teach civilization for children - Sachi Shiksha

अपने उद्दंड असभ्य व्यवहार के लिए क्या पूर्णत: बच्चे ही दोषी हैं? आंशिक रूप से माना यह जीन्स का खेल है वर्ना क्यों एक ही घर में एक से वातावरण में पले बढ़े बच्चों में एक परोपकारी और दूसरा स्वार्थी स्वभाव वाला होता है लेकिन संस्कारों का भी अपना महत्त्व है बच्चे के विकास में। अच्छी शिक्षा, उचित लाड-प्यार, अनुशासन व थोड़ी सजा बच्चे के व्यक्तित्व के विकास के लिये जरूरी है। कई बार मां-बाप बच्चों को ऐशो आराम की चीजें, अच्छा खाना पहनना देकर नामी बोर्डिंग स्कूलों में भर्ती कराकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। बच्चे क्या सोचते हैं, उनका फ्रेंड सर्कल कैसा है, वे कहां क्या करते हैं,

इन सबसे वे बेखबर रहते हैं। बच्चों पर इस उपेक्षा का गलत असर पड़ता है। वे अपरिपक्व होते हैं। अच्छा-बुरा समझने की उनकी अभी उम्र नहीं होती। ऐसे में वे गलत बातें जल्दी अपना लेते हैं। बच्चे तो कच्ची माटी की तरह होते हैं। उन्हें चाहे किसी भी रूप में ढालने की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा मां-बाप की होती है। उसमें भी ये दायित्व पिता से ज्यादा मां का होता है क्योंकि पिता ज्यादातर बाहर रहते हैं।

बच्चों को उनकी कमियों व गलत बातों के लिये सहानुभूतिपूर्ण तरीके से समझाना चाहिए। क्रोधित होकर डांटना फटकारना और मारना पीटना उन्हें विद्रोही बना सकता है। एक दिन की बात है, दुकान पर कुछ सामान खरीदते हुए मैंने देखा सात आठ साल का बच्चा किसी महंगी चॉकलेट को खरीदने की जिद कर रहा था। पिता ने गुस्से में वहीं पर चार पांच लोगों के सामने बच्चे के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। अब इस तरह का व्यवहार करने पर बच्चे से कितनी सभ्यता की उम्मीद की जा सकती है। मां-बाप स्वयं असभ्यतापूर्ण व्यवहार करेंगे तो बच्चे क्या सीखेंगे?

घर आये मेहमानों को आदर से बिठाना, अगर धूप में आये हैं तो उन्हें आते ही कम से कम पानी जरूर पिलाना, बड़े बुजुर्गों की मदद करना, उनकी बूढ़ी काया की हंसी नहीं उड़ाना, ये सब मामूली बातें हैं लेकिन कितनी अहम हैं। बच्चे में इंसानियत का जज्बा हो तो वो कोई भी ऐसा काम नहीं करेगा जिससे आपको कभी भी शर्मिन्दगी उठानी पड़े। संपूर्ण या आदर्श होना मनुष्य के लिये एक असंभव सी बात है लेकिन आदर्श को सामने रखकर उस तक पहुंचने की कोशिश तो की जा सकती है।

जरूरी नहीं कि सभ्यता अमीर घरों में ही देखने को मिले। गरीब असभ्य गंवार ही हों, ऐसा कुछ नहीं। ऊपरी मुलम्मा अगर चढ़ायेंगे तो उसे उतरते देर नहीं लगती। ‘धन्यवाद’, ‘माफ करना’, ‘मेहरबानी करके’, सिर्फ ये शब्द बोल लेने से ही कोई बच्चा सभ्य नहीं बन जाता। सभ्य बनता है वह अपने आचरण से, अपने कार्यों से व अपनी अच्छाई नेक दिली से।

अच्छे संस्कार ही वो आंतरिक सभ्यता है जिसे हमें अपने बच्चों में कूट-कूट कर भरना है। तब न सिर्फ वे मिलने वालों का मन मोह लेंगे और उन्हें अपना बना लेंगे बल्कि जीवन पथ पर आसानी से बगैर किसी से झगड़ा मनमुटाव

किये अग्रसर होते रहेंगे। -उषा जैन शीरीं

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