Human mistake or what? Many questions arise from Uttarakhand's Chamoli tragedy - Sachi Shiksha

बीते 7 फरवरी को चमोली जनपद (उत्तराखंड) में नंदादेवी बायोस्फीयर क्षेत्र में ऋषिगंगा में आई जलप्रलय ने जून 2013 में केदारनाथ में आई भयंकर आपदा की पुनर्रावृति करवा दी। चोराबाड़ी ताल के टूटने के बाद जो हालात उस समय हुए थे, वैसा ही मंजर यहां भी देखने को मिला। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि 15 से 20 मिनट में ही उमड़े सैलाब से ही जानमाल का बड़ा नुकसान हुआ है। वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय क्षेत्र में हैंगिंग ग्लेशियर की भरमार है।

जिनका समय-समय पर अध्ययन किया जाना जरूरी है। रौंठी पर्वत से हुए भूस्खलन व हैंगिंग ग्लेशियर के टूटने से त्रषिगंगा में एक साथ टनों पत्थर, मिट्टी व बर्फ के मिलने से सैलाब उमड़ा, जिसने रैंणी समेत आसपास के क्षेत्र में भारी तबाही मचाई।

केदारनाथ आपदा के बाद चोराबाड़ी ग्लेशियर का गहन अध्ययन करने वाले व वाडिया संस्थान से सेवानिवृत्त वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक डा. डीपी डोभाल का कहना है कि केदारनाथ आपदा व ऋषिगंगा में आई जलप्रलय एक जैसी हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि केदारनाथ आपदा में तबाही बहुत बड़े स्तर पर हुई, क्योंकि लगातार बारिश के कारण मंदाकिनी समेत अन्य नदियों का वेग पहले से तेज था। ऐसे में मंदाकिनी में भारी मलबा आने से उस वेग को कई गुना अधिक रफ्तार दे दी, जो तबाही का कारण बना। जबकि ऋषिगंगा में भी बहुत अधिक ऊंचाई से चट्टान व हैंगिंग ग्लेशियर टूटकर गिरे, जिसने उसके वेग को रफ्तार दी। मलबे के साथ पानी कई फीट ऊंचाई तक उठा।

धौलीगंगा को भी मलबे से लील लिया और तेजी से आगे बढ़ता रहा। लेकिन जैसे-जैसे नदी का स्पान बढ़ता रहा, मलबे का वेग कम होने लगा और अलकनंदा में समाते ही मलबे की रफ्तार एक दूरी के बाद सामान्य हो गई। डा. डोभाल के अनुसार, हिमालय क्षेत्र में हैंगिंग ग्लेशियर की भरमार है। साथ ही यहां कई झील व छोटे-छोटे तालाब सक्रिय हैं, जिनकी नियमित मॉनीटरिंग की जरूरत है।

ग्लेशियर से बनी झील व ताल बनते व टूटते रहते हैं। दो वर्ष पूर्व भी चोराबाड़ी के समीप भी नई झील बनने की बात सामने आई थी। लेकिन यह ग्लेशियर का जमा पानी था। डा. डोभाल के अनुसार जलवायु परिवर्तन का असर मध्य व उच्च हिमालय पर बहुत तेजी से पड़ रहा है, इसे ध्यान में रखते हुए वहां के हालात पर नजर रखने की जरूरत है। साथ ही संवेदनशील जगहों पर अलार्म सिस्टम को विकसित करना होगा।

उत्तराखंड के चमोली की तपोवन जल विद्युत परियोजना के बैराज साइट में बने दलदल में कई लोगों के दबे होने की आशंका है, लेकिन अभी तक यहां लोगों की तलाश नहीं की जा सकी है। हालांकि पहाड़ी राज्यों में ऐसी दुर्घटनाओं की संभावना हमेशा से ही रही है। नि:संदेह दुर्घटना की पीड़ा अनेक परिवारों को ऐसा घाव दे गई, जो शायद ही कभी भर पाए। स्तुत: चमोली आपदा एक चेतावनी है कि हम अपनी विकास प्राथमिकताओं को दुरुस्त करें और यह पारिस्थिति की दृष्टि से संवदेनशील क्षेत्रों के सतत विकास में हमारी अक्षमता को भी दर्शाता है।

यह उत्तराखंड की नदी घाटियों में अनियंत्रित निर्माण के विरुद्ध भी एक चेतावनी है। सरकार को अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करनी होंगी तथा आवश्यकता के अनुसार नीतियां बनानी होंगी। सरकार को इस क्षेत्र की निगरानी पर अधिक संसाधन लगाने होंगे ताकि इस क्षेत्र में हो रहे बदलावों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त हो सके। सरकार को इस मामले में विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों को भी शामिल करना होगा जो हिमालय क्षेत्र में पारिस्थितिकीय समस्याओं का मूल्यांकन करे, वर्तमान विकास मॉडल पर पुनर्विचार करे।

इसके संदर्भ में अध्ययन करे तथा इन विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों को निर्णय और नीति निर्माण में भी शामिल किया जाए। यदि हम ऐसी आपदाओं पर ध्यान नहीं देंगे तो भविष्य में ऐसी घटनाएं और देखने को मिलती रहेंगी। इसे मानवीय भूल कहें या फिर ईश्वर द्वारा मानवीय भूलों को सुधार करने का एक तरीका, लेकिन इसका हश्र बड़ा दु:खदाई है। चमोली दुखांत में मारे गए व लापता लोगों के पीड़ित परिवारों के प्रति गहरी संवेदनाएं।

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