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सुनहरी छटा का पर्व है बैसाखी

बैसाखी पर्व देश का परम्परागत हर्षोल्लास, उमंंग एवं जोश से परिपूर्ण भाईचारे एवं एकता का संदेशवाहक है। यह पर्व खुशी और दर्द दोनों पहलुआें को अपने भीतर समेटे हुए है। बैसाखी उतर भारत का एक प्रसिद्ध त्यौहार है और विशेषकर पंजाब में पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन पंजाब में विशाल मेला लगता है। इस दिन की छटा तो बस देखने लायक होती हैं। समूचा पंजाब खुशियों, मेलों व उत्सवों में सराबोर हो जाता है। हर परिवार का सदस्य नये व चटकीले रंगों के कपड़े पहन नाच-गाने में व्यस्त हो जाता है। किसान भंगड़े की लय और ढोलक की थाप पर अपने-अपने खेतों में थिरक उठते हैं। वे अपनी सुनहरी फसलों को लहलहाते हुए देखकर बोल उठते हैं, ‘ओ जट्टा, आई-बैसाखी’ और यह स्वर खेत-खलिहान एवं गांवों के हर गली-कूचे में मुखरित हो उठता है।

बैसाखी का त्यौहार आमतौर पर 13 अप्रैल को मनाया जाता है, लेकिन हर 36 सालों में एक बार 14 अप्रैल को त्यौहार मनाया जाता है। पंजाब के खुशहाल लोग भव्यता और उत्साह के साथ जश्न मनाते हैं। बैसाखी उत्सव का हाईपॉइंट पारंपरिक भांगड़ा और गिद्दा नृत्य का प्रदर्शन अब केवल पंजाब में ही नहीं, बल्कि उत्तर भारत के कई अन्य प्रांतों में भी पूर्ण उल्लास के साथ मनाया जाता है। सौर नववर्ष या मेष संक्रांति के कारण पर्वतीय अंचल में इस दिन मेले लगते हैं। लोग श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं तथा उत्तर-पूर्वी सीमा के असम प्रदेश में भी इस दिन ‘बिहू’ का पर्व मनाया जाता है।

‘बैसाखी’ पर्व का असली स्वरूप तो पंजाब के गांवों में ही देखने को मिलता है, क्योंकि पूरा वर्ष वहां केकिसान भाई, अनाज व समृद्धि वाले इस पर्व का बेसब्री से इंतजार करते हैं। विभिन्न रंगों की रंग-बिरंगी पगड़ियां पहने पुरुष व तिल्ले-गोटे की चुन्नियां ओढ़े युवतियां सलवार-कमीज में ऐसी सजती हैं कि मानों धरा का समूचा वैभव-उल्लास व खुशियां उनके इर्द-गिर्द ही हों। यह पर्व राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधने वाला पर्व है, जिसके प्रति हर वर्ग की अपार श्रद्धा है।

सामाजिक दृष्टि से देखें तो राज्य पंजाब देश का मुख्य कृषि प्रधान प्रांत है। जहां धान, गेहूं की पैदावार काफी अधिक मात्रा में होती है। अत: इस क्षेत्र के अनेक लोगों की आजीविका खेती से ही जुड़ी है। यही कारण है कि जब भी रबी की फसल (चना, गेहूं, सरसों आदि) पककर तैयार होती है, तब यहां पर उमंग और उत्साह का माहौल बन जाता है।

बैसाखी पर्व पर यह सभी लोग मिलकर अच्छी फसल होने की खुशी को एक-दूसरे से बांटते हैं। इस पर्व पर भंगड़ा और गिद्दा डाला जाता है। वास्तव में इन नृत्यों का भाव यही होता है कि सालभर की कड़ी मेहनत के बाद अच्छी फसल के रूप में जो सुपरिणाम मिला, अब उसकी कटाई के बाद सारी थकान मिटाकर आने वाले मौसम के लिए तन और मन को एक नई ऊर्जा से भरा जाए। ऐसा करके वे प्रसन्नता को इस अवसर पर प्रकट करते हैं।

इस प्रकार बैसाखी मूलत: नई फसल (रबी) की कटाई का उत्सव है। समय बीतने के साथ कुछ धार्मिक व सामाजिक परम्पराएं भी जुड़ गई हैं। इसीलिए समाज के सम्पन्न वर्ग के साथ ही कमजोर और निर्धन वर्ग के लोग भी इस अवसर पर शामिल होकर खुशियों का आदान-प्रदान करते हैं। पर्व की वैज्ञानिक दृष्टि यही है कि यह पर्व अप्रैल माह में मनाया जाता है, तब समय ग्रीष्म के आगमन और शीत ऋतु की समाप्ति की ओर होता है। नॉर्मल तापमान होने से पेड़-पौधे फलते-फूलते हैं। प्राणी-जगत भी नई ऊर्जा से भर जाता है। यही कारण है कि देश के अलग-अलग प्रांतों में यह त्यौहार अलग-अलग रूप में मनाया जाता है।

कृषि उत्सव है बैसाखी

बैसाखी पर पंजाब में गेहूँ की कटाई शुरू हो जाती है। गेहूँ को पंजाबी किसान कनक यानी पीला सोना मानते हैं। यह फसल किसान के लिए सोना ही होती है, जिसमें उनकी मेहनत का रंग दिखायी देता है। यही कारण है कि चारों तरफ लोग प्रसन्न दिखलायी देते हैं और लंगर लगाये जाते हैं।

बैसाखी त्यौहार अप्रैल माह में तब मनाया जाता है, जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। यह एक खगोलीय घटना है, जो 13 या 14 अप्रैल को होता है। इस समय सूर्य की किरणें तेज होने लगती हैं, जो गर्मी के मौसम का आगाज करती हैं। इन गर्म किरणों के प्रभाव से जहां रबी की फसल पक जाती हैं, वहीं नरमा-कपास और खरीफ की फसलों का मौसम शुरू हो जाता है। अब जिस देश की बुनियाद ही खेती पर टिकी हो, वहां इसका एक उत्सव तो बनता है। यही कारण है

कि इस तिथि के आसपास भारत में अनेक पर्व-त्यौहार मनाए जाते हैं, जो वस्तुत: कृषिगत त्यौहार ही हैं। खेती-बाड़ी आज भी भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद है और खेती के लिए सूर्यातप और अनुकूल मौसम का क्या महत्त्व है, इससे आज कोई अनजान नहीं है, क्योंकि, फसल के लिए बीज अंकुरण, पौध विकास और उसके पकने में ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस लिहाज से बैसाखी को ‘खेती का पर्व’ भी कहें तो गलत नहीं होगा। किसान इसे बड़े आनंद और उत्साह के साथ मनाते हुए खुशियों का इजहार करते हैं।

ऐतिहासिक घटना

सिखों के दसवें श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने बैसाखी के दिन ही आनंदपुर साहिब में वर्ष 1699 में खालसा पंथ की नींव रखी थी। ‘खालसा’ खालिस शब्द से बना है, जिसका अर्थ शुद्ध, पावन या पवित्र होता है। खालसा-पंथ की स्थापना के पीछे श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज का मुख्य लक्ष्य लोगों को तत्कालीन मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्त कर उनके धार्मिक, नैतिक और व्यावहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाना था।

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