भाग्य के निर्माता हम स्वयं ही हैं | We are the creators of luck

जिंदगी में कई बार कुछ ऐसा हो जाता है जिसका असली कारण जानना हमारी बुद्धि से परे होता है। कहीं बंदूकों से होती गोलियों की बौछार के बीच से भी एक इंसान बच निकलता है तो कभी एक कांटे का चुभना भी किसी की मृत्यु का कारण बन जाता है। कोई व्यक्ति दिन-रात मेहनत करके भी दो जून की रोटी को तरसता है, तो कोई बैठे-बिठाए किसी खजाने का वारिस बन जाता है। कोई बेकसूर होते हुए भी सजा भुगतता है तो कोई हजार पाप करके भी मौज लेता है।

एक मामले में तो सबूत पक्ष में होते हुए भी एक निर्दोष को कलंकित होना पड़ा और ऐसे बेकसूर और भी कई हो सकते हैं।

शायद बेकसूर होते हुए भी वह सलाखों के पीछे हों।

ऐसी तमाम घटनाओं को देखकर कहा जा सकता है कि हमारे जीवन और भाग्य की डोर हमारे हाथ में नहीं बल्कि कहीं और ही है। जरूर भाग्य नाम की कोई चीज है जो हमारे जीवन को संचालित करती है। पर क्या भाग्यवाद का सिद्धांत सच है- यह जानने से पहले यह पता लगाना चाहिए कि आखिर भाग्य का निर्माता कौन है? यदि ईश्वर ने बनाया होता तो सभी का भाग्य इतना अलग-अलग क्यों होता? वह निष्पक्ष, समदृृष्टा पक्षपाती कैसे हो सकता है? शास्त्रों के अनुसार, मनुष्य के कर्म ही उसके भाग्य का निर्माण करते हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण में कहा भी गया है

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं.
ना भुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि।

अर्थात मनुष्य जो कुछ अच्छा या बुरा कार्य करता है, उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है। अनन्त काल बीत जाने पर भी कर्म, फल को प्रदान किए बिना नाश को प्राप्त नहीं होता। अच्छे कर्म पुण्य और बुरे कर्म पाप कहलाते हैं। पुण्य का परिणाम सुख तथा पाप का परिणाम दु:ख होता है।

गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीरामचरितमानस के माध्यम से कहते हैं

कर्म प्रधान विस्व करि राखा,
जो जस करहि सो तस फलु चाखा।
काहु न कोउ सुख दु:ख कर दाता,
निजकृत कर्म भोग सबु भ्राता।

यानी कर्म रूपी बीज से ही भाग्य रूपी वृक्ष उत्पन्न होता हैं। जैसे एक अस्वस्थ बीज से कभी भी स्वस्थ वृक्ष का जन्म नहीं होता, इसी प्रकार बुरे कर्मों से श्रेष्ठ भाग्य उत्पन्न नहीं हो सकता। करनी-भरनी का नियम ही मनुष्य के कर्म व भाग्य का समीकरण बनाता है। केवल हम ही अपने बचपन से नहीं सुन रहे बल्कि सदियों से कहा, दोहराया जा रहा है कि ’कर्म रेख नहीं मिटे, करो कोई लाखों चतुराई’, ‘विधि का लिखा को मेटन हारा’ आदि आदि।

जरूर कुछ ऐसा है जो विश्वास दिलाता है कि कोई रेखा ऐसी होती हैं, जो अपना फल दिये बिना मिटती नहीं। जो लोग इस सिद्धांत को अस्वीकार करते हैं, वे इस प्रश्न का उत्तर देने से बचते हैं कि कई बार बच्चा जन्मजात रोगी अथवा विकलांग क्यों होता है? कुत्ते कार में क्यों घूमते हैं तो मेहनत के बावजूद कुछ लोग कष्ट में क्यों रहते हैं?

निस्संदेह ईश्वर की सबसे उत्तम रचना मनुष्य ऐसी किसी विवशता का गुलाम नहीं है। अगर परिस्थितियां इंसान को गढ़ती हैं, तो वह भी परिस्थितियों को गढ़ने की सामर्थ्य रखता है। महान विद्वान आचार्य पणिनि का जीवन ऐसे ही संकल्पयुक्त पुरूषार्थ का उदाहरण है। वह बचपन में एक कमजोर बुद्धि के बालक थे। पढ़ा हुआ कोई भी पाठ उन्हें याद नहीं रहता था। एक बार उनके गुरु जी ने उनके हाथ की रेखाओं को पढ़ने लगे। बालक पाणिनि ने पूछा, ‘गुरुजी! आप क्या ढ़ूंढ रहे हैं?’ गुरू ने कहा, ‘विद्या रेखा।’ उत्सुकता भरे स्वर में पाणिनि ने पूछा, ‘मेरे हाथों में विद्या रेखा है न, गुरु जी?’ पाणिनि के सवाल से गुरुजी उदास हो गए।

उन्होंने कहा, ‘नहीं बेटे, तेरे भाग्य में विद्या नहीं है। तुम कभी नहीं पढ़ सकोगे।’

पाणिनि यह सुनकर बहुत विचलित हुए। वे झट से एक छुरी उठा लाए और दृढ़ शब्दों में बोले, ‘मैं अवश्य पढ़ूंगा। अपने हाथ की रेखाओं को बदल डालूंगा। आप मुझे बताइए विद्या की रेखा कहां होती है?’ बताए गए स्थान पर उन्होंने चाकू से एक लकीर खींच दी। इसके बाद अपने वास्तविक जीवन में भी मेहनत, लगातार अभ्यास से प्रकाण्ड पंडित बने।

यह सच है कि एक साधारण मनुष्य को पाणिनि जैसे उदाहरण अव्यवहारिक लग सकते हैं। उसका परास्त मनोबल एक ऐसे प्रभावशाली सूत्र की तलाश करता है जिसे वह अपने जीवन में लागू कर सके और जिसके आधार पर वह बड़ी आसान से अपने बिगड़े भाग्य को संवार सके। ऐसे व्यावहारिक और प्रभावी सूत्र को मानव जाति के सामने हमारे महापुरूषों ने उजागर किया है।

योगीराज श्रीकृष्ण जी पवित्र गीता में कहते हैं

‘ज्ञानग्नि: सर्वकर्माणि भस्मासात्कुरूते तथा’ अर्थात् तत्वज्ञान रूपी अग्नि सभी कर्मों को जला देती है। साधक के सभी कर्म संस्कार इस अग्नि में समिधा रूप में स्वाहा हो जाते हैं।

अब जब कर्म-बीज ही जल गए तो उनसे भाग्य का अंकुर कैसे फूटेगा?

अत: निरंतर ध्यान-अभ्यास हमारे भाग्य का पुनर्निर्माण करता है जो विपरीत स्थितियों के बावजूद आगे बढ़ता है। दैदीप्यमान सूर्य की भांति प्रकाशित होता है। आओ हम गीतकार के उस आदेश को स्मरण करें जिसमें उसने कहा है- फल की कामना के बिना कर्म करते रहो! करते रहो!!

कर्म सिद्धांत बहुत गहरा है, बस केवल इतना ही जान लिया जाए ‘बिन किया लागे नहीं, किया न बिरथा जाइ।’ सृष्टि
जगत की रचना जीव की संरचना से ही जीव कर्म करता आया है।

हजारों-लाखों वर्षों के कर्म जीवात्मा के साथ जुड़े हुए हैं। उन्हें संचित कर्म कहा जाता है। जीवात्मा मनुष्य शरीर में ही कर्मों का भुगतान कर सकती है और नए कर्म करने के अधिकार भी हैं। जब तक जीवात्मा कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो जाती, जीव का जगत में आना-जाना (मरना-जन्मना) चलता रहता है।

परमेश्वर रूप गुरु मिले, तो उनके बताए सद्मार्ग व राम-नाम की भक्ति के द्वारा जीव कर्मों से नि:हकर्म हो सकता है। ऐसा ही ईश्वर का सिद्धांत है और धर्म भी यही कहते हैं।
-डा. विनोद बब्बर

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