर जा गिरी। सतगुरु की दया-मेहर से उसका रास्ता बदल गया और रामचंद के मौत जैसे कर्म को थोड़ी सी खरोंच में बदल दिया। शहनशाह जी ने बाद में सेवादारों को बुलाकर अपना आशीर्वाद देते हुए फरमाया- ‘पुट्टररामचंद! आज तूने मर जाना था, सतगुरु जी ने ही तेरी रक्षा की है।’ बाद में रामचंद डेरा सच्चा सौदा का सत् ब्रह्मचारी सेवादार बन गया और ताउम्र मानवता की सेवा को समर्पित रहा।
‘संत बोले सहज सुभाइ, संत का बोला बिरथा न जाइ’
कहने का भाव कि संत-महात्मा द्वारा सहज स्वभाव में कही गई बातें भी कभी व्यर्थ नहीं जाती। समय आने पर उन बातों की कीमत का पता चलता है। ऐसा ही एक दिलचस्प वाक्या करंडी गांव के चौधरी राम जी लाल के साथ भी हुआ। एक बार चौधरी रामजी लाल गांव की साध-संगत के साथ सरसा दरबार में आया। सार्इं मस्ताना जी महाराज ने संगत से कुशलक्षेप जानी और फरमाया- ‘लाओ बई! कुर्सी दो, करंडी का चौधरी रामजी लाल आया है।’ लेकिन रामजी लाल ने हाथ जोड़कर अर्ज की , सार्इं जी! मैं तो साध-संगत के साथ नीचे जमीन पर ही बैठूंगा जी।
यह बात सुनकर सार्इं जी बहुत प्रसन्न हुए, फरमाया- ‘पुट्टर! तुझे एक गोली माफ है।’ यह बात वहां उपस्थित लोगों को शायद एक बार समझ नहीं आई। दरअसल चौधरी रामजी लाल की गांव में दुश्मनी चल रही थी। समय गुजरा, एक दिन चौधरी रामजी लाल को मारने के लिए दुश्मनों ने गोली चलाई, लेकिन उस दिन वह गोली उसको छू कर गुजर गई। उस दिन सार्इं जी के वचनों से उसकी जान बच पाई। पूज्य मुर्शिद ने अपने वचनानुसार उसकी संभाल की। बता दें कि चौधरी राम जी लाल अब सचखंड विराज चुके हैं।
कभी संगत की ओर उछाला था पत्थर, आज सतगुर के वैराग्य में बहते हैं आंसू
जीवन के 79 बंसत देख चुके न्यामत राम ने अतीत के पन्नों को पलटते हुए बताया कि जीवन में कई बार अनजाने में की गई गलतियां जीवनभर टीस देती रहती हैं। उन्होंने अपने बालपन की बात सुनाते हुए कहा कि सार्इं मस्ताना जी महाराज ने सन् 1957 में गांव में सत्संग किया, उस समय मेरी उम्र 14-15 साल के करीब थी। मुझे अच्छे-बुरे का इतना अहसास नहीं था। गांव के चौगान में हुई उस पहली सत्संग में मैं सुनने की बजाय देखने की जिज्ञासा से वहां गया था। लोग सार्इं मस्ताना जी महाराज की वाणी को बहुत प्यार से सुन रहे थे, लेकिन मेरे मन में शरारत सूझ रही थी। जैसे ही सत्संग समाप्त हुआ मैंने एक पत्थर उठाया और उन लोगों की तरफ फेंक दिया, जो सत्संग सुनने के बाद उठने वाले थे।
उसके बाद मैं वहां से फरार हो गया। न्यामत राम उर्फ नेतराम बताते हैं कि वह पत्थर किसी को लगा या नहीं लगा, यह तो पता नहीं, लेकिन इसको लेकर चर्चा अवश्य चली। शायद तभी सेवादारों ने काफी प्रयास के बाद मुझे ढूंढ लिया। अगली रोज सेवादार मुझे पकड़कर सार्इं जी के पास ले आए। मैं घबरा गया, कि पता नहीं अब बाबा जी क्या कहेंगे, क्या सजा मिलेगी। मैं अभी इसी उधेड़बुन में था कि सेवादारों ने मुझे बाबा जी के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। सार्इं जी ने एक युवक की ओर इशारा करते हुए वचन फरमाया- ‘पुटर! इनकी कुश्ती करवाओ।’ इसके बाद मेरी कुश्ती करवाई गई। खास बात यह थी कि उस कुश्ती में हार-जीत का कोई मायना नहीं था। बाबा जी ने जीतने वाले के साथ हारने वाले को भी ईनाम के रूप में 5-5 रुपये दिए। बूंदी का प्रसाद भी खिलाया। सार्इं जी ने फरमाया- ‘पुट्टर! सरसा दरबार में आना, वहां आपको नाम देंगे।’ मैं यह सब कुछ पाकर बहुत खुश हुआ और सार्इं जी के प्रति मेरा नजरिया बदल गया।
न्यामत राम ने सतगुरु सार्इं जी के प्रति वैराग्य का इजहार करते हुए बताया कि आज बचपन की उन गलतियों पर पश्चाताप हो रहा है। जब पूर्ण मुर्शिद घर द्वार पर आकर दर्शन दे रहा था तो मेरे विचार गंदगी से भरे पड़े थे, लेकिन आज उसके दीदार को आंखें तरस रही हैं। उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि उसके कुछ समय बाद मैं अपनी माता मुन्नी देवी के साथ सरसा दरबार में आ गया। यहां करीब 7 दिनों तक दरबार में रहने का सौभाग्य मिला और उस दौरान ही गुरुमंत्र भी नसीब हुआ। एक दिन सार्इं जी के सामने भजन सुनाने का भी मौका मिला। उस शब्द के बोल ‘बाबा तेरा प्रेम निराला ए, जिसनूं एह लग जान्दा ओ कर्मां वाला ए…’ गुनगुनाते हुए न्यामत राम की आंखों से वैराग्य के आंसू छलक आए। कहने लगा कि जीवन के शुरूआती दौर में हुई गलती जीवन के अंतिम पड़ाव में भी टीस बनकर चुभ रही है। आज सतगुरु के प्रति इतना प्यार उमड़ रहा है कि उसे शब्दों में बयान नहीं कर पर रहा हूँ।
टयूब्वैल कहां लगाना है, दूसरी पातशाही बताएगी?
रूहानियत ऐसा अखुट खजाना है, जिसमें हमेशा एकरस का भाव निहित रहता है। न्यामतराम ने ऐसी ही विचित्र बात का जिक्र करते हुए बताया कि सन् 1959 के आस-पास खेतों में सिंचाई के लिए पानी की बड़ी किल्लत थी। भूमिगत जल भी काफी हद तक खारा था। इसलिए परिवार के सभी लोगों के मन में एक संशय था कि खेतों के लिए पानी का प्रबंध कैसे हो? इसी बात को लेकर मैं पूजनीय सार्इं मस्ताना जी महाराज से अर्ज करने पहुंचा। सार्इं जी ने बड़े ध्यान से मेरी बात को सुना और फरमाया- पुट्टर! इस बारे में अगली पातशाही बताएगी कि खेत में कहां और कब टयूब्वैल लगाना है। न्यामतराम बताते हैं कि इसके कुछ समय बाद सार्इं मस्ताना जी महाराज ने चोला बदल लिया।
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज दूसरी पातशाही के रूप में विराजमान हुए। उन दिनों में दरबार में आना- जाना होता रहता था। एक दिन पूजनीय परमपिता जी से मिलने का अवसर मिला। मैंने वही अर्ज फिर से दोहराई कि बेपरवाह जी, खेत में टयूब्वैल लगाना है, कैसे करें जी। इस पर पूजनीय दातार जी ने वचन फरमाया- ‘भई! लोहड़ी वाले दिन टयूब्वैल लगा लो।’ यह सुनकर मैं खुशी-खुशी घर पहुंचा और परिवार से यह बात सांझा की। तय समयानुसार खेत में टयूब्वैल लगाया तो सतगुरु की रहमत से मीठा पानी निकला। पूरे परिवार ने खुशी मनाई और पूजनीय बेपरवाह जी का शुक्राना किया।
‘पुट्टर! आपकी ड्यूटी लगा रहे हैं!
सतगुरु अपने जीव से किस तरह से सेवा ले लेता है, यह देखना अपने आप में बड़ी दिलचस्प बात है। 81 वर्षीय हरजी राम इन्सां बताते हैं कि गांव में पहली बार सत्संग हो रहा था, जिसको लेकर लोगों में बड़ी खुशी देखने को मिल रही थी। उस समय मैं भी अपनी माता जी के साथ सत्संग में आया हुआ था। सार्इं जी, जब सत्संग फरमाने के बाद नाम दान दे रहे थे तो उस दौरान मेरी माता जी ने मुझे अपने पास ही बैठाया हुआ था।
सार्इं जी ने इशारा करते हुए मुझे पास बुलाया और फरमाया- ‘पुट्टर! जो नाम दिया है वो याद है ना,’ मैंने कहा-हां जी। सार्इं जी ने फिर फरमाया- ‘ऐसा है, आपकी एक ड्यूटी लगा रहे हैं, जिन जीवों ने नाम दान लिया है अगर उनमें कोई जीव नाम शब्द भूल जाए तो उसको वह शब्द याद करवाने हंै।’ हरजीराम बताते हैं कि वह दिन मेरे जीवन का अनमोल दिन था, उस दिन मैंने नाम शब्द लिया और उसी समय सार्इं जी ने मेरी सेवा भी लगा दी।
पूज्य गुरु जी ने ग्रामीणों की सुनी पुकार, चुटकियों में हल की रास्ते की समस्या
संत हमेशा परोपकार को समर्पित रहते हैं। ऐसी ही बानगी गांव करंडी में उस समय देखने को मिली जब पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने ग्रामीणों की समस्या को चुटकियों में हल कर दिया। 70 वर्षीय मनीराम इन्सां इस बारे में बताते हैं कि गांव में जब डेरा सच्चा सौदा सतपुरा धाम बनाया गया तो सेवादारों ने आश्रम की कच्ची चार दीवारी भी बना दी। बाद में यह चारदीवारी पक्की होने से धाम के मुख्य द्वार से गुजरते रास्ते की आवाजाही काफी प्रभावित होने लगी, क्योंकि रास्ता काफी छोटा हो चुका था।
ग्रामीणों ने इस समस्या को लेकर कई बार चर्चा भी की। एक दिन पूज्य हजूर पिता जी यहां सतपुरा धाम में पधारे हुए थे, तो गांव के मौजिज व्यक्तियों ने मिलकर अर्ज की कि गुरु जी, रास्ता काफी छोटा हो चुका है, इसका कोई समाधान निकाला जाए। पूज्य हजूर पिता जी ने इस बात का तुरंत समाधान करते हुए जिम्मेवार सेवादारों को बुलाकर आश्रम की मुख्य दीवार ढहाकर उसे पीछे हटाकर बनाने का हुक्म दिया। सेवादारों ने वचनों का अक्षरांश पालन करते हुए वैसा ही किया। अब रास्ता चौड़ा हो चुका था, जिसे देखकर गांव वाले बहुत खुश हुए।
सतपुरा धाम में हुआ था सत्संग, दूसरे गांवों से सुनने पहुंचे थे लोग
पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने भी करंडी में सत्ंसगें लगाकर लोगों को रामनाम के साथ जोड़ा, उन्हें जीवन की सच्चाई से रूबरू करवाया। 74 वर्षीय माता दलीप कौर इन्सां बताती हैं कि पूजनीय परमपिता जी ने डेरा सच्चा सौदा सतपुरा धाम में पहली सत्संग लगाई थी, जिसमें उसने गुरुमंत्र भी लिया था।
वे बताती हैं उस सत्संग में करंडी ही नहीं, अपितु आस-पास के कई गांवों से लोग यहां पहुंचे थे और बड़ी गिनती में नाम दान भी लेकर गए थे। सतपुरा धाम के प्रति यहां के लोगों का बड़ा लगाव रहा है, तभी यहां के हर सेवा कार्य में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं और आज भी गांव में डेरा सच्चा सौदा के प्रति गहरा लगाव देखने को मिलता है।
सेवादार सतपाल इन्सां के अनुसार, सतपुरा धाम में खेती कार्य के साथ-साथ फलदार पौधे भी लगाए गए हैं, जिनसे प्राप्त होने वाली आय को यहां के रख-रखाव के साथ-साथ परमार्थी कार्यों पर खर्च किया जाता है।
उन्होंने बताया कि गांव करंडी की संगत के अलावा ब्लॉक सरदूलगढ़ के सेवादार यहां हर सेवा कार्य में अग्रणी रहते हैं।
‘वरी! आप तो पहले ही खा चुके हो।’
बताते हैं कि सार्इं मस्ताना जी महाराज ने एक बार करंडी गांव के सूरजा राम से किन्नू का प्रसाद मंगवाया था। सूरजा राम ने किन्नू लेते समय मन में सोचा कि क्यों ना इनको खा कर इनका स्वाद देख लूं कि कहीं खट्टे तो नहीं हैं। यही सोचते हुए उसने एक किन्नू खा लिया। बाद में वह किन्नू लेकर दरबार में सार्इं जी की पावन हजूरी में पहुंच गया। सार्इं जी बहुत खुश हुए। सेवादारों को प्रसाद के रूप में किन्नू देने लगे तो सूरजा राम ने भी प्रसाद लेने की इच्छा से हाथ फैला दिए।
इस पर सार्इं जी ने फरमाया कि ‘वरी! आप तो पहले ही खा चुके हो।’ यह सुनकर सूरजा राम हक्का-बक्का रह गया। फिर उसने बात टालते हुए कहा कि सार्इं जी, वह तो मैं इनका स्वाद देख रहा था कि खाने में कैसे हैं। सार्इं जी फरमाने लगे- देखो वरी, आपने अपने हिस्से का पहले ही खा लिया है। यह सुनकर वहां बैठी संगत भी खूब हंसी। बाद में सार्इं जी ने सूरजा राम को प्रसाद देकर उसको खुशियों से भर दिया।
सौहार्द व भाईचारे का प्रतीक है हमारा गांव
‘‘हमारा गांव हमेशा से ही सौहार्द एवं भाईचारे की मिसाल रहा है। यह गर्व की बात है कि यहां डेरा सच्चा सौदा की ओर से डेरे का निर्माण किया गया है, जो लोगों मेें हमेशा भाईचारे का ही संदेश देता है। गांव के अधिकतर लोगों का डेरा सतपुरा धाम से जुड़ाव है। वैसे मेरा पूरा गांव धार्मिक प्रवृति का गांव है।
यहां के लोग अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए एक-दूसरे के दुख-सुख में सांझीदार बनते हैं। गांव में सतपुरा धाम के अलावा तीन मंदिर व एक गौशाला बनी हुई है।’’
-अजीत सिंह, सरपंच गांव करंडी (जिला मानसा)।