रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा
‘जिसने जपा नाम वो, लाभ है उठा गया।
जिसने जपा नाम ना, जन्म गंवा गया, जन्म गंवा गया।।’
मालिक की साजी-नवाजी प्यारी साध-संगत जीओ, आप बहुत बड़ी तादाद में दूर-दराज से चलकर आए हैं, अपने कीमती समय में से समय निकालकर सत्संग पंडाल में आप लोग पधारे हैं। कलियुग में ओ३म, हरि, अल्लाह की याद में बैठना कोई मामूली बात नहीं।
नफज-शैतान, मन-जालिम तड़पाता है और कभी भी राम-नाम की कथा-कहानी में बैठने नहीं देता। तो यह धर्मोें में लिखा है कि जिन पर मालिक की दया-मेहर होती है, जिन पर मालिक की रहमत का बहुत बड़ा हाथ होता है, जो राम नाम की कथा-कहानी में बैठते हंै। तो आप सब का जो कि बहुत भाग्यशाली हैं, सत्संग में आने का तहदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, खुशामदीद कहते हैं, जी आया नूं,मोस्ट वैल्कम। आज जो आपकी सेवा में सत्संग होने जा रहा है, जिस भजन पर सत्संग होगा, वह भजन है
‘जिसने जपा नाम वो, लाभ है उठा गया।
जिसने जपा नाम ना, जन्म गंवा गया, जन्म गंवा गया।।’
इस संसार में जी तो सभी रहे हैं, पर जिसे आत्मिक शान्ति है, परमानंद है, वह दुनिया का सबसे सुखी इन्सान है। जिसने अपने अन्दर के विचारों को कंट्रोल कर रखा है, काबू कर रखा है वो भाग्यशाली है। इन्सान अपने विचारों को काबू नहीं कर पाता इसलिए दु:खी है। विचार बेलगाम जंगली घोड़े की तरह दौड़ते रहते हैं कभी किधर, कभी किधर। मालिक की याद में नहीं आने देते बल्कि किसी ओर तरफ विचारों का तूफान बहता रहता है। इन्सान उम्र में चाहे कितना ही हो जाए लेकिन यह मन जालिम अपने विचारों से इसे कभी बूढ़ा नहीं होने देता। गंदगी भरे बुरे विचार, बुरे ख्यालात, बुरी सोच इन्सान के दिलो-दिमाग में चलती रहती है और उनके हाथों मजबूर इन्सान गम, चिन्ता, परेशानी, टैंशन, दु:ख-तकलीफ में घिर जाता है। कोई रास्ता नजर नहीं आता तो फिर मन-जालिम नशों का सहारा देता है। मन कहता है कि आप नशा करो, ताकि गम भूल जाए।
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- लेते ही जन्म भूल गया जो वायदा किया है। बचपन में खेला खाया, फिर विषयों में फंस गया है। रूहानी सत्संग
लेकिन नशा गमों को भुलाता नहीं। नशा एक बार गम को आप से हटा देता है, तो जैसे ही नशा उतरेगा, तभी गम घटा (बादलों का झुंड) बनकर आप पर छा जाएगा और आप दोगुने गमगीन हो जाएंगे, दोगुने दु:खी हो जाएंगे। और लगातार नशा लेने से आप उस गम को तो क्या दूर करेंगे बल्कि खुद बीमार हो जाएंगे, खुद बीमारियोें का घर बन जाएंगे आप। इसलिए किसी नशे से , किसी बाहरी तरीके से आप अपने गमों को, अपने विचारों को कंट्रोल नहीं कर सकते। अपने विचारों को काबू करना है, वास्तव में बेगम होना है तो आप सुमिरन करें। ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु, गॉड को याद करें। जैसे आप दुनियावी काम-धंधे के लिए समय निश्चित किए हुए हैं, कोई भी कार्य आप दुनिया में करते हैं उसके लिए समय निश्चित है। सुबह उठते हैं, रफाहाजत जाते हैं, उसके बाद नाश्ता वगैरह लेते हैं, नहा-धोकर तैयार होते हैं और अपने दफ्तर, खेतों यानि अपने-अपने कार्य पर चले जाते हैं।
समय गुजरता जाता है। बहुत सज्जन कार्य ईमानदारी से करते हैं और बहुत ज्यादा बातों से टाइम पास कर लेते हैं, फिर खाने का समय और इस तरह से बाल-बच्चों के लिए समय, परिवार के लिए समय और फिर सोने का समय। सारे समय मेंं मालिक के नाम का समय कोई निश्चित नहीं है और इस वजह से आज सारे संसार में लोग दुखी हैं, परेशान हैं, लड़ते हैं, नशे करते हैं क्योंकि जब आत्मिक कमजोरी आ जाती है, अंदर की कमजोरी आ जाती है तो उसको कोई सहारा चाहिए है, फिर वो बिना सहारे के जी नहीं पाता। फिर वह किसी नशे का या बुराई का सहारा लेता है। कुछ लोग ही भलाई का सहारा लेते हैं। असली सहारा प्रभु का है जो दोनों जहान में नहीं छूटता।
यहां-वहां यानि इस लोक में और अगले जहान में यानि दोनों जहान में मालिक-सतगुरु का सहारा हमेशा साथ रहता है, वो कभी छूटता नहीं। जो कोई उस सहारे को अपना लेते हैं, और सहारा अपना लेने के लिए प्रभु की भक्ति जरूरी है जिसे गुरुमंत्र, नाम, कलमा, गॉडस वर्डस, मैथड आॅफ मेडिटेशन अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। आप सुमिरन करें, लगातार अभ्यास करें तो आप अपने अंदर की शक्तियों को हासिल करेंगे और कोई गम-चिंता परेशानी आपको डुला नहीं पाएगी। आप मन को जीतेंगे, मन को रोकेंगे। महापुरुषों ने लिखा कि ‘मनु जीते जगु जीत।’ जिसने अपने मन को जीत लिया, अपने बुरे विचारों को कंट्रोल कर लिया है वो संसार में सबसे सुखी इन्सान है। बुरे ख्याल नहीं, बुरे कर्म नहीं तो बीमारियां नहीं। रूहानी तंदरुस्ती, रूहानी ताजगी, अंदर सरूर और चेहरे पर नूर आ जाता है। चेहरा खुशियों से, मालिक की दया-मेहर से चमकने-दमकने लगता है। ऐसा नूर जो दूर से पहचाना जा सकता है। तो प्रभु का नाम सब सुखों की खान है।
आपको जैसी भी आदत पड़ी हुई है उसे आप छोड़ना चाहें तो आप इसके लिए सुमिरन करें। बचपन से पड़ी हुई आदतों को भी आप सुमिरन के द्वारा छोड़ देंगे। वरना आदतें नहीं छूटा करती। वारस शाह जिसने मजाजी इश्क के बारे में लिखा है, जैसे हीर-रांझा, लेकिन लिखने वाले शायर जो होते हैं उनकी कई बातें बहुत जबरदस्त होती हैं, उन्होंने लिखा कि ‘वारस शाह ना आदतां जांदियां जी, भावें कटिये पोरियां पोरियां जी।’ जिसको आदत पड़ जाए, जैसे किसी पशु को मान लो रस्सा चबाने की आदत, या दूसरे की खाने की आदत पड़ जाए, खुद के सामने चाहे कितना भी बढ़िया चारा पड़ा हो तो वह मुंह दूसरी जगह जरूर मारेगा, ये जमींदार भाई आम नोट करते रहते हैं। लेकिन पशुओं को रोकना आसान होता है, उनके मुंह पर रस्सी का बनाया हुआ मुंह-बंद (छिकला) चढ़ा देते हैं बस, फिर वो मुंह नहीं मार सकते, रस्सा नहीं चबा सकते। लेकिन आदमी! इसको जो आदत पड़ गई इसको रोकना बड़ा मुश्किल है। इस बारे में कबीर दास जी ने भी लिखा है कि
‘मना रे तेरी आदत नै, कोई बदलेगा हरिजन सूर।।
चोर जुआरी क्या बदलेंगे, ये माया के मजदूर।
मना रे तेरी आदत नै कोई बदलेगा हरिजन सूर।।’
चोर-जुआरी वही नहीं जो रात को लूटा करते हैं। अगर उनको चोर कहें तो जो दिन-दिहाड़े लूटते हैं, उनको क्या कहेंगे, उनके बाप! ऐसा कहना ही अच्छा रहेगा। चोर से तो लोग निगरानी कर लेंगे लेकिन जो दिन-दिहाड़े, शरेआम लूटता है, जैंटलमैन बनकर लूूटता है उससे कैसे बच पाएंगे? उनकी जुबान बहुत मीठी होती है और साथ में तेजधार की कैंची होती है, आप पता नहीं कब उनके हत्थे चढ़ जाएंगे और कब आप से ठग्गी, बेईमानी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार किया और आपको पता तक नहीं चलने दिया। जब तक पता चला बहुत समय हो गया, उनको क्या कहा जाए! तो भाई! कबीर जी ने भी यही कहा कि जो माया के लिए बुरी तरह पागल हैं, काम-वासना, क्रोध, मोह, अहंकार, मन के पीछे बुरी तरह से खोए हुए हैं वो हे मन दिवाने! तेरी आदत को नहीं बदल सकते।
कौन बदलेगा? कोई बदलेगा हरि यानि परमात्मा, जन यानि प्रभु का भक्त, सूर यानि शूरवीर, योद्धा, बहादुर जो सुमिरन करे, जो हिम्मत करे, अपने अन्दर के विचारों से लड़े। हे मन दिवाने! वो तेरी आदत को बदल सकता है। यही सच है कि वह आदत को बदल सकता है दूसरा नहीं। मनमती बातों को करने के लिए मन हर वक्त तैयार रहता है और राम-नाम की बात या तो सुनता ही नहीं और अगर सुनता है तो अमल नहीं करता। तो मालिक की याद में मन सबसे बड़ी रुकावट है।
मन और माइंड एक नहीं होते। जो आपके माइंड को नेगेटिव थाट्स, बुरे विचार देता है उसे मन या मन-राम और मुसलमान फकीर नफज, नफज-शैतान कहते हैं। जो दिलो-दिमाग को नेक-अच्छे विचार देता है, उसे हिन्दूू और सिक्ख धर्म में आत्मा की आवाज या अन्दर की आवाज कहते हैं और दिमाग को अच्छे विचार देने वाले को मुसलमान फकीर रूह या जमीर की आवाज कहते हैं। तो यह मन हमेशा अच्छाई से, मालिक की भक्ति से रोकता है। इसलिए मन से लड़ो, अपनी बुराइयों से लड़ो। आपके अन्दर जो बुरे ख्यालात, बुरी सोच है, आप उनसे लड़िए। आप एकांत में बैठिए, जो आपने गलत आदत डाल रखी है, उसको छोड़ते जाइए, सुमिरन के द्वारा, भक्ति-इबादत के द्वारा।
आप दृढ़ संकल्प कीजिए कि मैंने इस आदत पर अमल नहीं करना, यह मेरी गलत बात है। जैसे, आप बिना वजह के किसी से लड़ पड़ते हैं, बिना वजह के गुस्से होने लगते हैं, बिना वजह आप अन्दर ही अन्दर बुराई सोचते रहते हैं, जिसको देखा उसी का गलत सोचना तो, ऐसी आदत आम देखने में मिलती है। आप सुमिरन करें और दृढ़ संकल्प करें कि आज के बाद किसी से नहीं लड़ना। है तो बहुत मुश्किल, पारा सातवें आसमान में फौरन पहुंच जाता है। लेकिन फिर भी आप अगर सुमिरन करें तो बर्दाशत शक्ति आएगी। वैसे संकल्प करके आप नहीं छोड़ पाएंगे क्योंकि आत्मा कमजोर है और मन के अधीन हुई बैठी है। एक तरह से आप मन के, पांच ठगों के ही अधीन हैं।
ये काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार हैं जो आपको भरमाते हैं, भटकाते हैं, तो आप इनसे नहीं बच पाएंगे। हमने रिसर्च करके देखा है, एक ऐसे इन्सान को चुना, जो वचन सुने, और उससे कहा कि गुस्सा नहीं करना, झगड़ना नहीं, बुरा नहीं बोलना। तो ज्यादा कहने से बदलाव आया 90 प्रतिशत तक। बहुत बड़ा बदलाव लेकिन जैसे इतना कहा जाए और बदलाव सिर्फ 90 प्रतिशत ही आए! वो 10 प्रतिशत क्यों शेष रहा? (यानि पूरा सौ प्रतिशत क्यों नहीं बदलाव आया), उसका कारण है सुमिरन न करना। अगर सुमिरन किया जाए, भक्ति-इबादत की जाए तो शांत रहा जा सकता है और जो शांतचित्त है, जिस पर किसी की बात का असर नहीं होता वो सबसे सुखी है। तो आप कई बार सोचते हैं कि समाज में कई अजीब सी बातें हैं, फलां आदमी ने मुझे गाली दी।
आप सोचते हैं कि मैं क्या कम हूं? पर आप चुप रहें तो वो बुरी बातें उसी पर असर करेंगी, आप पर रत्ती भर भी असर नहीं होगा। यह अपने-आप में शांत, शांतचित्त रहने का एक फार्मूला है समाज में। ऐसी गाली निकालने से होता कुछ नहीं। जो गाली दे दी वो तो मुंह की भाषा है, जो गाली दी उससे कुछ हुआ तो नहीं। तो फिर आप चुप क्यों नहीं रहे? आपने चार सुना दी, कहता उसने दो सुनार्इं। र्इंट का जवाब पत्थर से दूंगा। ये ठीक नहीं है। तो आप ऐसा न किया करें। समाज में ऐसे ही है कि गाली दे दी, मैं क्या कोई कम हूं! अजी! क्या हुआ दे दी? यह उसके मुंह की बुरी बात है। आप भी करते हैं तो वो बुरी है। आपको क्या? आप शांत, चुप रहिए, सुमिरन करना शुरू कर दीजिए। लेकिन बचपन से ठूंस-ठूंस कर जो भरा है कि कोई एक सुनाता है तो उसे चार सुनाओ या गलत बात पर जोश में आना कि ऐसे बोला है, या भड़क उठना, यह सही नहीं है अगर आप शांत रहें, शांतचित्त रहें भड़कें नहीं, तो आप पर मालिक की रहमत होगी और आप दोनों जहान की खुशियों के हकदार अवश्य बन पाएंगे।
आज के युग में सच लिखने वाला, सच कहने वाला, सच बोलने वाला भी कोई-कोई होता है और वो भी शूरवीर, बहादुर होता है ऐसा सच कोई लिख पाए। बहुत मुश्किल होता है ऐसा सच लिखना। बहुत खुशी होती है। इस दुनिया में ऐसा नहीं है कि सच लिखने वाला कोई नहीं है! हंै, बीज नाश कभी किसी चीज का नहीं होता। लेकिन कितने हैं, वो सोचने वाली बात है। बहुत कम। तो अच्छे संस्कार मां-बाप के, अच्छे भाग्य हैं तब जाकर यह बात होती है कि इन्सान सच बोल पाता है, सच कह पाता है, सच लिख पाता है और सच पर चल पाता है। तो सच पर चलिए, जरूर नजारे मिलेंगे, जरूर मालिक की दया-मेहर होगी। सच पर चलते जाइए, मंजिल दूर नहीं। मालिक की दया-मेहर के काबिल आप जरूर बन पाएंगे।
तो भाई! आप साथ-साथ शब्द, भजन सुनते जाइएगा और साथ-साथ आपकी सेवा में अर्ज करते चलेंगे। सेवादार-साधुजन भजन सुना रहे हैं। हां जी, चलो भाई ..
टेक :- जिसने जपा नाम वो, लाभ उठा गया।
जिसने जपा नाम ना, जन्म गंवा गया।।
1. मुश्किल मिला जन्म, पाया बड़ी देर से।
जन्म-मरण के दु:ख चौरासी के फेर से।
काट कर गुलामी फिर, आजाद होकर आ गया। जिसने जपा..
2. आया जिस काम, मन-माया ने भुला दिया।
मन भरमाए और माया भटका दिया।
मन-माया पीछे लगकर, धोखा खा गया। जिसने जपा..
3. पूंजी लूटने को पीछे, पांच चोर हैं लगे।
स्वासों रूपी पूंजी को, दिन-रात हैं ठगे।
जिसका चला जोर है, वोही दांव लगा गया। जिसने जपा..
4. एक, दो, तीन हों तो, शायद बंदा बच सके।
लगे पीछे पांच सूक्ष्म, कैसे बच सके।
वो ही बच सकेगा, किले सत्संग में आ गया। जिसने जपा ..
भजन के शुरू में आया….
मुश्किल मिला जन्म, पाया बड़ी देर से।
जन्म-मरण के दु:ख चौरासी के फेर से।
काट कर गुलामी फिर, आजाद होकर आ गया।
इन्सान को मालिक से बिछुड़े हुए सदियां गुजर गर्इं यानि इतना समय गुजरा जिसका कोई अंदाजा नहीं। तो ये समय जीवात्मा को भयानक कष्टों में लगाना पड़ा, बेअंत दु:ख उठाने पड़े, जन्म लेते समय और मौत के समय। गंदगी का कीड़ा, सूअर, घास-फूस, गाय, वनस्पति क्या-क्या नहीं सहना पड़ता इन सबको। कितना दु:खी होता है इन्सान अगर इनकी जगह अपने आप को पाए। अगर बैल की तरह आप गाड़ी खींचें तो देखिए और ऊपर से डंडे पड़ें शाबाशी की जगह, कैसा लगेगा? कहता मैं खींचूगा नहीं। तूं तो नहीं खींचेगा लेकिन जब आत्मा बैल के शरीर में गई तब तो खींचना पड़ेगा और ये होकर आई है वहां से। कितना दु:ख आता है आप समझ सकते हैं। वो समझते हुए भी बयान नहीं कर सकते। प्रभु ने आप सबको यह सब समझ दे दी कि आप समझो, परखो और पहचानो कि आप क्या करने जा रहे हैं, कैसे करने जा रहे हैं।
तो भाई! यह देखने वाली बात है, सोचने वाली बात है कि इन्सान बहुत सारी जूनियों में जाता है और बेअंत दु:ख उठाता है। मनुष्य शरीर में तो आने के बाद समय है कि आवागमन से मोक्ष-मुक्ति हासिल करे, इसके अलावा और कोई शरीर ऐसा नहीं कि जिससे ऐसा संभव हो सके। ऐसा तभी संभव है अगर आप प्रभु के नाम का सुमिरन करें, उसकी भक्ति-इबादत करें। तभी आप मालिक के रहमो-करम के हकदार बन सकते हैं, तभी आप उसकी बेअंत खुशियां, बेअंत रहमो-करम को हासिल कर सकते हैं। तो भाई! जन्म बहुत देर से मिला, चौरासी लाख जूनियों में चक्कर लगाने के बाद मिला, बहुत गुलामी सहन की है इस शरीर ने और बहुत गुलामी सहन करने के बाद, गुलामी में समय गुजारने के बाद यह आजादी का समय हाथ में आया है, खुद-मुख्तयारी मिली है और इसमें प्रभु के नाम का सुमिरन करें, मालिक की भक्ति-इबादत करें तभी आप दया-मेहर, रहमत के काबिल बन सकते हैं। इस बारे में लिखा-बताया है:—
मनुष्य जूनि सारी जूनियों की शिरोमणि है। यह बहुत भाग्य करके मिलती है। यह मालिक के मिलने का समय है। श्री गुरु अर्जन साहिब जी पवित्र गुरुवाणी में फरमाते हैं-
‘कई जनम भए कीट पतंगा।। कई जनम गज मीन कुरंगा।।
कई जनम पंखी सरप होइओ।। कई जनम हैवर ब्रिख जोइओ।।
मिलु जगदीस मिलन की बरीआ।।
चिरंकाल इह देह संजरीआ।।’
‘भई परापति मानुख देहुरीआ।। गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ।।
अवरि काज तेरै कितै न काम।। मिलु साध संगति भजु केवल नाम।।’
इन्सान और जितने भी कार्य करता है ईश्वर की भक्ति के अलावा, कुछ भी साथ जाने वाला नहीं। यहां पर वगार ढो-ढो कर मर जाता है। हे इन्सान! कार्य करो, कोई रोकता नहीं लेकिन मेहनत, हक-हलाल, हार्डवर्क करके खाओ और सुमिरन भी करो जिनके पास समय है। बार-बार हम कहते हैं सुमिरन कीजिए वरना समय नहीं मिलेगा। जब वो समय आ गया, जिसके बाद प्रलय आ जाती है, जिसे मौत कहते हैं। कब आएगी? क्या आपको यकीन है? क्या आपको पता है? कोई पता नहीं। तो फिर क्यों समय बर्बाद करते हैं? क्यों समय का सदुपयोग नहीं करते? मेहनत जरूर कीजिए, जो खाली होता है तो शैतान का चरखा मन शुरू हो जाता है और वो सूत के तंद यानि बुराइयों के तंद चलते रहते हैं। इसलिए बहुत जरूरी है हर किसी को कर्मयोगी बनना, कर्म क रते रहना चाहिए।
वो कर्म आपके घर-परिवार में काम-धंधा है, दफ्तर में या फिर कोई सेवा है, मुंह ना मोड़िए। मन बहाना बना देता है। हालांकि अच्छा-भला होता है लेकिन नहीं, कहता है आज तो ये दर्द कर रहा है रहने दे, छोड़, सेवा में कपड़े खराब न हों, ये न हो, वो न हो, इतनी चालें चलता है। और कहीं नोट मिलते हों, घर-परिवार में देखिए लोगों को दौड़े चले जाते हैं। कहते हैं, क्या है इतना दु:ख तो, नोट तो दौगुने हो रहे हैं और यह अप्रत्यक्ष दोगुना हो रहा है। आपको लगता है कि नहीं, आराम करना चाहिए। नहीं! भक्तों के लिए आराम हराम की तरह है। अगर असली बात मानो कि जो भक्त है आराम नहीं बल्कि जितना हो सके सेवा करे, सुमिरन करे और आराम कम से कम करे, क्योंकि जितना ज्यादा आराम उतना ज्यादा मन हावी होता है। इसलिए आप भक्तों की, रूहानी संतों की जीवनी पढ़कर देखो तो आराम उनकी जिंदगी में होता ही नहीं। दिन-रात मालिक की भक्ति-इबादत में, लोगों की भलाई, नेकी में समय लगाते हैं।
जो आराम परस्ती में पड़ जाए तो उसका मन उस पर हावी हो जाता है। उसको ये वचन अच्छे नहीं लगते बल्कि कहता है कि मुझे क्यों कह रहे हैं, इतना ढीठ होता है मन। उस इन्सान को ये नहीं होने देता कि हां भई! हमसे गलती हुई, आगे से हम ऐसा नहीं करेंगे। बल्कि हंसकर, मजाक में यूं ही इधर-उधर से निकाल देना, यही मन की निशानी है कि मन हावी रहता है। मन बहुत जालिम ताकत है। ये कहां प्रवेश कर जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। इन्सान खुद ही इसका गुलाम होता है और इसका पानी भरता है। तो भाई-
आया जिस काम, मन माया ने भुला दिया।
मन भरमाए और, माया भटका दिया।
मन माया पीछे लग कर धोखा खा गया।
मन और साथ में माया जो बहकाती रहती है, इनकी न सुनो। अपने पीर, अपने जमीर की सुनो तो आप उस मालिक की दया-मेहर, रहमत के काबिल बन सकते हैं, उसकी दया-दृष्टि के काबिल बन सकते हैं। तो आपको जैसा बताया कि मन से लड़ने के लिए सख्त सुमिरन जरूरी है।
बहुत सत्संगी भाई हैं जो सच बोलते हैं, चलो, बोलना तो गुणों में है। कई बार ऐसा झूठ भी होता है जो जीवों को जीव-हत्या से बचा देता है तो वह सच से बेहतर है। कौनसा? एक छोटा सा उदाहरण देना चाहेंगे, एक जमींदार भाई है, हकीकत बयान कर रहे हैं, एक मृग (एक हिरण) दौड़ता हुआ, छलांगें भरता हुआ आता है और वह उसके सामने फसल में छिप जाता है। उसके पीछे शिकारी लगा हुआ है। शिकारी वहां पहुंचता है और उस जमींदार से पूछता है कि इधर मृग, हिरण आया है, वो किधर है? तो अब बताइए अगर सत्यवादी बनेगा तो एक जीवहत्या का पापी वो भी बन जाएगा, अधिकारी वो भी बन जाएगा। अगर उस समय यह कहा जाए जो कि उस जमींदार ने कहा कि भाई! यहाँ कोई हिरण-विरण नहीं आया, यहाँ आने की जरूरत नहीं।
यह मेरा खेत है, यहाँ कोई मतलब नहीं आपका और यहाँ कोई हिरण नहीं। तो वो शिकारी वापिस चला गया। तो एक छोटा-सा झूठ लेकिन उस जीव की जान बच गई। इसलिए जो बोलने में आता है ये गुण होता है। हम जिस सच की बात कर रहे हैं, क्योंकि जितना दिमाग इन्सान का होता है उतना ही वह काम में लेता है। वो सच है ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु का नाम। उसका जाप करो। दुनियावी सच भी मुश्किल है। तो ऐसे बहुत से सज्जन हैं जो सच्चे मुर्शिदे-कामिल परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के चेताए हुए हैं, जो सच बोलते हैं, सच लिखते हैं, सुमिरन भी करते हैं और सच पर चलते भी हैं, बहुत हैं, एक-दो नहीं, बहुत हैं।
तो बहुत हिम्मत वाले हैं ऐसे लोग जो सच पर चलते हैं। मालिक उनको और शक्ति दे नेकी-भलाई पर चलने की। मन से आप लड़ो, आपके अन्दर जो ऐब, बुराइयां हैं, उनसे लड़ो, उन्हें दूर करो। आप ढीठ मत बनो। अगर आपको लगता है कि फकीर जो वचन कह रहे हैं वह आप पर लगता है, यानि आप में वह कमी है तो आप उसे निकाल डालिए और आप अपने सतगुरु, पीरो-मुर्शिद-ए-कामिल से प्यार-मुहब्बत करते हैं, सतगुरु-अल्लाह, वाहिगुरु से प्यार करते हैं और यह सोचते हैं कि मैं सारा जीवन उस पर कुर्बान कर दूं, तो भाई, बातों से कुर्बान मत कीजिए, हकीकत में कीजिए। हकीकत क्या है कि जो पीर, फकीर नेकी-भलाई के वचन कहें उसको मानो, बस यही कुर्बान करना है।
अगर मान रहे हैं तो कुर्बानी कर रहे हैं, अगर नहीं माना तो आप नादानी कर रहे हैं। क्योंकि वचन मानने में बहुत जोर आता है, बड़ी मन की बातों को रोकना पड़ता है, बहुत ऐसी चीजें हैं जो छोड़नी पड़ती हैं। यही तो कुर्बानी है, यही तो कुर्बानी का रास्ता है और इसी को तो रूहानियत में कुर्बानी कहा जाता है। ‘प्रेम कुर्बानी के बिना थोथा है’ यानि आप अपनी बुराइयों को अपने सतगुरु, मालिक पर कुर्बान कर दीजिए कि जो मेरे में कमियां हैं, गंदी आदतें हैं वो सब की सब आप पर कुर्बान हैं। सिर्फ कहें नहीं, ऐसा करके दिखाएं, तो यकीन मानो, दोनों जहान की दौलत से मालामाल जरूर हो जाएंगे।
पूंजी लूटने को पीछे, पाँच चोर हैं लगे।
स्वासों रूपी पूंजी को, दिन रात हैं ठगे।
जिसका चला जोर है, वोही दांव लगा गया।
पाँच चोर, पाँच रोग एक ही बात है। काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, और अहंकार ये छोड़ने से नहीं छूटते। जिसको लग जाते है, उसकी रग-रग में बस जाते हैं। काम-वासना में कोई अन्धा हो गया, उसके लिए कोई रिश्ता-नाता नहीं रहता। वो जिधर भी देखता है, बुरा ही देखता है और जो सोचता है, बुरा ही सोचता है। उसके लिए मां-बाप कोई आदरणीय नहीं रहता। उसके अन्दर हर समय गन्दगी का कीड़ा कुलबुलाता रहता है।
रिश्ते जो हैं पति-पत्नी का वो जायज है। ईश्वर की तरफ से नर-मादा की उत्पत्ति हुई सृष्टि को साजने के लिए। लेकिन इन हदों से गुजर जाना काम-वासना कहलाता है और कामी इन्सान सुखी नहीं रह पाता। तो जो रिश्ते निर्धारित किए हैं उनके प्रति वफादार रहिए। अपने जायज रिश्तों के प्रति ये भावना जो आपकी बनती है, उस पर अमल कीजिए और जहाँ तक संभव हो ब्रह्मचर्य का पालन कीजिए। नौजवान बच्चों के लिए, हमारे धर्मांे में असूल बने हुए थे कि 25 साल की उम्र ब्रह्मचर्य के लिए रखी गई थी। उसके बाद गृहस्थ-जिन्दगी शुरू होती थी। ये आपको दावे से कहते हैं और साइंटिस्टस मानने लगे हैं कि वाकई अगर कोई ब्रह्मचर्य का पालन करे तो उसकी आने वाली औलाद जो है (जब शादी हो) वो 99 प्रतिशत तन्दरुस्त पैदा होगी और बहुत सारे रोगों से वो खुद लड़ने के सामर्थ होंगे तथा बहुत सारी बीमारियां उनके पास नहीं फटकेंगी। पर कोई पालन करे तब।
घर-गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य नियम का पालन हो सकता है, ध्यान रखिए, सीमित रहिए। साथ में सुमिरन बनेगा और मालिक की चाह, इच्छा अन्दर बढ़ती जाएगी। ये इच्छाएं हैं, चाहे ईश्वर वाली पैदा कर लीजिए और चाहे विषय-विकारों वाली। क्रोध- आप अपनी औलाद को समझाते हैं। वो आपकी किसी बात पर मानते नहीं तो आप क्रोध में आ जाते हैं, ऐसे में क्रोध में आना कोई गलत नहीं। क्योंकि अगर दो शब्द कहने से उसका जीवन बदल जाता है, तो आपने यह भला किया है, बुरा नहीं किया। लेकिन क्रोध कहते हैं जब आपे से आप बाहर हो जाते हैं, चण्डाल रूप, ऐसा लगता है जैसे वो आदमी नहीं कोई चण्डाल आ गया। हमने देखा है बहुत लोगों को। इन्सान सोचने लगता है कि आखिर पीछा कैसे छूटे? समाज में, घर-घर में आप निगाह मार कर देखो, चण्डाल आता-जाता रहता है। भूत आता है पता नहीं, पर चण्डाल तो आता है। बेरहमी लेकर आता है। जब आप गुस्से हो जाते हैं, नथूने फूल जाते हैं।
स्वास एक्सप्रैस गाड़ी की तरह आने लगते हैं। यानि उम्र कम होनी शुरू हो जाती है। चोर है, स्वास लूट रहा है, मजे से लूट रहा है। जब आप गुस्से में भड़क जाते हैं, तब यूं लगता है कि आपके पास कोई मंत्र हो स्वाहा, तवाहा, सफाया। बाद में चाहे रोते रहोे। जैसे एक बात ख्याल में आ गई, वैसे है यह कहानी, हो सकता है हकीकत भी हो। एक जमींदार भाई था। कोई भी हो, जात का नाम लेना अजीब लगता है तो इसीलिए जमींदार ही कह देते हैं। उसमें कुछ भी नहीं था, वो थोड़ा गुस्सैल था। सारे परिवार वाले गुस्सैल थे। लेकिन प्रभु को, अपने ईष्ट-देव को याद किया करते थे, भक्ति करते थे। एक दिन ईष्ट-देव प्रकट हुआ और कहने लगा, बोलो क्या चाहिए? वो कहने लगे जी आपका दिया हुआ सब कुछ है। वह कहने लगा- मैं तीन वरदान दूंगा। एक-एक वरदान मांग लीजिए, क्या चाहिए? तो जमींदार की पत्नी थोड़ी जल्दबाजी कर गई, और कुछ मांगने की जगह कहती- मुुझे समोसे चाहिएं।
कई होते हैं चटकारू। इतना बड़ा वरदान और मांगे समोसे। जमींदार को गुस्सा आ गया और कहने लगा तुमने ये क्या मांगा? उसकी पत्नी कहती मेरी मर्जी, मेरा वरदान है। उसे और गुस्सा आया। कहता, हे ईष्ट देव! समोसा इसके नाक पर लग जाए। समोसा लग गया और नाक भी समोसे जैसी हो गई। बुरा हाल। अब एक वरदान बचा है। लड़का, वो भी गुस्से में आ गया, फिर दोनों ने हाथ जोड़े, मां-बाप ने कहा- बेटा! बच-बच। वो अपने बाप का बुरा करने जा रहा था, थोड़ा रुक गया, कहने लगा, हे ईष्ट देव! जैसे थे हमें वैसे कर दो। समोसे भी चले गए, नाक भी सही हो गया। सब कु छ ठीक-ठाक हो गया। पर मिला क्या? तो यही होता है क्रोध वालों का हाल। ऐसे करते हैं तो नुकसान होता है। फायदा नहीं, वरना तीन वरदान से चाहे कुछ मांग लेते मिल जाता। तीनों गंवा बैठे और फल शून्य। तो ऐसा आप ना किया करें।
हमें लगता नहीं आपने ऐसा किया होगा। आपको कई बार कहा है कि अगर गुस्सा आता है तो बच्चों पर असर बुरा होता है, देखने वाले क्या कहते होेंगे आपके घर से जब फुल आवाज में बाजा बजता है, पड़ोसी साज-बाज सुनते हैं। तो भाई! आपको जब बाजा बजाना हो यानि लड़ना हो तो घर में एक कमरा बना लीजिए और महाभारत उस पर लिख लीजिए। जब लड़ने का मूड हो तो चल महाभारत में। बस अन्दर बाजा बजाइए। बच्चों पर भी असर नहीं और कोई पड़ोसी भी सुन नहीं पाएगा। किसी ने शायद ही लिखा हो ये, कहा तो बहुत बार है अगर आपको गुस्सा आता है, अगर नहीं आता तो बढ़िया है, मत लिखो। अगर आता रहता है तो लिखकर देखें, हट जाएगा, घर से भाग जाएगा। क्यों? जब भी महाभारत पढ़ोगे अपने-आप या तो हँसी आएगी या अन्दर जाओगे तो शान्त हो जाओगे।
कुछ तो लिखते नहीं कि आकर कोई पढ़ेगा तो कहेगा ये कमरा कौन सा है तो क्या जवाब देंगे! हर किसी को चाहिए ये, या किसी कपड़े पर लिख लें कि बच के रहो, लाल रंग का कपड़ा और ऊपर डेंजर लिखा हो। जब गुस्सा आए ऊपर ले लो ताकि दूसरे तो बच जाएं। कुछ न कुछ तो करो ना ताकि आपकी गन्दी आदत छूट जाए। करके देखिए, आजमाइए, जरूर फायदा होगा भाई आपका, नहीं तो दूसरों का तो होगा, वो भी आपके अपने हंै परिवार वाले, जब आपको ऐसा हो रहा है पहले होता था, बादशाह को अगर गुस्सा आ जाता ऐसा कुछ कह देता ‘एकांत!’ बस कोई नहीं रुकता था फिर वहां कि गलत हो गया काम, अब नहीं रुकना। आज वाला कहता भी नहीं और एक-दूसरे को, फिर आपको पता है, जूतम-पेल हो जाती है।
तो भाई! आप अमल कीजिए तभी यह गुस्सा दूर होगा वरना क्रोध के हत्थे चढ़कर बर्बाद हो जाते हंै लोग और अपनी भक्ति, अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं। क्रोध नहीं करना चाहिए। परम पिता जी के वचन हैं कि जब गुस्सा आए तो नारा लगाओ ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ और पानी पी लो, वो गुस्सा कम हो जाएगा या कंट्रोल में आ जाएगा। कई तो पानी पीते ही नहीं, कहते ले जा अपना पानी, चक्कर तो ये है। तरीके तो बहुत बताए हैं अमल ही नहीं करते। सामने पानी पड़ा होता है, कहता कि पी लूंगा तो फिर ठण्डा हो जाऊंगा, अभी गर्म रहने का ख्याल है। ये ख्याल गड़बड़ वाला है। तुझे दु:खी करेगा, आने वाले टाइम में हाई ब्लड प्रैशर, तरह-तरह की बीमारियां, बहुत सी परेशानियां, चाहे आप डॉक्टरों से पूछ लो। क्योंकि जब गुस्सा आता है तो दिलो-दिमाग में खून बहुत तेजी से चलता है जिससे बेचारी नाड़ियों का हाल बुरा हो जाता है और हर्ट (दिल) का साइज बढ़ सकता है, दिलो-दिमाग की कोई नाड़ी फट सकती है और आप मौत के मुंह में भी जा सकते हंै। इसलिए कंट्रोल करना जरूरी है और कंट्रोल सुमिरन के द्वारा, जैसे आपको बताया।
फिर लोभ-लालच- ये भी बड़ी बुरी बला है। अपने लिए कमाना, मेहनत की कमाई करना, उसको जोड़ना बच्चों को देना ये लोभ-लालच में नहीं है, ये तो फर्ज है। लेकिन पैसे के लिए पागल हो जाना, पैसे के लिए ठगी, बेईमानी, झूठ-तूफान इतना कुछ जो समाज में चलता है, वो करना लोभ-लालच है। ‘लोभ है सर्व पाप का बाप’। लोभ-लालच आया नहीं कि इन्सान बुराई की दल-दल में, बुरे ख्यालों में फंसता चला जाता है और हर तरह के पाप इकट्ठे कर लेता है। भाई! कभी भी लोभ-लालच में मत फंसिए। अपने दिलो-जिगर को, अपने दीन-ईमान को मत बेचिए। दीन-ईमान बिक गया, ईमान डगमगा गया तो समझ लीजिए कि आप ने सब कुछ खो दिया। इसलिए ईमान पर कायम रहिए, कभी भी लोभ-लालच वश गुमराह न होइए और जो हो जाते हैं वो बुराई का प्रतीक बनकर रह जाते हैं।
आने वाली पीढ़ियां उनको बुराई का प्रतीक मानकर याद करती हैं। इसलिए कभी लोभ-लालच में पड़कर नेकी का रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। फिर है मोह-ममता। मोह-ममता भी बहुत बुरी बला है और इसे त्यागना कोई आसान काम नहीं है। मोह-ममता कौन सी है? आप घर-गृहस्थी हैं, अपने बच्चों से प्यार करो, अच्छे संस्कार दो और मालिक के नाम का उन्हें ज्ञान दो। ये कोई मोह-ममता नहीं। ये फर्ज है, ये कर्तव्य है। लेकिन जब आप हद से ज्यादा उनके ऊपर मोहित हो जाते हैं, उनके बिना रह नहीं पाते, तो मोह विकराल रूप धारण कर लेता है। आपका भी जीवन खराब और उसका भी जीवन खराब। और साधु-फकीरों का तो कहना ही क्या, उनके लिए तो वचन हैं, परम पिता बेपरवाह सच्चे मुर्शिदे-कामिल, मालिक फरमाया करते कि ‘कोई भी साधु-फकीर बनता है या सब कुछ त्यागकर सेवा करना चाहता है, त्याग तो किया है पर ये नहीं, असली त्याग करना, क्योंकि सेवा में लगना है, साधु-फकीरी में पड़ना है तो तेरे लिए तेरे दुनिया वाले गए और तूं उनके लिए गया’ क्योंकि तेरा लक्ष्य मानवता की सेवा है और अगर मोह में पड़ा रहा न तो सुमिरन होगा और न ही सेवा होगी, ध्यान तेरा मोह में ही भटकता रहेगा।
अगर ऐसा ही फंसा रहा तो यह कोई त्याग नहीं बल्कि यह दिखावा बन जाता है। तो आज वास्तविक त्याग करने वाले चंद हैं, ज्यादातर दिखावे वाला त्याग है, छोड़ना चाहिए। हद से ज्यादा उनमें फंसोगे उनका नुकसान तो है ही है, आपका भी नुकसान है। जो सब कुछ छोड़कर, त्यागकर मानवता की सेवा में चलना चाहते हैं उन्हें चाहिए अपने ओ३म, हरि, अल्लाह, वाहिगुरु को अपना बनाएं, उसमें अपने मन को लगाएं। जो बाहर नहीं आपके अंदर बैठा है, कण-कण में बैठा है। उसके लिए प्यार-मुहब्बत कीजिए। यकीन मानिए! लगातार सेवा-सुमिरन करेंगे तो वो आपका अपना हो जाएगा और कभी भी जुदाई नहीं देगा। तो अमल नहीं करता इन्सान। हमने जो देखा, हमारा जो अनुभव है, देखा है, मतलब ही नहीं। हद से ज्यादा पागल, हद से ज्यादा हाय! ये क्या हो गया! वो क्या हो गया! अजी! आप त्यागी हैं, सोचिए! क्या हो गया! त्याग दिया जिस टाइम त्याग दिया, त्यागी बन गए।
तो सच्चे त्यागी बनो। छोड़ दिया ईश्वर के लिए तो ईश्वर को याद करो, प्रभु को याद करो। आप क्यों इतने टैंशन में हैं? क्यों इतने परेशान हैं? क्यों हद से ज्यादा पागल होकर घूम रहे हैं जब आप त्यागी हैं? तो भाई! सच्चा त्यागी बनिए मोह-ममता छोड़कर, काम-वासना, क्रोध, लोभ, अहंकार छोड़कर! अहंकार- बहुत तरह का आ जाता है कि मुझे ज्यादा ज्ञान है, मेरा बढ़िया शरीर है, मैं खूबसूरत हूं, मेरी बातों में वजन है, मैं किसी से कम नहीं। बातों-बातों का भूखा है। आप यकीन नहीं मानोगे ऐसे-ऐसे भक्तों को देखा है, हमारे सामने भी कइयों को देखा, इतना अहंकार! इतनी खुदी! कि मैं क्या कम हूं, वो कहता मैं भी कम नहीं। तो ठीक है भाई! मालिक सबसे बड़ा है वो कह देता है कि सबसे बड़ा नहीं।
(स्वयं मालिक जो कुल सृष्टि का मालिक है, सृष्टि का रचैय्या है, वह भी कभी अपने आप को बड़ा नहीं कहता) और उसका कोई रूहानी, सूफी फकीर जो इन्सानियत से ऊंचा होता है, वह भी कभी अपने आप को ऊंचा नहीं कहलाता। लेकिन ये कलियुग है, इसमें ऐसा हमने सामने होते देखा है। बड़े दु:ख की बात होती है कि अगर कोई भक्त, मालिक को याद करने वाला ऐसा करता है। खुदी-अहंकार उसे लिए बैठी है कि मैं कम नहीं, ये, वो, फलां-फलां, पता नहीं क्या-क्या! तो यह घातक है भक्तों के लिए, हर इन्सान के लिए। फिर अहंकार पैसे का, जमीन-जायदाद का, ऊंचे धर्म का, ये तो निकलता ही नहीं। आप मानेंगे नहीं, हमने ऐसे-ऐसे भक्तों को देखा है, उनकी बातें सुनी हैं जिनके अंदर गुमान रहता है कि मैं बड़े धर्म वाला हूं बाकी सब छोटे हैं।
कितना भी समझा लो, कितना भी ज्ञान दे दो उनकी सुई वहीं की वहीं अटकी रहती है। तो अहंकार बड़ी बुरी बला है। इसे छोड़ना लाजमी (जरूरी) है। मैं ये, मैं वो! अरे क्या! मिट्टी का पुतला है अगर जल गया तो राख बन जाएगा और क्या है तूं, कुछ भी नहीं। इतना अहंकार, खुदी जो करता है वो एक दिन ओंहदे मुंह जरूर पड़ता है। ये कोई बद्दुआ नहीं दे रहे हम बल्कि रिजल्ट बता रहे हैं। जैसे ये बीज डालोगे तो वैसी व उतनी ही फसल होगी, वो रिजल्ट बताते हैं। तजुर्बा होता है फकीरों को इन चीजों का कि आप अगर ऐसे चलोगे तो आपका टाइम ऐसा होगा। यह नहीं कि आपको बद्दुआ दे रहे हैं। आपके कर्म, जैसे कर रहे हो, आने वाले समय में वैसा ही भोगना होगा। इसलिए अहंकार न करो। यह ईश्वर के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है।
‘चाखा चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान।
एक म्यान में दो खड़ग, देखा सुना ना कान’।।
‘खुदी अंदर है तो खुदा नहीं और खुदा है तो खुदी नहीं’। दीनता, नम्रता, प्यार-मुहब्बत, जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं आती उसी तरह एक शरीर में अहंकार और प्रभु का प्यार इकट्ठे नहीं रह सकते। अगर आप वाहिगुरु, अल्लाह, राम का प्यार पाना चाहते हैं तो अहंकार त्याग दीजिए। सेवा-सुमिरन और दीनता धारण कीजिए, तो आप मालिक की दया-दृष्टि के काबिल जरूर बन पाएंगे।
एक, दो, तीन हों, तो शायद बंदा बच सके।
लगे पीछे पांच सूक्ष्म, कैसे है बच सके।
वोही बच सकेगा, किले सत्संग में आ गया।
अगर एक चोर पीछे लग जाए तो वह पीछा नहीं छोड़ता। तेरे तो भाई, पीछे पांच हैं और वो पांच भी सूक्ष्म हैं जो देखने में नहीं आते, वो लगे हुए हैं। सुमिरन के द्वारा भाग ले अगर भाग सकता है तो वरना ये तेरा सारा कुछ लूट लेंगे, जिंदगी की खुशियां, सुख, शांति सब कुछ छीन लेंगे सिर्फ रहेगी मान-बड़ाई। तो भाई! यह सही नहीं, आप इनसे बचिए।
बहुत सारे सज्जन ऐसे भी होते हैं जो पूछा करते हैं, सत्संग में या चिट्ठियों के द्वारा कि ‘हममें अब क्या कमी रह गई है, हमने अपने-आप को बहुत सुधारा है’। आपने सुधारा है बहुत खुशी की बात है। आपके दिलो-दिमाग में ये बातें हैं कि मैं अपने आपको सुधार रहा हूं, बहुत बड़ी बात है। लेकिन कहीं सुधारने पर ही अहंकार न आ जाए। खुदी का कुछ पता नहंीं कि कहां से आ जाए कि मैं ऐसा हो गया, वैसा हो गया। आप इन पांचों का सोचिए, काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मन और माया ये सात हो गए। क्या आपने इन सातों में से अपने में सुधार किया है? अगर किया है तो वाकई आप अच्छे हैं। पर थकिए मत! एक का किया है तो सभी का करो। मान लीजिए, आपने एक चीज लेनी है तो यह मत सोचिए कि आपका सामान कहां गया। आप हिम्मत जुटाइए और लगे रहिए जब तक अपने उद्देश्य को पा न लें, इन ठगों पे काबू न पा लें।
होशियार रहो और आलस्य न करो, क्योंकि आलस्य में पड़कर आपने अपना जीवन गुजार लिया है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार चोर तेरे घर को लूट रहे हैं, चाहे पांच चौकीदार हैं लेकिन उन पर भरोसा न कर। आपकी इंद्रियां हैं। उन्हें ज्ञानइंद्रियां कहें या मनइंद्रियां कहें एक ही बात है क्योंकि मन के अधीन हो चुकी हैं। आपके कान, नाक, जीभा, आंख, मुंह, चमड़ी है, ये जो 5-6 आपकी ज्ञानइंद्रियां हैं वो मन इंद्रियां बन चुकी हैं, मन के अधीन हो चुकी हैं। ये आपको वही दिखाती हैं, वही समझाती हैं जो मन के लिए है, काल के लिए है। आपको राम नाम की बात इतनी अच्छी तरह से सुनने नहीं देते, आपके ये कान, जितने अच्छी तरह से चुगली, निंदा, किसी की बुराई, गुप्त भेद चटकारे ले-लेकर सुनते हैं, तब कान खड़े हो जाते हैं। वैसे ही पता लग जाए अगर गिरे होते तो कान।
इन्सान के कान हैं ही खड़े। ये बनावट मालिक ने अपने हिसाब से की है, बहुत पर्दे रखे हैं। लेकिन जब राम-नाम की बात हो तो सुनना पसंद ही नहीं करता बल्कि आपस में बातें, इधर-उधर की, फलां-फलां, धिक्कड़ और जब किसी का गुप्तभेद, चटकारे, चुगली-निंदा सुननी है तो फिर ये खड़े हो जाते हैं। हैं! हां! फिर दूसरे कान से कुछ सुनाई नहीं देता, इधर वाला काम करता है। बस, कहता है बढ़िया है, बढ़िया, चला चल। तो भाई, इसी तरह आंखें हंै मालिक, प्रभु-परमात्मा को देखने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन झूठी बात, झूठी चीज कुछ भी नजर आ जाए फिर तो एक टक, फिर तो अर्जुन बन जाता है, निगाहें एक ही निशाने पर रहती हैं। उधर क्या हो रहा है, इधर-उधर तो करता है लेकिन असली निशाना वहीं रहता है। इधर-उधर तो इसलिए करता है कहीं पता न लग जाए। तो भाई! ऐसे नथुने हैं।
कहां मालिक की खुशबू लेना, ईश्वर की खुशबू लेकिन गंदगी, बदबू में आपकी ये मन-इंद्री लगी हुई है। स्वाद खाने का है, इंद्रियों के भोग-विलास का है जो जुबान उधर लगी हुई है। मुंह चलता है राम-नाम के लिए नहीं, बल्कि निंदा-चुगली के लिए। राम-नाम की खुराक नहीं खाता, मन की खुराक खाता है और स्पर्श अल्लाह-मालिक का तो कभी देखा ही नहीं। जो भी वातावरण में बुराइयां हैं उनका स्पर्श अच्छा लगता है। इस तरह से आपकी ज्ञानइंद्रियां मन इंद्रियां बन चुकी हैं और आप काल के अधीन हुए बैठे हैं, मालिक से दूर हुए बैठे हैं। कैसे सुधारे इन्सान अपने आपको, कैसे रहमो-करम हो मालिक का, बस थोड़ा सा शब्द-भजन रह रहा है, उसके बाद बताते हैं। हां जी, चलिए, बोलिए भाई!
5. कहां से है आया और, किस लिए आया।
संतों ने है भेद, सत्संग में बताया।
छोड़ देश अपना, है काल देश आ गया। जिसने जपा…।
6. एक-एक स्वास है, नाम को ध्याना जी।
आत्मा बेचारी को, जेल से छुड़ाना जी।
भूला हुआ काम जो, समझ याद आ गया। जिसने जपा…।
7. मानस जन्म भाई, सफल बनाना है।
कहें ‘शाह सतनाम जी’ पीछा काल से छुड़ाना है।
सुन कर वचन, जो अमल कमा गया। जिसने जपा….॥
मालिक की साजी नवाजी साध-संगत जीओ, ऐसा एक बार किसी ने चिट्ठियों में हमसे पूछा, पहले शायद जनवरी में जैसे बताया लेकिन फिर भी शायद किसी के अंदर क्या भावना आ सकती है कुछ कहा नहीं जा सकता, कि जी, आप जैसे कहते हैं कि जो त्यागी है, साधु है परिवार से तो उसे हद से ज्यादा लिंक रखना नहीं चाहिए, मोह-प्यार में फंसना नहीं चाहिए, तो आप परिवारों से संबंध रखते हैं, पता नहीं किसके अंदर क्या भावना होती है, वो क्यों? तो इस क्यों का जवाब जरूर देना चाहते हैं चंद शब्दों में। सच्चे मुर्शिद-ए-कामिल परम पूजनीय परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने अपने रहमो-करम से जब नवाजा तो यही बात हुई।
जैसे कुछ चर्चा नहीं इस बारे में लेकिन किसी से मिले नहीं। तीन-चार महीने गुजरे, सेवादार जो रहते हैं उन्होंने बताया बेपरवाह जी को कि ये तो जो शारीरिक परिवार है, उनके साथ किसी से कोई बात तक नहीं करते, बिल्कुल मिलते नहीं। तो बेपरवाह जी ने हमें बुलाया और आदेश दिया कि चाहे कोई कुछ भी आपको कहता है, आपने इन परिवारों के लिए तो टाइम देना ही देना है। तो भाई! बात सतगुरु के वचन की है, जिसको क्या वचन हुआ है वो जाने।
चाहे हजार बार कहो, ये परिवार जो खून से रिश्ता वो कौन से बन गए, बेपरवाह जी ने बनाया। हमने कुछ ऐसा नहीं बनाया। सबसे पहले श्री जलालआणा साहिब का परिवार क्योंकि जब पूज्य बेपरवाह जी का ये वचन हैै कि ‘हम ही हैं’, तो वो फिर परिवार भी तो हो गया न सबसे पहला। फिर लकड़वाली से परिवार है पूजनीय बेपरवाह जी की साबिहजादियां, दोहते-दोहतियां हैं और फिर इस शरीर से संबंध रखने वाला गुरुसाहिब का परिवार। यानि चाहे शरीर कोई भी हो, जब बेपरवाह जी के वचन हैं, तो उन परिवारों को टाइम हम अपनी तरफ से, जो बेपरवाह जी ने वचन किया है, देते थे,
दे रहे हैं और हमेशा देते रहेंगे।
चाहे हजार बार कहो, चाहे लाख बार कहो और जो आपके लिए वचन है वो आप जानें। जो गुरु, सतगुरु-मुर्शिदे-कामिल ने हमें बिठाकर ये समझाया, ये हुक्म फरमाया है, साथ में साधु थे, आप उनसे पूछ सकते हैं कि ये वचन हुए कि नहीं हुए! क्योंकि आदमी आदमी है, वह गवाह चाहता है। तो गवाह भी हैं हमारे पास, जिनके सामने सच्चे मुर्शिदे-कामिल ने वचन फरमाए कि इनको टाइम देना ही देना है, चाहे दुनिया वाले आपको कुछ भी कहें और कह भी रहें हैं, कोई शक थोड़े ही है! कई इसी कारण वो भी टाइम देने लगे हैं कि जब गुरु जी देते हैं। हमें तो भाई! अपने गुरु के वचन हुए हैं, आपको क्या वचन हुए हैं, बताइए तो सही! अपने जो वचन में हैैं और जिसको जो वचन हुआ है उस पर कायम रहे। ये तो भाई किसी सज्जन ने चिट्ठी दी और उसका जवाब दे रहे हैं कि ये जो परिवार है इनको टाइम देते हैं। तो भाई! वो तो हम देंगे ही देंगे जब गुरु के वचन हैं और एक मुरीद के लिए अपने गुरु के वचन से बड़ी चीज न मालिक है, न ही अल्लाह-राम है बल्कि हमारे लिए तो हमारा सतगुरु ही सब कुछ है, था और हमेशा रहेगा।
तो भाई! भजन के आखिर में आया-
कहां से आया, और किस लिए आया।
संतों ने यह भेद, सत्संग में बताया।
छोड़ देश अपना, है काल देश आ गया।।
कहां से आया है मनुष्य, जीवात्मा किधर से आई है ये सोचने वाली बात है। ऐसी आत्मा, ऐसी रूह जो सबके अंदर है, कण-कण में, दिखने में तो नहीं आती लेकिन बड़ी पॉवरफुल है कि वो खंडों-ब्रह्मण्डों को पार करके भगवान तक जा सकती है, कहां से आई। ये वो ही मालिक से बिछुड़ा हुए एक अंश है, एक कण है उसी से बिछुड़ कर आई और सुमिरन-भक्ति के द्वारा अगर उसी में मिल जाएगी तो आवागमन का चक्कर खत्म होगा और मालिक की दया-दृष्टि हमेशा मिलती रहेगी।
हम कहां से आए, किधर से आए इस बारे में लिखा, बताया है जी-
‘ये जीव संसार में तमाशा देखने के लिए भेजा गया था, पर यहां आकर मालिक को भूल गया और तमाशे में लगा रहा। जैसे लड़का बाप की अंगुली पकड़े हुए मेला देखने को बाजार में निकला था अंगुली छोड़ दी और मेले में लग गया तो फिर न मेले का आनंद रहा और न बाप मिलता है, मारा-मारा फिरता है। इसी तरह से जो अपने वक्त के सतगुरु की अंगुली पकड़े हुए हैं उनको दुनिया में भी आनंद है और उनका परमार्थ भी बना हुआ है। जिनको वक्त के सतगुरु की भक्ति नहीं है वो यहां भी दर-ब-दर मारे-मारे फिरते हैं और अंत में चौरासी को जाएंगे।
एक-एक स्वास है, नाम को ध्याना जी।
आत्मा बेचारी को, जेल से छुड़ाना जी।
भूला हुआ काम जो, समझ याद है आ गया।
कि जो काम भूल गया है, सत्संग में आया तो समझो आपको याद आ गया वो ईश्वर, मालिक का नाम। तो एक-एक स्वास सुमिरन करे तो तेरा भूला हुआ काम याद आ जाएगा और मालिक की दया-दृष्टि, दया-रहमत के काबिल तू अवश्य बन जाएगा।
एक-एक स्वास सुमिरन में कैसे लगाएं? आप काम करते रहिए, हाथों-पैरों से कर्म कीजिए और जीभा, ख्यालों से मालिक का नाम लीजिए। कोई कार्य में रुकावट भी नहीं आएगी और सुमिरन भी होता जाएगा। तो बताइए स्वास-स्वास का सुमिरन हो सकता है या नहीं? फिर भी आप नहीं करते तो आप मर्जी के मालिक हैं। आप कर सकते हैं, कबीर दास जी ने झूठ थोड़े ही लिखा है, किया है तभी तो उन्होंने लिखा है कि हर स्वास से सुमिरन करो। जो संत, फकीर होते हैं वे दुनिया में विचरते हैं पर उनके जो अंदर के विचार, जो ख्याल होते हैं वो अपने मालिक, सतगुरु से हमेशा जुड़े रहते हैं। बाहर वो ऐसा लगेगा, ऐसी-ऐसी बातें आम वो कह देते हैं जिससे लगता है कि ये तो आम सी बात है।
ये भी पता नहीं, पर वो आम रहने के लिए आम बात कहते हैं। तो इस तरह से कबीर जी ने जो लिखा सौ प्रतिशत सच है कि एक-एक स्वास मालिक का नाम जपो। वो एक-एक स्वास में जुड़ा रहता है, दिलो-दिमाग में अपना सतगुरु, मालिक, परमात्मा छाया रहता है। इसकी जगह कोई ले नहीं सकता। चाहे कोई कुछ भी हो। जीव के अंदर ऐसे विचार हो जाते हैं कि उनका पल-पल का सुमिरन मालिक जरूर कबूल करने लगता है। तो इस तरह आप स्वास-स्वास मालिक का सुमिरन करके मालिक की दया-मेहर, रहमत के खजाने लूट सकते हैं। इस बारे में लिखा है-
श्री गुरु रामदास जी फरमाते हैं कि बैठते-उठते, खड़े, रास्ते में चलते भी आप मालिक को याद करते रहो। सतगुरु वचन है और वचन ही सतगुरु है। जिस के द्वारा वो मुक्ति का रास्ता दर्शा देंगे। भजन के आखिर में आया जी:-
मानस जन्म भाई, सफÞल बनाना है।
कहें ‘शाह सतनाम जी’ पीछा काल से छुड़ाना है।
सुनकर वचन, जो अमल कमा गया।
सच्चे मुर्शिदे कामिल शाह सतनाम सिंह जी महाराज फरमाते हैं कि अमल करो अमल। अगर दोनों जहानों में खुशियां हासिल करना चाहता है, यानि यहाँ पर तेरा जीवन बहार की तरह हो, बहार आती है तो कली-कली खिल उठती है। ‘बहार’, यही सबसे ऐसा मौसम होता है जिसमें भक्तजनों के अन्दर अपने पीर, मुर्शिद-ए-कामिल के लिए हूक उठती है, आवाज उठती है। गुरुओं ने इस बारे में लिखा भी है किसी को क्या मिले, किसी को क्या मिले पर मुझे मेरे पिया मिलन की चाह है। सतगुरु, परमात्मा को पिया, खसम या और नाम दिए जो सब कुछ दे दे, जिसके मिलने से सब कुछ पा लिया। ‘पिया’ यानि सब कुछ पा गया, सब कुछ ले लिया। वो अल्लाह, वो वाहिगुरु, वो सतगुरु, वो मालिक मिल जाए।
फरीद जी ने लिखा बस एक बार मिल जाए, तेरी एक झलक मिल जाए मेरी सारी जां एक झलक पर कुर्बान है। तो बताइए, ऐसे भक्त को जुदाई आएगी कहाँ से, किस तरह से? क्योंकि उसके अन्दर वो झलक समाई रहती है, वो परमात्मा, वो प्रीतम, सतगुरु, अल्लाह, वाहिगुरु जब रहमो-करम बरसाता है वो याद कभी भूला नहीं करती। उसका अगर वैराग्य भी आता है तो ये और भी बड़ी बात है क्योंकि जितना उसकी याद में वैराग्य आ रहा है और उतना ही परम पिता परमात्मा के परमानन्द को प्राप्त कर पाएंगे। तो यही बात सच्चे मुर्शिद-ए-कामिल फरमाते कि अमल कीजिए, सुमिरन, सेवा, मेहनत, हक-हलाल की रोजी-रोटी खाइए, किसी का दिल ना तड़फाइए, बुरा न सोचिए और इन सब बातों के लिए सबसे अहम् और जरूरी बात कि सुमिरन, नाम का जाप कीजिए, जो काफी है सब कुछ पाने के लिए। तो भाई! नाम जपो और प्रभु की सृष्टि की सेवा करो जितनी कर सकते हो और कभी किसी का बुरा न करो तो मालिक की दया-मेहर, रहमत आप पर जरूर बरसेगी।
एक छोटी सी बात- एक प्रतिशिष्ट राजा थे, पुराने समय की बात है, उनके जमाने में कहते हैं कि कलियुग शुरू हुआ था। तो वो राजा काल को रोक कर खड़ा हो गया। बहुत कर्मी और धर्मी राजा था वह। यह एक कहानी है, हकीकत अलग बात होती है, सच्चाई किस रूप में आई एक अलग चीज होती है, तो कहानी की तरह कि राजा ने काल का मार्ग रोक दिया। काल को कहने लगा आप नहीं आ सकते। काल कहने लगा यह विधि का विधान है कि सतयुग, त्रेता, द्वापर युग आते रहे और वैसे अब कलियुग है, मैं तो आऊंगा ही आऊंगा।
कहने लगा आएगा कैसे, मैं नहीं आने दूंगा। विधाता भी देख लेगा उसके भक्त में क्या शक्ति है! पर यह सच है, अगर भक्त नेक, भले कर्म करने वाला हो तो काल का मुंह मोड़ सकता है। फिर काल ने सोचा कि वाक्य ही राजा बहुत भक्त है, ऐसे तो ठीक नहीं आएगा, क्यूं ना इससे और तरीके से कुछ मांगा जाए दीन हो के । तब काल उसके सामने दीन हो गया। कहने लगा मैं तेरे सामने हाथ जोड़ता हूँ। मेरे रहने का टाइम आ गया है, बताओ फिर मैं कहां रहूं? आप मुझे कहीं भी जगह दे दो, मैं वहाँ रह लूँगा। कहने लगा ठीक है, आप शराब के अड्डे में रहिए, जहाँ जुआ चलता है वहाँ रहिए, भद्दा आचार जहाँ होता है वहाँ रहिए और एक-आधी जगह और जहां मांस, मदिरा का खान-पान होता है।
तो काल कहने लगा, राजन् मेरे लिए ये कम जगह है, एक-आध जगह, आप से विनती है, और दे दीजिए। कहने लगा, चल सोना, ये जल्दी से इकट्ठा नहीं होता, जहां ज्यादा सोना होता है वहां कोई न कोई ठगी, बेईमानी तो चलती रहती है, तेरे को गोल्ड में रहने की जगह दी। यही तो वो चाहता था। काल कहने लगा, जी ठीक है। सिर झुकाया और गुप्त हो गया। असल में वह राजा के मुकुट में घुस गया, क्योंकि वो भी गोल्ड था। ये तो राजा को ख्याल ही नहीं रहा। वो राजा पर छा गया। आगे यह लंबी कहानी है, थोड़ा शॉर्ट में कि जंगल में जब वो गया, प्यासा था, काल ने व्याकुल कर दिया। सामने गया ऋषि समाधि में बैठा था। उस ऋषि को उसने आवाजें दी, पानी चाहिए, कुछ खाने-पीने का सामान चाहिए।
ऋषि क्यों खड़ा हो, समाधि में था। तो गुस्सा आ गया और सोचने लगा क्या करूं? मारने को चाहा लेकिन अच्छे कर्मों की वजह से वो पाप करने से बचा। फिर भी, काल मुकुट में तो बैठा था, बुरी तरह से छा गया। इतना धर्मात्मा राजा जो काल का मुंह मोड़ दे, उसने एक मरा साँप उस ऋषि के गले में डाल दिया और वापिस घर आ गया। वहां अन्य ऋषि बैठे थे, उन्होंने जाकर उसके बेटे को बता दिया कि तेरे बाप के गले में फलां राजा ने (वो राजा आया था) गले में सांप डाल दिया। उसने उसे ये श्राप दे दिया कि ये सांप तुझे डसेगा। जब वो राजा महल में पहुंचा थका, हारा, टूटा हुआ जा कर लेटा और मुकुट उतार कर रखा साइड में, तब ध्यान आया कि इतना बड़ा अनर्थ मुझ से हो गया! इतना अपमान मैंने ऋषि का किया! लेकिन ‘फिर पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।’ तो उसका वो ही हश्र हुआ जो ऋषि-पुत्र ने श्राप दिया था। तो भाई! कहने का मतलब, नाम के बिना भी कर्मों-धर्मों से काल रुक तो जाएगा लेकिन पूर्णत: असर तभी छोड़ेगा जब नाम की धुन से आप जुड़ जाएंगे। फिर काल की मजाल नहीं कि ये कहीं घुस जाए। वरना तो ये घुसा ही रहता है किधर न किधर। तो सुमिरन के द्वारा, भक्ति के द्वारा, ये असर नहीं कर पाता और इन्सान मालिक के प्यार, दया-मेहर के काबिल बनता चला जाता है। आगे लिखा है-
‘मुंह से साबुन-साबुन कहता, कपड़ा एक भी धोता नहीं।
लाखों वर्ष अंधेरा ढोया, कभी प्रकाश होता नहीं।
नुस्खा पढ़ें बार-बार ‘गर, रोग कभी नहीं हट सकता।
सोना-सोना कहकर कोई, कौड़ी एक नहीं कमा सकता।
रोटी-रोटी कहकर मिटती, कभी किसी की भूख नहीं।
सुख की केवल बातें करने से,दूर होता कभी दु:ख नही।।
मंजिल और खड़ मंजिल-मंजिल, मंजिल से अनजान करे।
पल में पहुंचे मंजिल पर वो, जो अमल जल्दी परवान करे।।’
सच्चे मुर्शिद-ए-कामिल शाह सतनाम सिंह जी महाराज के आपने शेयर सुने कि साबुन-साबुन कहने से कपड़ा साफ नहीं होता, जब तक उसे घिसते नहीं, लगाते नहीं, निचोड़ते नहीं और खाना-खाना कहने से भूख नहीं मिटती बल्कि लार ज्यादा टपक आती है। कुछ भी करो कहने से कुछ नहीं होता जब तक कर्म नहीं करते। सो कहने का मतलब कि आप अमल कीजिए। राम बढ़िया, अल्लाह बहुत अच्छा है, वाहिगुरु बढ़िया है, ऐसा कहना तो अच्छी बात है, लेकिन इससे मालिक मिलता नहीं और न ही अन्दर तड़प पैदा होती है।
सुमिरन कीजिए, भक्ति -इबादत कीजिए, नाम का जाप करो तो तड़प पैदा होगी तथा काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मन और माया इन वैरियों को हरा पाएंगे और फिर आप दोनों जहान की खुशियों से मालामाल जरूर हो जाएंगे।
बस ये दो बातें कि नि:स्वार्थ भावना से प्रेम करो और मालिक के नाम का सुमिरन करो। किसी की बात पर ध्यान न दो। अहंंकार आने न दो। इन बातों पर आप अमल करेंगे और दूसरे शब्दों में अपने मन से लड़ेंगे, अपने अन्दर की बुराईयोें से लड़ें, तो आप जरूर जीत हासिल कर पाओगे और जरूर मालिक की दया-रहमत के काबिल बन पाओगे।