परमार्थ की उच्च मिसाल पूज्य बापू जी, स्मृति विशेष (5 अक्तूबर) :
जिंदगी को दो तरह से जीते हैं लोग, स्वार्थ में या परमार्थ में। आज के युग में स्वार्थ का ही बोलबाला है। हर कोई इसकी भेंट चढ़ा हुआ है। इस दौर में परमार्थ के लिए जीना बहुत दुर्लभ है। परमार्थ, जो दूसरों के लिए जीया जाए। क्योंकि परमार्थ में जिंदगी का मकसद ही परहित के लिए जीना हो जाता है जिसमें अपने लिए कोई जगह नहीं होती। हमेशा दूसरों के लिए ही कर्म किया जाता है, अर्थात् सदैव समाज व लोगों की दिल से हमदर्दी करते रहना।
गरीबों, असहायों, पीड़ितों के दु:ख दर्द को बांटना और उनके भले के लिए कदम उठाना। परमार्थ का ऐसा जीवन कर्ता को अमर बना देता है। लोग उसकी जय-जयकार करने लगते हैं। लेकिन ऐसा जीवन जीने वाले कोई विरले ही होते हैं। लोगों के लिए उनका जीवन मिसाल बन जाता है और उनके पद-चिन्हों पर चलते हुए लोग भी अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
ऐसे ही महान हस्ती के स्वामी पूज्य बापू नम्बरदार सरदार मग्घर सिंह जी (पूज्य गुरु जी के आदरणीय पिता जी) हुए हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन परमार्थ के लिए जीया है। सेवा और सादगी की मिसाल पूज्य बापू जी उम्र-भर वंचितों, जरूरतमंदों के मसीहा बन कर रहे हैं। उन जैसी दरियादिली, सहानुभूति, मिलनसारिता, अपनत्व व भाईचारक सांझ वाला इन्सान मिलना आम बात नहीं है। ऐसे विरले इन्सान ही इस दुनिया में पैदा होते हैं और वो सदा अमर रहते हैं। दुनिया से जाने के बाद भी उनके नक्शे-कदम लोगों का मार्गदर्शन करते हैं।
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मानवीय गुणों के पुंज पूज्य बापू जी
5 अक्तूबर 2004 को इस फानी दुनिया को अलविदा कहते हुए सचखंड जा विराजे। उनके आदर्श जीवन की पावन शिक्षाओं पर चलते हुए शाह सतनाम जी ग्रीन एस वैल्फेयर फोर्स विंग, इस दिन को ‘परमार्थी दिवस’ के रूप में मनाती है। परमार्थी कार्यों को समर्पित यह दिन हर वर्ष मनाया जाता है जिसमें विंग की ओर से जरूरतमंदों की भरपूर मदद की जाती है। पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के पावन दिशा-निर्देशन में इस दिन को समाज के प्रति विशेष रूप से समर्पित किया जाता है। पूज्य बापू जी के पावन परमार्थी जीवन को यही सच्ची श्रद्धांजली है। पूज्य बापू जी का पावन जीवन हमेशा मानवता के लिए एक उच्च मिसाल बनकर रहेगा, जिनका ऋण कभी उतारा नहीं जा सकता।
आदर्श जीवन
पूज्य बापू जी का जन्म राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के गांव श्री गुरुसरमोडिया में सन् 1929 को हुआ। पूज्य बापू जी के पिता का नाम आदरणीय सरदार चिता सिंह जी तथा माता का नाम आदरणीय संत कौर जी था। बेशक जन्मदाता सरदार चिता सिंह जी व संत कौर जी थे, मगर पूज्य बापू जी को उनके आदरणीय ताया जी सरदार संता सिंह जी व चंद कौर जी ने बचपन से ही गोद ले लिया था। यही कारण था कि पूज्य बापू जी अपने ताया जी व ताई जी को ही अपना मां-बाप मानते थे। आदरणीय ताया जी व ताई जी ने ही पूज्य बापू जी का पालन-पोषण किया और उनकी छत्र-छाया में ही जिंदगी में आगे बढ़े। उनका सम्पूर्ण जीवन सद्भावनाओं से ओत-प्रोत रहा है।
जीवन शैली
पूज्य बापू जी के स्वच्छ जीवन के बारे यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उनका जीवन उच्च संस्कारों की पाठशाला था। विशाल हृदय और सादगी सम्पन्न पूज्य बापू जी दूर-दराज तक किसी पहचान के मोहताज नहीं थे। उच्च घराने के मालिक व गांव के नम्बरदार होते हुए भी उन्होंने अपने अंदर कभी अहम के भाव पनपने नहीं दिए। बिल्कुल सादा जीवन और उच्च विचार की जीवन शैली पर चलते हुए गरीबों, लाचारों के प्रति अथाह हमदर्दी रखते। हर किसी से बड़े दिल से मिलते और उनकी मदद करने को तत्पर रहते। जो भी कोई दुखिया, जरूरतमंद उनकी चौखट पर चल के आया, कभी खाली नहीं मुड़ा।
बल्कि पूज्य बापू जी को पता होता कि अमुक घर को मदद की जरूरत है और वो बिना कहे अपने-आप ही उनके घर मदद करने चल पड़ते। ऐसा मददगार कहीं भी नहीं मिल सकता। गांव में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे कि पूज्य बापू जी ने बिना कहे ही गरीब परिवारों की बेटियों की शादी पे आर्थिक सहयोग देकर उनकी शादियां करवाई। भूखे-प्यासों को उनके घर पर खुद ही राशन-सामग्री दी तथा उनके पशुओं के लिए नीरा-चारा दिया और वो भी बिना किसी कीमत के।
पूज्य बापू जी बहुत बड़े जमींदार रहे हैं। खेत में बंटाईदार या नौकर-चाकर जो भी होते कभी उनसे भेदभाव पूर्ण व्यवहार नहीं किया, और न ही उनको कभी कोई सामान-सामग्री ले जाने से रोका था, बल्कि फसल आने पर भी यही कहते कि ‘तुम लोगों को जितनी जरूरत है ले जाओ, हम तो अपना काम चला लेंगे।’ पूज्य बापू जी के ऐसे अभूतपूर्व जीवन-दर्शन से हर इंसान नत-मस्तक हो जाता है। गांव में हर जरूरतमंद की वो एक उम्मीद थे और ऐसी उम्मीद कि जहां अपेक्षा से भी कहीं ज्यादा मिलने की संभावना होती। जब तक लेने वाले की झोली भर न जाती, पूज्य बापू जी अपना हाथ पीछे न हटाते। उन जैसा दरियादिल, नेक इंसान, एक भगत, आदर्श पुरुष आज के युग में मिलना बहुत मुश्किल है।
अनमोल पितृत्व
पूज्य बापू जी एक निरोल व पाक-पवित्र आत्मा थे। जिसके फलस्वरूप ही उनके घर ईश्वरीय ताकत (पूज्य गुरु जी) ने जन्म लिया। उनका भक्ति-भाव व मालिक के साथ प्यार की इंतहा का ही ये सार है जो पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने उनके यहां जन्म लेकर उनको उच्च दर्जा प्रदान किया।
पूज्य गुरु जी 15 अगस्त 1967 को पूज्य बापू नंबरदार सरदार मग्घर सिंह जी व आदरणीय माता नसीब कौर जी इन्सां के घर पैदा हुए। पूज्य गुरु जी आदरणीय माता-पिता की इकलौती संतान हैं और उनके विवाह के अठारह वर्ष बाद पैदा हुए और उनके पास केवल 23 वर्ष की आयु तक ही रहे। उपरान्त पूज्य गुरु जी को परम पिता शाह सतनाम जी महाराज ने डेरा सच्चा सौदा में बुला लिया और 23 सितम्बर 1990 को अपना उत्तराधिकारी बना लिया।
पूज्य बापू जी का अपने लाडले से बहुत ज्यादा प्यार था! पूज्य बापू जी अपने दिल के टुकड़े को हर समय अपनी आंखों के सामने रखते और कहीं दूर जाने पर मछली की तरह तड़प जाते। उनका यह वैराग्य असहनीय होता। अपने लाल के प्रति उनका समर्पण-भाव बेमिसाल था। पूज्य गुरु जी को अपने हाथों से चूरी खिलाना, खेतों में अपने साथ अपने कंधों पर बिठाकर घुमाने ले जाना, रिश्तेदारी इत्यादि में जहां भी जाना, अपने साथ ही रखना। अर्थात् हर समय वो अपने दुलारे को निहारते रहते। पूज्य गुरु जी को कभी चलने नहीं देते थे।
छोटे बच्चे को तो हर कोई अपने कंधों पर बैठा लेता है, लेकिन पूज्य बापू जी का अपने लाल के प्रति अंदर में इतना स्नेह (प्यार) उमड़ता कि पूज्य गुरु जी जब 13-14 वर्ष के हो गए, फिर भी उन्हें अपने कंधों पर बिठा लेते। पूज्य बापू जी अपने लाडले को चलने तो देते नहीं थे कि कहीं थक ना जाए। अक्सर जब भी पूज्य बापू जी खेतों में जाते तो उनके हाथ में ऊंटनी की रस्सी (क्योंकि तब खेत वहां ऊंटों से ही जोते जाते थे) होती और कंधे पर अपने 13-14 वर्ष के लाल (पूज्य गुरु जी) को बिठाया होता और जब इस नजारे को लोग देखते तो वो भी देखते रह जाते! यही कारण था
कि यह नजारा पूज्य बापू जी की एक पहचान भी बन गया और उनको चर्चित कर दिया कि जब भी कोई गांव के नम्बरदार के बारे पूछता तो लोग ‘यही निशानी’ बताते कि जिसके हाथ में ऊंटनी की रस्सी और कंधे पर 13-14 वर्ष का उनका बेटा हो, जिसके पांव उनके घुटनों तक आते हों, समझ लेना वही हमारे गांव (श्रीगुरुसरमोडिया) का नम्बरदार है। वाकई, ऐसा महान पितृत्व पूज्य बापू जी का था, जो बेटे पर पूरी तरह कुर्बान था।
त्याग की मूर्ति
एक बाप को अपने बेटे के साथ हद से ज्यादा प्रेम हो, जो उसके बिना पल की जुदाई भी न सह सके, जिसमें उसकी जान (आत्मा-प्राण) हो, और जब उसी से वो ही चीज मांग ली जाए, तो उस पर क्या बीतेगी, यह गंभीरता से सोचने वाली बात है! ऐसा ही समय पूज्य बापू जी पर भी आया, जो शायद उनकी परीक्षा की ही घड़ी कही जा सकती है। लेकिन धन्य-धन्य पूज्य बापू जी, जिन्होंने इस परीक्षा की घड़ी में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने में देर न लगाई। यह समय था 23 सितम्बर 1990, जब पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने पूज्य बापू जी व पूजनीय माता जी से उनके इकलौते बेटे (पूज्य गुरु जी) को डेरा सच्चा सौदा के लिए सौंपने के लिए मांग की।
पूजनीय माता-पिता ने अपने सतगुरु मुर्शिदे-कामिल परम पिता जी के वचनों पर उसी क्षण फूल चढ़ाए, अर्थात् अपने दिल के टुकड़े को हंसते हुए अपने सतगुरु को भेंट कर दिया। जुबां से उफ़ तक न निकला! बल्कि पूजनीय माता-पिता जी ने यही विनती की, ‘हे सतगुरु जी, हमारा सब कुछ ही ले लो जी, सबकुछ आपका ही हैै। हमारी जमीन-जायदाद भी आप ले लो जी और हमें तो बस डेरे में एक कमरा दे देना, ताकि हम यहां पर रह कर भजन-बंदगी करते रहें और इनको (पूज्य गुरु जी) देख लिया करेंगे!’ वाकई त्याग की यह एक लासानी घटना है, जिसका कभी कोई मोल नहीं चुकाया जा सकता।
आम इंसान की कल्पना से भी परे है। अपने सतगुरु के हुक्म को सिर माथे मानते हुए अपने लाडले को समाज को समर्पित कर देना, पूज्य बापू जी व पूजनीय माता जी का महाबलिदान है। ऐसी महान हस्तियों का कोई देन नहीं दिया जा सकता।
बेशक पूज्य बापू जी शारीरिक रूप से आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं, लेकिन उनके आदर्श, उनके उत्तम संस्कार, उनके नक्शे-कदम आज भी मानव को मानवता के प्रति सर्वस्व त्याग के लिए प्रेरित करते हैं और करते रहेंगे। उनका समूचा जीवन त्याग की एक अमर-गाथा है और समाज के लिए अविरल कुर्बानी है, जिसके लिए हम बारम्बार शुक्रिया अदा करते हैं। पूज्य बापू जी को शत्-शत् नमन करते हैं।
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