Satguru ji made his disciple realize the mistake - Experiences of Satsangis

सतगुरु जी ने अपने शिष्य को गलती का अहसास करवाया
-सत्संगियों के अनुभव पूजनीय सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज का रहमो-करम प्रेमी सुरजाराम पुत्र श्री सरदारा राम गांव करंडी जिला मानसा से पूज्य शहनशाह मस्ताना जी महाराज के एक अनोखे करिश्मे का वर्णन इस प्रकार करता है :-

सन 1958 की बात है, उस समय डेरा सच्चा सौदा में मकानों की चिनाई की सेवा चल रही थी। हमारी ड्यूटी पूज्य शहनशाह मस्ताना जी की हजूरी में ही होती थी। एक दिन पूज्य शहनशाह जी ने मुझे तथा साधु गोबिन्दराम को बाजार में से संतरे लाने का आदेश फरमाया। पूज्य शहनशाह जी ने फरमाया, ‘‘सेवादारों को संतरों का प्रसाद बांटेंगे।’’ हुक्म मिलते ही मैं तथा साधु गोबिन्दराम दरबार से पैसे लेकर संतरे खरीदने के लिए सरसा शहर में चले गए। हमने अच्छे-अच्छे संतरे देखकर पचास किलो खरीद लिए। दुकानदार ने संतरे तोल दिए तथा एक बड़े बोरे में डाल कर बाँध दिए।

जब संतरे बांध लिये तो मैंने साधु गोबिन्दराम को कहा कि अपने से एक गलती हो गई है। संतरे देखे ही नहीं कि मीठे हैं कि खट्टे। इतना कहते हुए मैंने एक संतरा बोरे में से निकाल लिया तथा उसे फोड़ कर दो हिस्से कर लिए। मैंने साधु गोबिन्दराम को आधा संतरा देने के लिए उसके आगे किया। उसने कहा कि मैं तो नहीं लेता। मैं अपने मन में सोचने लगा कि यह मेरी गलती है। अगर मैंने खाकर ही देखना था तो तुलवाने से पहले देखना था। मैंने जो संतरा फोड़ा था, वह तो डेरे का संतरा था। मैं इस गलती के लिए अन्दर ही अन्दर पश्चाताप कर रहा था। साधु गोबिन्दराम भी अन्दर से मेरे से नाराज था कि इसने डेरे का संतरा क्यों फोड़ा।

ऊपरले मन से उसने मुझे कहा कि तू खा ले। मैंने खा लिया। संतरा मीठा था। इसलिए मैं खुश हो गया कि संतरे मीठे हैं। हम वह संतरे एक घोड़ी पर लादकर डेरा सच्चा सौदा दरबार में ले आए। मैंने पूज्य सतगुरु जी के हुक्म से वह संतरे गोदाम में रख दिए। अगले दिन बेपरवाह सार्इं जी ने मुझे तथा कुछ अन्य सेवादारों को मुखातिब करके फरमाया, ‘‘वरी संतरे! संतरे लाओ, सेवादारों को प्रसाद देवें।’’ हम वह संतरे टोकरियों में डालकर पूज्य शहनशाह जी की हजूरी में ले आए। एक सेवादार ने टोकरी उठाई तथा पूज्य सतगुरु जी ने सभी सेवादारों को एक-एक संतरे का प्रसाद दिया।

मैंने प्रसाद लेने के लिए मिट्ठडेÞ सार्इं जी के आगे हाथ बढ़ाए तो पूज्य शहनशाह जी मेरी तरफ बिना देखे आगे चले गए यानि मुझे छोड़ गए। दूसरी बार मैंने फिर बेपरवाह शहनशाह जी के आगे हाथ फैलाए तो सतगुरु जी मुझे छोड़ कर फिर आगे निकल गए। शहनशाह मस्ताना जी महाराज ने सभी सेवादारों को प्रसाद बाँट दिया। उसके उपरान्त भी काफी संतरे बच गए थे।

पूज्य शहनशाह जी ने प्रेमी मोहन को आदेश फरमाया, ‘‘जो संतरे बच गए हैं, इनको अन्दर रख दो।’’ मैंने फिर तीसरी बार पूज्य शहनशाह जी के आगे हाथ फैलाते हुए विनती की कि मिट्ठडेÞ सार्इं जी! मैं प्रसाद से रह गया, मुझे प्रसाद दो। घट-घट व पट-पट की जानने वाले सतगुरु जी ने फरमाया, ‘‘तेरा तूने खा लिया है। तूने तो कल ही खा लिया था। तुमने अपने हाथ का खाया है। फकीर के हाथ का प्रसाद खाता तो पता नहीं तेरे को क्या बख्श देते।’’ मैं उस समय को पछता रहा था पर वह समय अब हाथ नहीं आ सकता था। पूज्य शहनशाहजी ने मेरी तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया और आगे चले गए। आज भी जब वो बात याद आती है तो पश्चाताप होता है।

कोई भी काम करने से पहले इन्सान को सोच-विचार अवश्य कर लेनी चाहिए। बाद में तो पश्चाताप के बिना कुछ भी हाथ नहीं आता। पूर्ण सतगुरु घट-घट व पट-पट की जानने वाला होता है। वह बिना बताए ही सब कुछ जान लेता है। वह तो हर इन्सान के दिलों की बात को जानता है। उससे कुछ भी छुपा हुआ नहीं। परन्तु मालिक-सतगुरु को पर्दा मंजूर होता है। वह किसी का पर्दा उठाता नहीं, बल्कि पर्दा रखता है।

कोई जवाब दें

Please enter your comment!
Please enter your name here
Captcha verification failed!
CAPTCHA user score failed. Please contact us!