spiritual satsang रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा
लेते ही जन्म भूल गया जो वायदा किया है।
बचपन में खेला खाया, फिर विषयों में फंस गया है।
मालिक की साजी-नवाजी प्यारी साध-संगत जीओ! बहुत ही प्रेम-प्यार से आप लोग सजे हैं, आस-पास से, दूर-दराज से सतगुरु की रंग-बिरंगी फुलवाड़ी आश्रम में, सत्संग में यहां पधारी है, सजी हुई है, आप सबका सत्संग में पधारने का तहदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैलकम।
आज जो आपकी सेवा में सत्संग होगा और जिस भजन, शब्द पर सत्संग होगा, वह भजन है:-
लेते ही जन्म भूल गया जो वायदा किया है।
बचपन में खेला खाया फिर विषयों में फंस गया है।
जन्म लेते ही जीवात्मा उस मालिक, अल्लाह, वाहेगुरु, खुदा, रब्ब से नाता तोड़ बैठी और मन-माया में ऐसी फंस गई कि अपने घर की, मालिक की, प्रभु-परमात्मा की कोई सोझी, कोई समझ नहीं रही। ख्याल रहा खेल-खिलौनों का। ख्याल रहा काल के मन-माया रूपी हवा का, पर मालिक से विचार, ख्याल टूट गया। माता के गर्भ में आत्मा, परमात्मा से जुड़ी हुई थी। ये बात कुछ हद तक अब वैज्ञानिक लोग भी मानने लगे हैं कि आत्मा, या यूंू कहें बच्चा जब माता के गर्भ में होता है, आस-पास का जैसा वातावरण है उसका असर गर्भ में ही बच्चे पर जरूर पड़ता है। ये नहीं मानें कि आत्मा की लिव मालिक से जुड़ी हुई है। संत, पीर-फकीरों ने तो ये बात हजारों साल पहले लिखी हुई है।
महाभारत में आता है कि अभिमन्यु ने माता के गर्भ में चक्रव्यूह में जाने का तरीका सीख लिया। जबकि पहले इसे कोई नहीं मानता था। लेकिन जब वैज्ञानिक लोग ये कहने लगे हैं कि बच्चे पे असर होता है तो ये बात सच मानने लगे हंै। तो इसी तरह से यह बात भी सौ प्रतिशत सच है कि आत्मा शुरूआत में जब माता के गर्भ में आती है तो जठर अग्नि, गंदा खून उसका एक तरह से बिछौना होता है, बहुत ही तंग जगह होती है। तो आत्मा-जीवात्मा वहां तड़पती है कि ये मैं कुंभी नर्क (मटके जैसे)में कहां फंस गई! कैसे उलझ गई। अब मेरा क्या होगा? व्याकुल हुई, तड़पने लगी तो अपने अल्लाह, वाहेगुरु, राम को याद किया। हे मालिक! हे दया-मेहर, रहमत के दाता! अब तू रक्षा करे तो करे, वरना घोर अंधकार है, कुछ नजर नहीं आता।
तो आत्मा तड़पती है, मालिक को याद करती है तो उसकी लिव, उसके विचारात, उसके ख्यालात मालिक से जुड़ जाते हैं। शरीर की रचना होती है, आत्मा को कष्ट आता है लेकिन मालिक से लिव जुड़े होने की वजह से उसकी परवाह आत्मा नहीं करती और जैसे ही शरीर धारण करके यह आत्मा मृत्युलोक में प्रवेश करती है तो मालिक से जुड़ी हुई लिव, मालिक से जुड़ा हुआ ध्यान पल में टूट जाता है। आत्मा मन-माया काल द्वारा रचे हुए खेल-खिलौनों में उलझ जाती है और आत्मा ने मात गर्भ में जो वायदा किया था कि हे प्रभु, हे अल्लाह, हे राम! एक बार इस घोर नर्क से बाहर निकाल दे, हमेशा तेरा नाम जपूं, तेरा सुमिरन करूं, वो वायदा जन्म लेते ही भुला दिया। कई ये भी कहते हैं कि हमें उस समय का पता नहीं कि हमने वायदा किया था, हमें याद नहीं कि शायद ही ऐसा हुआ हो। आपको याद नहीं है पर आम लोगों में ये देखा है, उदाहरण के तौर पर, जब कोई कष्ट आता है, परेशानी आती है, मुश्किल आती है तो अनायास ही मुख से (अपने-अपने धर्म के अनुसार अपने ईष्टदेव) अल्लाह, राम, वाहेगुरु का नाम निकलता है।
अगर आपकी आत्मा उसे नहीं जानती तो फिर उसे ये कैसे पता है कि जब भयानक तकलीफ आए तो सबसे बड़ा मददगार प्रभु है, परमात्मा है। ये तो अचानक शब्द निकल जाते हैं कि हे राम बचा। हे मालिक बचा! तो इससे भी यही साबित होता है कि मन-माया की पट्टी आंखों पर चढ़ गई या सोच में पड़ गई, इसलिए वो बात याद नहीं रही वरना मालिक से तो वायदा किया है और उस वायदे को तोड़कर आत्मा शरीर के साथ-साथ मन के हाथों नाचती रही। बचपन में खेलना, कूदना अच्छा लगता है, उस समय और कुछ नहीं भाता। खेल-खिलौने बच्चे को अच्छे लगते हैं और उनको पाने की चाह हमेशा लगी रहती है। थोड़ा बड़ा होता है खेल भी बड़े हो जाते हैं। जवानी आती है, विषय-विकारों, बुरे विचारों में पड़ जाता है और तब अल्लाह, राम, मालिक की बात नहीं भाती।
सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज ने इस बारे में फरमाया भी है, ‘मन है बना ड्राइवर हर एक प्राणी का, गधा पच्चीसी उमरां जोर जवानी का।’ जब 25 साल से कम उम्र होती है अल्लाह-राम की बात करो तो दुल्लती झाड़ देता है। कहता है, ये भी कोई समय है अल्लाह, राम के नाम का। अभी तो खाने-पीने, ऐश उड़ाने का समय है। जब समय आएगा तो मालिक को याद कर लूंगा। कई सज्जनों ने बुजुर्गों से पूछा- शमशानों में आपकी टांगे हैं, पता नहीं कब चले जाओ, क्यों नहीं अल्लाह, राम का नाम लेते? कहने लगे, अजी! वैसे सारी उम्र-बाल बच्चों में लगा दी अब जाते-जाते ये कलंक का टीका क्यों लगाएं? राम-नाम को कलंक का टीका ही बताते हैं।
कहते हैं कि हम तो राम-नाम वालों से बढ़िया हैं। ना कुछ खाते हैं, न कुछ पीते हैं और न ही कोई बुरा कर्म करते हैं। ये आपको लगता होगा कि आप बढ़िया हैं पर जब तक राम का नाम नहीं लेते, तब तक न तो ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु के दर्श-दीदार कर सकते हैं और न ही आवागन से मोक्ष-मुक्ति मिलेगी। अच्छी बात है कि आप बुरे कर्म नहीं करते। नेक पुण्य कर्म करते हो स्वर्ग मिल सकता है। लेकिन ये नहीं है कि वहां पक्का अड्डा होगा। अच्छे कर्मों के बदले स्वर्ग-जन्नत और बुरे कर्मों के बदले नर्क, दोजख में जाना होगा और जितना समय आपके कर्मों की मियाद होगी उतना समय वहां रहकर फिर से जन्म-मरण में जाना पड़ेगा। तो ये ही भजन में लिखा है-
लेते ही जन्म भूल गया जो वायदा किया है,
बचपन में खेला-खाया फिर विषयों में फंस गया है।
इस बारे में लिखा है-
गरभ जोनि महि उरध तपु करता ।।
तउ जठर अगनि महि रहता ।।
लख चउरासीह जोनि भ्रमि आइओ ।।
अब के छुटके ठउर न ठाइओ।।
कहु कबीर भजु सारिगपानी ।।
आवत दीसै जात न जानी ।।
हां जी चलो भाई-
टेक:- लेते ही जनम भूल गया जो वायदा किया है-2
बचपन में खेला-खाया फिर विषयों में फंस गया है।
1. जब आ गया बुढ़ापा तृष्णा ने घेरा,
कुछ भी ना जाए साथ, इकट्ठा जो किया है।
बचपन में …
2. काल बनाया जाल माया का प्यारे,
छूट सके ना जीव यत्न कितना किया है।
बचपन में …
3. फिरता है माया पीछे मारा है मारा,
माया को तूने धर्म-ईमान बना लिया है।
बचपन में …
4. मोह का है ऐसा संगल तोड़े ना टूटे,
सोचा ना तूने कुछ भी, पांव फंसा लिया है।
बचपन में …
5. मन के है पीछे लगकर विषयों में फंस रहा,
जपेआ ना नाम तूने प्रेम प्रभु से ना किया है।
बचपन में …
भजन के शुरू में आया जी, ‘जब आ गया बुढ़ापा तृष्णा ने घेरा, कुछ भी ना जाए साथ इकट्ठा जो किया है।’ बुजुर्ग अवस्था जब आती है तो इच्छाएं और बढ़ने लगने लगती हैं। हमने कह-कहकर देखा कि भाई! अब आप सेवा किया करो, सेवा करने का टाइम है, अल्लाह, राम का नाम जपा करो। कहते जी बिल्कुल ठीक है। हमने कहा फिर मालिक का नाम लिया करो, घर में मत टांग अड़ाओ, कहने लगे कि ठीक है। ठीक तो कह दिया लेकिन टांग वहीं की वहीं। कहना आसान है। कई सज्जन आए भी, सेवा में लगे भी, राम का नाम भी जपने लगे, पर मन पता है क्या कहता है कि अभी तो सेवा करवाने का टाइम था लेकिन अभी सेवा करने लग गए। ये कोई अच्छी बात है बिल्कुल गलत बात है।
तो भाई! ऐसा मन अंदर से भरमा देता है। ज्यों ज्यों बुजुर्ग होता है और सोचता है कि शायद धरती से सोना निकाल कर बच्चों को दे दूं तो शायद तगमा दे दें। पहले कौन सा दे दिया? सारी उम्र कमाया। दिन-रात कोल्हू वाले बैल की तरह जुटे रहे, अल्लाह, राम, मालिक के जो वचन थे उन पर अमल नहीं किया। सारी उम्र यूं ही गंवा दी और जब शरीर हिलने लगा तो कहता है कि पक्का राम का नाम जपूंगा, अब तो बैठकर सिर्फ भजन ही करूं गा पर मन कहां डगडग करता है, वो तो पहले भी जवान था और अब भी जवान है। कहता है कि नहीं, अभी तो तू सीखा है और अभी अगर तू सब कुछ छोड़कर बैठ जाएगा तो तेरी औलाद को तो कुछ मिलेगा ही नहीं।
फिर से लग जाता है, फिर से खो जाता है उनमें। तो एक अवस्था होती है वहां तक आप मेहनत करो, कमाओ, बच्चों को कमा कर दो, बाद का जो समय है अल्लाह, राम, मालिक की याद में लगाओ। तो ये तो सरकार ने भी निश्चित कर रखा है कि इस टाइम के बाद रिटायर। लेकिन रिटायर होकर भी ये सोचता है कि अब मैं चार गुणा कमाऊंगा। यानि चाहे वो नौकरी में है चाहे जमीन-जायदाद में उसके बच्चे कमाने लगे फिर उनको जाकर बताएगा कि ये बीज नहीं वो डालो। हमारे जमाने वो बीज हुआ करता था। धक्के से अपना तजुर्बा जो बताना है।
तो कहने का हमारा मतलब कि आज ऐसा समय है, ऐसा दौर है कि बुजुर्ग अवस्था में कहां तो अल्लाह, राम की याद में तड़पना चाहिए और कहां इंसान धन-दौलत, जमीन-जायदाद के लिए तड़पते नजर आते हैं। भाई! मालिक का नाम लो, सुमिरन करोगे तो ये भी तो आपकी औलाद के लिए अच्छा है। सुमिरन करोगे, भक्ति-इबादत करोगे तो कुछ न कुछ फल तो उनको भी जरूर मिलेगा, अगर आप उनका नाम लेकर उनके परथाए करते हैं। फल तो मिलना ही है वो आपको नहीं, उनको कुछ मिल जाएगा। पर इस तरीके से नहीं दूसरे तरीके से लोग दौड़ते रहते हैं। तो भाई! सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने जो भी वचन फरमाए हैं एक-एक अक्षर सच है।
‘जब आ गया बुढ़ापा, तृष्णा ने घेरा।’ इच्छाएं जाग उठी, अंदर इच्छाओं का मकड़ जाल फैल गया। ‘कुछ भी न जाए साथ इकट्ठा जो किया है।’ कि साथ कुछ नहीं जाएगा जो कुछ बनाया है यहीं छोड़ना है लेकिन फिर भी इच्छाएं नहीं भरती। ‘काल बनाया जाल माया का प्यारे, छूट ना सके जीव यत्न कितना किया है।’
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इस बारे में लिखा-बताया है-
कालबूत की हसतनी मन बउरा रे चलतुु रचिओ जगदीस॥
काम सुआइ गज बसि परे मन बउरा रे अंकसु सहिओ सीस॥
बिखै बाचु हरि राचु समझ मन बउरा रे॥
निरभै होइ न हरि भजे मन बउरा रे गहिओ न राम जहाजु॥
ये माया का सुनहरी जाल आज संसार में बिछा हुआ है, चारों तरफ लोग इसमें फंस रहे हैं और फंसे हुए ये लोग व्याकुल हैं, टैंशन में हैं, परेशान हैं और माया का दूसरा रूप ‘फिरता है माया पीछे मारा है मारा, माया को तूने धर्म ईमान बना लिया है’ जमीन जायदाद, रुपया पैसा ये माया का दूसरा रूप है। ये तो आप पढ़ते ही रहते है एक थोड़ी सी जगह के लिए किसान भाई ने दूसरे को खत्म कर दिया, बात सिर्फ दो चार फूट की थी। एक दुकान की दीवार के लिए आपस में झगड़ा हुआ और आदमी मर गए। मकान के लिए कितने आदमी खत्म हो गए। ये आप जानते हैं। कोई भी मकान कैसा भी है, बनाया तो इंसान का है बुरा मत मानना वो कोई आसमान से तो टपका नहीं जिसे दुबारा नहीं बनाया जा सकता पर अल्लाह राम का बनाया हुआ मकान यानि ये शरीर, इसे अगर खत्म आप कर दोगे तो क्या इसे आप दोबारा जिंदा कर सकते हो? फिर क्यों उनके लिए झगड़ते हो, जिन्हें बनाया जा सकता है? क्यों उनके लिए उनको खत्म क रते हो जिन्हें सिर्फ मालिक ही बना सकता है? क्यों ये समझ नहीं आती? क्यों ये अक्ल नहीं आती? आएगी कैसे? कोई आने देता नहीं।
आज वो भेड़ बन गए हैं और बताने वाले भेड़-चाल शुरू कर देते हैं तो लोग वैसे ही शुरू हो जाते हैं, अपने दिलो-दिमाग से अपने ख्यालो ंसे कोई काम नहीं लेते। तो भाई! जरा सोचिए, जो आप पाप, जुल्म, अत्याचार करते हैं थोड़े से मकान के लिए, छोटे-बड़े मकान के लिए या किसी भी चीज के लिए, ये सब यहीं धरा-धराया रह जाएगा। तो इसके लिए आप मालिक के बनाए मंदिर को क्यों ढा देते हो? मालिक के बनाए उस गिरिजाघर, गुरुद्वारा को क्यों खत्म करते हो जिसको मालिक ने स्वयं बनाया है? इसका कारण है माया, लोभ-लालच। लोभ-लालच के लिए इंसान बड़ी तिगड़मबाजी लड़ाते हैं। बहुत कुछ करते हैं, बड़ी ठग्गियां मारते हैं।
कई गुणा पैसा कमाते हैं। सोचते हैं कि कैसे पैसा दुुगुणा हो जाए, चार गुणा हो जाए और उस पैसे के लिए हर हद से गुजर जाते हैं, हर हद से गिर जाते हैं और भाई! पैसा किसी के साथ नहीं गया। हमारे कहने का मतलब ये नहीं कि कमाओ ना। कमाओ जरूर पर किसी के मुंह का निवाला छीन कर अपना पेट मत भरो। किसी को तड़पाके खाओगे तो यकीन रखो आप भी तड़प जाओगे। ऐसे-ऐसे लोग मिले जो अपने-अपने देश में धनाढ्यों में गिने जाते हैं पर तड़पते हुए, बेचैन। क्यों कि किसी को तड़पाके कमाया है तो चैन कहां से आएगा। दिखने में आपको लगता है कि वो बहुत सुखी हैं लेकिन हकीकत उससे बिल्कुल उल्ट है। बड़ी टैंशन रहती है उनको, बड़ी परेशानियां रहती हैं।
सुखी वही है जिसके अंदर आत्मिक संतोष है, आत्मिक शांति है, आत्मबल है और यह सब आता है- ओ३म्, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु, राम के नाम से। मैथड आॅफ मैडिटेशन, गुरुमंत्र, शब्द, कलमा के अभ्यास से, जिससे आत्मबल बढ़ता है, आत्मिक शक्तियां जागृत होती हैं और सार्इंसदान मानते हैं कि आत्मबल सफलता की कुंजी है। तो भाई! आत्मबल के लिए कोई टॉनिक नहीं है बाजार में। आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक, ऐलोपैथिक, किसी के पास ये दवा नहीं जिसको लेने से आत्मबल बढ़ जाएगा। वो तो बढ़ता है सिर्फ आत्मिक चिंतन से और आत्मिक चिंतन अल्लाह, राम के नाम से होता है।
‘मोह का है ऐसा संगल तोड़े ना टूटे,
सोचा ना तूने कुछ भी, पांव फंसा लिया है।’
मोह के बारे में बताया है-
बाल-परिवार का मान करने वाले आंखें खोल कर देंखे, बाल बच्चों को देखकर उनके मोह में फंस जाए और उनकी मीठी-मीठी बातों और कलोलों में मस्त होने की क्या कीमत है, वो एक रात के मेहमान की तरह है जिसने प्रभात होते ही चले जाना है। एक रात के लिए आकर यदि वो युगों की आस बांध ले तो फिजूल है। घर-मंदिर और सब संपत्ति वृक्ष की छाया की तरह बदल जाती है।
मोह की ऐसी बारीक जंजीरें हैं जिसने कि हर किसी को जकड़ रखा है पर ये नजर नहीं आती और ये जंजीर पहनाओगे तो साफ नजर आता है। हद से ज्यादा मोह-ममता यानि अपने बच्चों अगर वो गलती करता है उसे सही बताना, उनके लिए तड़पना, उनके लिए बेचैन रहना चाहे वे पूछें न पूछें। बुजुर्ग अक्सर ऐसा करते हैं। वो सोचते रहते हैं और आगे से उन्हें कोई रिस्पोंस नहीं मिलता, कोई उनका साथ नहीं देता। फिर भी वो तड़पते हैं। अपने बच्चों से प्यार करना, उन्हें अच्छा रास्ता दिखाना, अच्छे संस्कार देना ये मोह नहीं है, ये तो आपका कर्त्तव्य है और ये करना चाहिए। लेकिन हद से गुजर जाना कि मेरा बच्चा गलती कर ही नहीं सकता, वो ऐसा हो ही नहीं सकता, ये भ्रम पाल लेना एक तरह से बच्चों के लिए नुक्सानदायक है और इस मोह-जाल में इतना फंस जाना कि अल्लाह, राम को याद ही न करें, इसी को संतों ने मोह-ममता कहा है।
तो भाई! इसमें भी लोग बुरी तरह से फंसे हुए हैं। मालिक को छोड़ सकते हैं लेकिन मोह-ममता में पड़े हुए अपनी औलाद को नहीं छोड़ सकते, ये भी हमने आजमाया है, खुद महसूस किया है। जैसे यूपी में एक सज्जन ने हमें बताया कि लड़का उनका कहता है मुझे रोजाना पिताजी के दर्शन होते हैं और गुरु जी मुझे कहते हैं कि कार ले ले। तो वो बेचारे डरने लगे बच्चे से कि इसमें तो गुरु जी रोज आते हैं। शुरू उसने फिलीट से किया कि मुझे फिलीट लाकर दो, गुरु जी मुझे बताकर गए हैं। उन्होंने फिलीट लाकर दे दिए, फिर अच्छे-अच्छे कपड़े लाकर दे दिए, फिर मोटरसाइकिल लाकर दे दी। शायद थोड़ी जमीन भी गिरवी रख दी। जब कार की बात आई तो उधर अचानक वो सत्संग सुनने आ गए और हमने उस दिन ये ही कहा कि पाखंड बहुत करते हैं लोग। अल्लाह, राम तो सबके अंदर है।
वो किसी को ये डिमांड नहीं करता कि किसी को ये दो, किसी को वो दो। उन्होंने भी सुना और वो हमारे पास आए और कहने लगे कि गुरु जी, हमें वो (हमारा लड़का) रोजाना डराता रहता है कि अगर नहीं करोगे तो गुरु जी नुक्सान कर देंगे। तो हमने कहा- भाई गुरु जी को फिलीट पहन कर कोई उड़ारी मारनी है क्या? ये आपके बच्चे का ही किया -धरा है सब कुछ। जब उसको सामने बुलाया गया तो वो कांपने लगा कि गुरु जी मुझे माफ कर दो, मैं तो अपनी इच्छाएं पूरी करवाने के लिए कह देता था। दर्शन तो मुझे कभी हुए ही नहीं। पर अंधे मां-बाप उसकी बातें सुने जा रहे हैं।
तो ऐसे अंधे मां-बाप बहुत हैं वो तो एक था जो अपनी औलाद की सुनते हैं अल्लाह। राम, गुरु-परमात्मा को भी पल में छोड़ देते हैं। यकीन मानिए, ये बिल्कुल सच है, इसमें कोई झूठ नहीं है। होना तो ये चाहिए कि मोह-ममता छोड़ो, अल्लाह, राम से नाता जोड़ो। उनके प्रति जो आपका कर्त्तव्य है वो अदा करो, उनसे प्रेम करो लेकिन उनके प्रेम में अंधे होकर मालिक की तरफ से मुंह फेरोगे तो उनके लिए और आपके लिए दु:ख-दर्द चारों तरफ से आपको घेर लेंगे।
भजन में आगे आया-
‘मन के है पीछे लगकर विषयों में फंस रहा,
जपेया ना नाम तूने प्रेम प्रभु से ना किया’
इस बारे में लिखा, बताया है-
विषयों की प्रीत में जो, कि बारम्बार नर्क को ले जाने वाली है, ये मन दौड़कर जाता है और नाम व सतगुरु की प्रीत से जो कि सदा सुख देने वाली है, ये मन भागता है।
हमने ये भी आजमाया, ये देखा कि जो लोग गलत कर्म करते हैं, अंदर बुरे ख्याल हैं, उनको आगाह किया कि आपने वहां जाना ही नहीं। वह जगह बुरी है, भाई उधर नहीं जाना। राम का नाम जपो, अल्लाह, मालिक को याद करो। कहते जी ठीक है। पर सुई वहीं की वहीं, रहना वहीं का वहीं और फिर जब दुनिया में खिल्ली उड़ने लगी तो फिर पछताते हैं कि हमने वचन माना क्यों नहीं। अमल किया क्यों नहीं। तो ऐसे भी जीव संसार में पाए जाते हैं जो अमल करते ही नहीं, विषय-विकारों में अंधे हो जाते हैं। और विषय-विकार में जो अंधा हो गया, भाई-बहन, माता, बुजुर्ग कोई भी है, उम्र की कोई सीमा नहीं होती, ये मत सोचिए कि वो उम्र के साथ हट जाते हैं, सवाल ही पैदा नहीं होता। बल्कि ये बुरे ख्यालात, बुरे विचारात और बढ़ते हैं, वो रुकते नहीं। हां, तब रुकते हैं जब अपने पैरों पर अपने हाथों से कुल्हाड़ी लग जाती है।
तो भाई! विषय-विकार इंसान को बर्बाद करते हैं। मालिक की रहमत हो, मां-बाप अपने बच्चों को शुरू से ही अच्छे संस्कार दें और बुराइयों से परहेज करवाएं, चाहे बच्चे उनको रूढ़िवादी विचारों वाला बताएं, पर वो सही रहेंगे। जो सही हैं, जो गलत बात से अपनी औलाद को रोकते हैं, टोकते हैं, उनका ख्याल रखते हैं और जो खुला छोड़ देते हैं तो सब कुछ खुलम-खुल्ला और फिर दु:ख आता है, परेशानी आती है तकलीफ आती है तब रोते हुए हमारे पास आते हैं, चिट्ठियां भी लिखते हैं कि महाराज जी क्या करें? हमारे बेटे, बेटी ने ऐसा कदम उठाया कि हम कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं। तो क्यों नहीं पहले अमल करते? हमारी जो संस्कृति है उसे क्यों भूलते जा रहे हैं, हमारे जो बुजुर्गों के संस्कार हैं, उसे आप गुलामी क्यों समझते हैं? बच्चों को गलत काम से रोको तो वो सोचते हैं कि हमें गुलाम बना लिया है, हमारी आजादी छिन गई और जब सब कुछ बर्बाद हो गया तो फिर रोते हैं, तड़पते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? तो भाई! ये बहुत जरूरी है, आज विषय-विकारों में लोग अंधे हुए बैठे हैं, और उनका कोई दीन-ईमान नहीं, कोई रिश्ता नहीं है।
बस, उनकी भूखी निगाहें यही देखती रहती हंै, यही सोचते रहते हंै तो ऐसे भक्ति कैसे बनेगी? कैसे उन पे मालिक की दया-मेहर, रहमत बरसेगी? मालिक तो भेजता है दया-मेहर, रहमत के भंडार पर दामन फटा है, जितना आया है अंदर से निकल कर वापिस चला जाता है। वरना मालामाल अंदर-बाहर से हो जाएं, किसी चीज की कमी ना रहे। तो भाई? आज के युग में ये सोचने वाली बात है, गंभीरता से इस पर चिंतन होना चाहिए। मां-बाप बच्चों को आजादी तो दें पर हद से ज्यादा नहीं। ये कलयुग है, भयानक दौर है। बचपन से ही कंट्रोल रखिए। बड़े होकर बे-लगाम घोड़े को आप लगाम डाल नहीं सकते। जानकार घुड़सवार तो चाहे लगाम डाल दे, हर कोई नहीं।
कहने का मतलब कि पहले तो रोका-टोका नहीं लेकिन जब हद से बिगड़ गए फिर वो कहेंगे कि हमें तो कानून भी मदद देता है, फिर क्या कर लोगे। तो भाई! शुरूआत से ही, बचपन से ही औलाद को सिखाओ कि जो चीज गलत है, सरेआम बताओ कि इसका परिणाम गलत होता है। ऐसा नहीं करना चाहिए। बाकी आपकी इच्छा है। हमें तो जो महसूस हो रहा है, आज के युग में चल रहा है उसी के अनुसार आपको बता रहे हैं। तो भाई! जो चिट्ठियां आती हैं उनसे पता चलता है कि आज जमाने में, समाज में क्या हो रहा है। आप पढ़े-लिखे हैं या अनपढ़ हैं इससे हमें कोई लेन-देन नहीं हम तो आपको रिश्ते-नातों के प्रति जागरुक कर रहे हैं कि सही रहिए, सही भावना भरो, अपने बच्चों में अच्छे संस्कार भरो ताकि वो औलाद आपका नाम भी रोशन करे, अल्लाह- राम से जुड़कर आवागमन से भी मोक्ष-मुक्ति हासिल करे।
इस बारे में लिखा, बताया है-
‘मन के है पीछे लगकर विषयों में फंस रहा’
मन, नफ्ज, शैतान, बुराई की जड़ है। एक बुरा ख्याल देता है वो अच्छा नहीं लगा तो दूसरा तैयार रहता है। वो अच्छा नहीं लगा तो उससे अगले वाला तैयार है। तो इस तरह मन जालिम इंसान को भरमाता रहता है और उसे पश्चाताप भी नहीं करने देता। सरेआम पता हो कि बुरे से बुरे कर्म हो रहे हैं कि मैं छोड़ना चाहता हूँ फिर भी मन कहता है कि अरे छोड़, बाद में इकट्ठा ही माफी ले लेंगे, अभी लगा रह, बुरे कर्मों में। ठग्गी, बेईमानी, विषय-विकार, बाद में समय मिले न मिले और भोगना तो पड़ेगा ही जितना समय आप लगा रहे हो वो तो भोगना ही पड़ेगा। अल्लाह, राम माफ भी कर देंगे लेकिन लेने का देना पड़ता है। इंसान अपने बुरे कर्म की तुरंत माफी ले और अल्लाह, मालिक को याद करे तो बुरे कर्म जल जाते हैं।
आगे भजन में आया-
6. मानस जन्म को पाकर फायदा ना उठाया,
काल वगार है ढोए काम अपना ना किया है।
बचपन में …
7. करने को सच्चा सौदा पूंजी मिली है तुझको,
स्वासों का धन सब ही जुए में हार दिया है।
बचपन में …
8. ‘शाह सतनाम जी’ बताएं वायदा जो भूला,
जपना था एक नाम तो उसको भुला लिया है।
बचपन में …।।
भजन के आखिर में आया-मानस जन्म को पाकर फायदा ना उठाया, काल वगार ढोए काम अपना ना किया है। इंसान जो धंधा करता है एक तरह से वगार ढोना है। अगर आपको कोई आदमी कहे कि सारा दिन मेरे खेत में, दुकान में, दफ्तर में काम करो मैं आपको कुछ नहीं दूंगा तो हो ही नहीं सकता। हां, अगर आप किसी की चमचागिरी कर रहे हो या किसी को खुश करने के लिए, लेकिन उसके पीछे भी मकसद तो है ही। फिर भी कु छ न कुछ तो है ही, ये वगार तो नहीं लेकिन वो थोड़ी सी वगार लगती है कि हां, जी फलां आदमी ऐसा करने से खुश हो जाएंगे फिर मैं इतना फायदा ले लंूंगा। पर बिल्कुल भी न मिले तो आप करेंगे ही नहीं। कि मैं क्यों करूं, जब कुछ मिलेगा ही नहीं।
लेकिन हैरानी की बात है कि ऐसा आप सभी कर रहे हैं। ये जो कमाना, ठग्गी मारना, बेईमानी, रिश्वतखोरी, झूठ बोल-बोल कर इकट्ठा कर रहे हो ये वगार नहीं तो क्या है, क्या ये सब साथ ले जा सकोगे? क्या आपका अपना है? सारा दिन कमाते रहना और जैसे ही कमा लिया, बेटे पता नहीं कब छीन लेंगे? आप यूं मूर्ति की तरह बैठे रहेंगे और हस्ताक्षर अलग से करके देंगे। कहते हैं ले बेटा, तू ले ले, अपना बड़प्पन दिखाएंगे कि मैं खुद बांटकर दे रहा हूँ, वसीयत कर रहा हूँ। बढ़िया रहेगा अगर थोड़ा-बहुत अपने नाम रख लेगा तो। कहीं हवा में आकर सब कुछ बांट दिया तो बाद में न छोटा पूछेगा और न ही बड़ा पूछेगा, बीच में ही दुकान डालनी पड़ेगी और शरीर कुछ करेगा नहीं, फिर इधर-उधर देखेगा।
ये बहुत से बुजुर्गों के साथ होता है। शायद उन्होंने भी ऐसा ही किया होगा। बुजुर्गों ने आपको बना दिया, उनके जाने के बाद आपने कब्जा कर लिया तो आपका हो गया। आपके जाने की देर है आपकी औलाद कब्जा करने के लिए तैयार बैठी है। तो भाई! यहां हमेशा के लिए जो कुछ आप बनाते हैं वो सब आपका नहीं हो सकता, ये वगार ढोना है। तो ऐसा ख्याली पुलाव बनाना है। कई सज्जन तो ख्यालों से ही बनाते हैं, सपने में ही बनाते हैं बहुत कुछ। जिनके पास कार नहीं है वो सपने में कार पर सवार हैं, जिनको हवा की उड़ार का शौक है उनके अपने जहाज बन जाते हैं।
मन कहता है तू सो जा, मैं कोई समय नहीं लगाऊंगा, कौन सा फैक्ट्री में जाना है, मन ने अपने पास से ही बना देना है। आप को जहाज में बिठा, दिया आप उड़ रहे हैं, आंख खुलती है तो जहाज से चारपाई पर देखते हैं। जहाज से चारपाई! ये कैसे हो गया? इतनी ऊंचाई से इतना नीचे! फिर आंखे बंद कर लेते हैं क्योंकि जहाज से उतरने का किसका दिल करता है। वो नहीं सोचते कि मन ने कितना समय बर्बाद कर दिया। वो सपने में भी तो समय बर्बाद हो गया। तो ऐसे कई लोग दिन में सपने देखने लगते हैं।
एक शेख-चिल्ली का नाम मशहूर है, वैसे आज भी बहुत से शेख-चिल्ली हैं,बैठे-बैठे पता नहीं कहां से कहां पहुंच जाते हैं। ये बनाऊंगा, फिर वो बनाऊंगा, लेकिन फिर कोई बुला लेता है तो सोचता है कि मैं कहां बैठा था। यूं लगता है किसी और दुनिया से आया हो। तो शेख-चिल्ली की चर्चा आई तो आपको बताते हैं। उनका काम ही ये था कि कहीं भी रुक जाते और अपने विचारों के ख्याली पुलाव पकाना शुरू कर देते। तो एक बार वो कहीं खड़े थे। वहां एक साहूकार आया, उसने बुलाया तो वे ख्यालों से बाहर आए। वो कहने लगा कि भाई! ये मटका है तेल का भरा हुआ, इसे उठाकर मेरे घर तक ले जाओ मैं तुझे चवन्नी दूंगा। उस समय चवन्नी-अठन्नी का मूल्य बहुत ज्यादा होता था।
तो शेख-चिल्ली ने कहा ये तो बढ़िया है। हट्टा-कट्टा था। कहने लगा कि अपने को क्या पता चलेगा। सिर पर रख लिया और फिर हो गया शुरू ख्यालों में। इस चवन्नी से कहता में अण्डे लाऊंगा बहुत सारे। मुर्गे-मुर्गियां लाऊंगा, फिर मेरा धंधा शुरू हो जाएगा। हो गया शुरू, खरीदने थोड़ा ही जाना था। ख्यालों में बहुत से मुर्गे-मुर्गियां हो गई, अण्डे बिकने शुरू हो गए, मुर्गे, मुर्गियां बिकनी शुरू हो गई, बड़ा ही मालदार हो गया। फिर कहने लगा कि नहीं, ये बिजनेस छोटा है, थोड़ा बदलते हैं। गऊ लेकर आते हैं। बछडेÞ बेचेंगे। तो बेच दिया कौन सा सौदा होना था। मन ने ही बेचना था, मुर्गे-मुर्गियां बेचकर वो ला दिया पल में। फिर दूध बेचना शुरू कर दिया। पैसा बहुत हो गया। कहने लगा कि सब कुछ तेरे पास है लेकिन तेरी शादी नहीं हुई। अब अगर शादी हो तो बात बने। कौन सा लड़की ढूंढने जाना था।
मन जालिम ने शादी भी करवा दी। जैसा सोचा था वैसी ही औरत आ गई। पर थोड़ी गड़बड़ हो गई क्योंकि खुद के विचार भटकते रहते तो औरत भी गालियां देना शुरू कर देती, बच्चे भी हो गए। जा रहा है रास्ते में, हुआ कुछ नहीं। लेकिन ख्यालों में सब कुछ हो गया। तो बड़ा ही अच्छा घर बना लिया, महल बना लिया, बाल-बच्चे हैं, अच्छा बिजनेस है पर घरवाली से तंग है। उसकी रूखी आवाज से। वो बच्चों को कह रही है कि ले बेटा- ये खाना दे आ तेरे बाप को, कह दे कि गल ले। ऐसा कोई शब्द जो बुरा लगे। तो उसको गुस्सा आ गया, बहुत गुस्सा आया कि ये ऐसा बोलती है, कहता है कि आने दो उसे, बच्चा फिर नहीं आया वो आ गई थाली लेकर और कहने लगी कि लो जी खाना खा लो आप, मुंह पर तो थोड़ा कहना ही था। वो गुस्से से भरा बैठा था। कहने लगा कि अभी-अभी तू क्या बोल रही थी? उसने यूं ही टांग चलाई, गुस्से में आ गया कि ले जा अपनी थाली, मैं नहीं खाना खाऊंगा।
थाली बिखर गई पर असल में चलते-चलते भी टांग चला दी और जैसे ही टांग चलाई सिर का मटका पल में नीचे गिरा और टूट गया। साहूकार को गुस्सा आ गया। कहने लगा कि ओ शेख-चिल्ली ये क्या किया है? कहने लगा कि क्या किया है? साहूकर कहने लगा कि मेरा मटका फोड़ दिया। शेख-चिल्ली, कहने लगा कि सेठ जी! रहने दो, आपका ये मटका ही फूटा है, अरे! मेरा तो बना-बनाया घर-बार ही टूट गया। अभी-अभी यहां था लेकिन अब है ही नहीं। जो मेरा नुकसान हुआ उसका क्या होगा? तो भाई, ये ख्याली पुलाव मत पकाया करो। बैठे-बैठे पकाना शुरू कर देते हैं बन जाते हैं कुछ से कुछ। और जब निगाह मारते हैं तो कुछ भी नहीं। हम ये नहीं कहते कि ख्याल नहीं आने चाहिएं।
सोच तो आती ही है। इंसान सोच कर ही आगे की योजना अनुसार काम करता है। लेकिन सिर्फ सोचना ही काफी नहीं है। अच्छी सोच रखो, अच्छे विचार उठें, लेकिन कर्मयोगी बनो। कर्म भी करो तभी परिणाम सकारात्मक आएगा। सोचने से ही सिर्फकुछ नहीं बनने वाला सिवाय टैंशन के । ज्यादा सोचते रहना टैंशन को बुलावा देना है। दिमाग पर बोझ पड़ता है। तो वगार दिन-रात इंसान ढो रहा है। इससे तभी बचाव है अगर सुमिरन करे।
आगे भजन में आया-
‘करने को सच्चा सौदा पूंजी मिली है तुझको, स्वासों का धन सभी जुए में हार दिया है।’
पूंजी यानि कीमती स्वास अल्लाह, राम ने दिए हैं ताकि तू राम-नाम का वणज व्यापार करे और यहां-वहां दोनों जहानों में सच्चा सुख हासिल करे। इस बारे में लिखा, बताया है-
केवल नाम का धन ही निश्चल है और धन सब नाशवान हैं। इस धन को न आग जला सकती है, ना पानी बहा सकता है और ना ही चोर उचक्का चुरा सकता है।
एको निहचल नाम धनु होरु धनु आवै जाइ॥ इसु धन कउ तसकरु जोहि न सकई ना ओचका लै जाइ॥
राम-नाम का धन ही सच्चा है, जिसे ना आग, यहां तक कि चिता की आग भी नहीं जला सकती। धरती गला-सड़ा नहीं सकती। चोर उचक्का चुरा नहीं सकता, पानी बहा नहीं सकता और हवा उड़ा नहीं सकती बल्कि राम-नाम का धन जितना बढ़ाओगे उतना बढ़ता चला जाता है। जितना खर्चोंगे, उतना ही फायदा होगा। लेकिन इंसान मालिक के नाम का धन नहीं कमाता, दुनियावी काम-धंधों में लगा हुआ है। दुनियावी विषय-विकारों में लगा हुआ है।
भजन में आगे आया-
करने को सच्चा सौदा पूंजी मिली है तुझको,
स्वासों का धन सब ही जुए में हार दिया है।
कि सच्चा सौदा, ये किसी दीवारों का नाम नहीं है। कहीं आप सोचते हों कि सच्चा सौदा में आए हैं, ये कोई दीवारों का या अलग धर्म का नाम है, नहीं। बल्कि सच है अल्लाह, वाहेगुुरु, राम, सच्चा है उसका नाम और सौदा है कि अपनी बुराइयां दे जाइए, छोड़ जाइए और बदले में अल्लाह, वाहेगुरु का नाम ले जाइए। यही सौदा यहां होता है और यही सच्चा सौदा है कि अल्लाह, वाहेगुरु का नाम लो और अपनी बुराइयों की सौगंध खा जाओ, बुराइयां यहीं पर छोड़ जाइए कि मैं ये बुराइयां नहीं करुंगा तो अल्लाह, वाहेगुुरु का नाम आप पर जरूर असर करेगा। तो ये सच्चा सौदा करने के लिए मालिक ने स्वास दिए थे।
करने को सच्चा सौदा पंूजी मिली है तुझको, स्वासों का धन सब ही जुए में हार दिया है। और विषय-विकारों में लगा रहा, बुरे ख्यालों में लगा रहा और सब कुछ यहीं पर लुटा दिया। इस बारे में आगे लिखा है-
नाम ही सब कुछ है और नाम से ही सब कुछ है। जिन्होंने नाम को नहीं जाना या उसकी प्राप्ति नहीं की उन्होंने कुछ नहीं जाना। वो जुआरिए की तरह दोनों हाथ खाली करके, पल्ले झाड़कर चले गए, यानि दुनिया में अपनी स्वासों रूपी पूंजी बर्बाद कर गए
कहि कबीर किछु गुनु बीचारि॥
चले जुआरी दुइ हथ झारि।।’
भजन में आगे आया-
‘शाह सतनाम जी’ बताएं वायदा जो भूला,
जपना था एक नाम को उसको भुला दिया है।
सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज भजन के आखिर में अपने पाक-पवित्र वचनों में फरमाते हैं कि जो वायदा भूल गया उसे याद कर, ईश्वर का नाम जपना था। अरे! नाम का सुमिरन कर, फल जरूर मिलेगा। ये नहीं कि कुछ एक दिन सुमिरन करने से फल मिल जाएगा। कई बहुत जल्दबाज होते हैं। सुमिरन कुछ दिन करते हैं और फल बहुत ज्यादा चाहते हैं।
एक जमींदार भाई था उसे कोई फकीर मिल गया। उस जमींदार ने फकीर की सेवा की, तो फकीर को पता चला कि ये क्या चाहता है। वो जमींदार कहने लगा कि मुझे कोई मंत्र दीजिए कि मैं धनवान हो जाऊं। फकीर ने सोचा, है तो ये इसके लिए गलत, ये जल्दबाज है और मालिक का भी भक्त है तो इसे क्या दिया जाए। मंत्र दिया और एक लोहे का टुकड़ा दिया और कहा कि ये लोहे का टुकड़ा है तेरे पास। मंत्र का जाप करके ये कहना कि बन जा सोना। वो जमींदार कहने लगा कि ठीक है। तो वो सुमिरन करता रहा कि बन जा सोना, बन जा सोना। अब कुछ देर लगा रहा। पहले जमींदार भाइयों को गुस्से वाला बताते थे, क्योंकि सारा दिन पशुओं के साथ काम करना, सारा दिन उन पर डंडा बजाते रहना।
कुदरती ही गुस्सा आ जाता है क्योंकि दोपहर को भी जुटे रहना, पशुओं के पीछे। तो स्वभाव ही ऐसा हो जाता है। तो उसे थोड़ी देर के लिए गुस्सा आ गया कि सोना तो बन ही नहीं रहा। ये फकीर ने क्या दिया है? फिर भी गुस्से में कहता रहा कि बन जा सोना, बन जा सोना। लेकिन सोना नहीं बना। तो बिल्कुल गुस्से की भी इंतहा हो गई। कहता अरे, सोना नहीं बनता तो पीतल ही बन जा। इतने में वो झट से पीतल बन गया। अगर एक बार और कह देता कि सोना बन तो वो सोना बन जाता। अब मारे माथे पर हाथ। ये क्या गड़बड़ हो गई? फकीर कहता कि बस एक बार का कहना ही रहता था। अगर तू एक बार और बोल देता कि बन जा सोना तो ये सोना बन जाता। अब तूने पीतल कह दिया तो ये पीतल बन गया।
तो भाई! संत, पीर-फकीर बहुत समझाते हैं कि राम का नाम जपो, बुराइयों से बचकर रहो। कुछ देर सुमिरन करता है। हफ्ता तो पूरा सुमिरन करता है, फिर थोड़ा कम। कहता है कि जोर तो लगाया, मजा भी आया है लेकिन काम-धंधा इतना है। मन अंदर से बड़ी चापलूसी करता है। बड़े कायदे से हटाता है नाम से। कहता कि बड़ा काम है, अब सुमिरन तो किया, सतगुरु भी पूर्ण है, अहसास हो रहा है, सुमिरन धीरे-धीरे कर लेंगे, कोई बात नहीं, फिर सही। बस, थोड़ा सा झांसा दिया नहीं कि धीरे-धीरे वो वाली बात फिर बन नहीं पाती। रात को कहता कि रोटी कम खाऊंगा लेकिन ज्यादा खिला देता है। सुबह कहता है कि चार बजे उठूंगा लेकिन 6 बजे उठाता है। ये सब मन की ही करतूत है। कई सज्जन सोच कर बैठते हंै कि आज कुर्बानी कर दूंगा। आज तो सुमिरन करके दिखाऊंगा। दिखाएगा किसको? फल तो तुझको मिलेगा। फिर बैठता है, खुर्राटे तो मारता ही है फिर गर्दन नीचे लग जाती है।
फिर देखता है कि हैं, मैं तो सुमिरन कर रहा था। फिर मन कहता है कि कुछ न कुछ तो तूने किया ही है। ऐसे थोड़े ही खाली रहा। क्या हुआ अगर नींद आ गई, चलो नींद भी लेखे में लगी। खुद ही सब कुछ बन गया। अल्लाह, राम भी खुद ही बन गया, लेखे में भी खुद ही बना दिया। ये सारी मन की करतूत है। कैसे लेखे में लग गया? खुर्राटे तो खुर्राटे में ही गिने जाएंगे, अल्लाह, राम के नाम में नहीं। जो टाइम उसकी याद में लगाया वो जरूर उसकी याद में लगेगा। तो भाई! जब सुमिरन करने बैठते हो तो कम से कम नींद ना आए, ये ख्याल रखा करो। तो भाई! ये जो प्रैक्टीकल पीर-फकीर किया करते वो आपको बताया है। शाम के समय रोटी थोड़ी सी कम खाओ। जहां चार खाते हो वहां दो खाओ। थोड़ा कम खाओगे तो आलस्य कम आएगा। लेकिन आप तो ठूंस-ठूंस कर भर लेते हो।
तो अल्लाह, राम किधर से आएगा। वहां तो अन्न ही इतना ज्यादा भर गया है कि कोई जगह ही नहीं है खाली। उससे तो आलस्य ही आएगा, खुर्राटे ही आएंगे। ये तो चाहे डाक्टर से भी पूछ लो। ये सौ प्रतिशत सच है। हम झूठ नहीं कह रहे। अगर एक दिन उपवास रख लो। कोई ढोंग, पाखंड वाला उपवास नहीं, कि हम थोड़ा खाना कम से कम लेंगे, जितना कि आप ले पाओ या पानी पे ही रहेेंगे गर्म पर। तो ये आपका जो पाचन सिस्टम है, ये पेट भी आपके गुण गाएगा कि एक दिन मुझे भी खाली छोड़ा है। आप आठों पहर कुछ न कुछ चढ़ाए रखते हैं और वो बेचारा हजम करने में लगा रहता है तथा साथ में तौबा पे तौबा करता रहता है। कई ऐसे सज्जन भी हैं जो आठ पहर में खाते हैं लेकिन आठों पहर खाने वाले ज्यादा हैं। अभी समोसा खाया ऊपर से आइसक्रीम। हमने कहा कि गला खराब नहीं होता, तो कहते कि नहीं जी, हमारे तो सब चलता है। तो फिर नाम का सुमिरन कहां से होगा? हमें कोई आपके खाने से एलर्जी नहीं है।
आप जितना मर्जी खाओ। पर अगर रूहानियत की बात लेकर चलें, सूफियत की बात लेकर चलें, अल्लाह-राम से लिव जोड़ने की बात लेकर चलें तो हमें ये बताना पड़ रहा है कि आप भोजन पे कंट्रोल रखिए और एक दिन उपवास रखें या बहुत कम खाएंगे तो यकीन मानिए सुमिरन में ध्यान लगाना चाहोगे तो ध्यान अधिक जमेगा और एक लगन, तड़प सी बन जाती है तथा साथ में तंदुरुस्ती भी आती है। ये बात आप डॉक्टरों से भी पूछ कर देख लो जो इसके स्पेशलिस्ट हैं। ये सार्इंस के अनुसार भी सही है कि एक दिन आप कम से कम अपने शरीर को ठीक रखने के लिए सफाई करने का एक मौका देते हैं। तो भाई! ये ही सच्चे मुर्शिदे-कामिल शाह सतनाम जी महाराज फरमाते हैं कि जो वायदा किया था मालिक से कि तेरा नाम जपूंगा वो भूल गया है, खाने-पीने में मस्त है। तो भाई! खाने-पीने में ही मस्त मत हो, सुमिरन करो, खाओ-पीओ लेकिन जो जायज है, जो सही है। यानि शराब, अंडा, मांस मत खाओ, नशे मत करो। ये आपके जीवन को तबाह कर देते हैं। ये वैज्ञानिक लोग भी मानने लगे हैं कि हमारा शरीर शाकाहारी शरीरों में आता है और धर्मों में तो बहुत पहले से रोका गया है।
‘मांस मछुरिया खात है, सुरा पान के हेत।
ते नर जड़ से जाएंगे, ज्यों मूरी का खेत॥’
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल॥
जो बकरी को खात है, ताका कौन हवाल।।
कबीर जी कहते हैं कि बकरी घास-फूंस खाती है। उसके लिए भी उसको बख्शा नहीं गया बल्कि उसकी खाल, उसका चमड़ा उल्टा करके उतार लिया। कहते हैं कि जो बकरियों को खाएंगे उनका हाल क्या होगा ये अल्लाह, राम जानें तो भाई! संत, पीर-फकीरों ने रोका है, वैज्ञानिक भी बता रहे हैं। तो बुरा खाना नहीं खाइए, अच्छा खाना खाओ और मालिक का नाम जपकर बनाओ ताकि सारे घर में मालिक की याद आए।
सुमिरन करो ताकि आवागमन से मोक्ष-मुक्ति मिले, यहां रहते हुए आप स्वर्ग-जन्नत से बढ़कर नजारे ले सकें, रूहानी तंदुरुस्ती, ताजगी मिले, अंदर वो सरूर, वो नशा, वो मस्ती मिले जो एक बार चढ़ जाती है कभी उतरती नहीं। ये सब संभव है। इसके लिए ना पहनावा छोड़ो, ना बोली बदलो, ना अपना काम-धंधा छोड़ो। बस बुरे कर्म करना छोड़कर अच्छे कर्म करो और राम का नाम जपो तो मालिक की दया-मेहर, रहमत आप पर जरूर बरसेगी।
नामचर्चा की समाप्ति के बाद व्यवस्थित तरीके से लाईनों में बैठकर लंगर-भोजन ग्रहण करती हुई साध-संगत।
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