देश की राजधानी दिल्ली की सीमावर्ती क्षेत्रों में किसानों के शुरू हुए पडाव पर दुनियाभर की निगाहें टिकी हुई हैं। इस किसान आंदोलन की शुरूआत केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन कृषि अध्यादेशों से जुड़ी है।
बेशक केंद्र की भाजपा सरकार नए कृषि बिलों से इस क्षेत्र में बड़े परिवर्तन आने व विकास के नए द्वार खुलने के दावे कर रही है, लेकिन यह बात किसानों के गले नहीं उतर पा रही। उनका आरोप है कि कानूनों की आड़ में सरकार कृषि क्षेत्र को कारपोरेट घरानों के पास गिरवी रखना चाहती है।
इन कानूनों के लागू होने से फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) के साथ छोटी मंडियां भी खत्म हो जाएंगी, वहीं जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा। किसानों का यह भी कहना है कि ये बिल कृषि पर एकाधिकार जमाने जैसे हैं। तभी सरकार ने कोरोना काल में दबे पांव सदन में अध्यादेश लाकर इन बिलों को कानून का जामा पहनाने का प्रयास किया है।
देश के अधिकतर राज्यों में इन बिलों के खिलाफ किसान आंदोलन में उतर चुके हैं। किसान संगठन 26 नवंबर 2020 से दिल्ली की सीमाओं के बाहर डेरा डाले बैठे हैं। दिल्ली से निकलने वाले कई नेशनल हाईवे के दोनों ओर कई किलोमीटर तक ट्रेक्टर-ट्रालियां खड़ी नजर आती हैं। वहीं इस आंदोलन के समर्थन में विदेशों में भी आवाज उठ रही है। उधर किसानों की कदमताल की आहट दिल्ली में भी सुनाई देने लगी तो सरकार ने बातचीत के द्वार खोल दिए।
करीब 6 दौर की वार्ता हुई, लेकिन परिणाम नहीं निकल पाया। किसान संगठन इन बिलों को वापिस करवाने की बात पर अड़े हुए हैं, वहीं सरकार इन कानूनों में संशोधन के बहाने यह तो स्वीकार कर रही है कि इनमें खामी है और इन खामियों को सुधारने की बात भी कह रही है, लेकिन बिलों को वापिस लेने से साफ इन्कार कर रही है।
सरकारी हटधर्मिता के बीच किसान आंदोलन में अब तक 22 से ज्यादा किसान अपना जीवन गंवा चुके हैं। सरकार का हमेशा यह प्रयास होना चाहिए कि जनता द्वारा, जनता के लिए स्थापित लोकतंत्र की मर्यादा कायम रहे। यदि कृषि क्षेत्र में सुधार के सरकारी दावे किसानों को रास नहीं आ रहे तो ऐसे में सरकार को खुले दिल से सार्वजनिक मंच पर आकर नए रास्ते तलाशने चाहिएं। इन कानूनों के बुनियादी ढांचे में बदलाव की सम्भावनओं के मद्देनजर कृषि विशेषज्ञों एवं किसान संगठनों को साथ लेकर इन मसौदे पर विचार करना चाहिए,
क्योंकि जो देश मूल रूप से कृषि क्षेत्र पर निर्भर हो, वहां किसानों की सहमति से ही बदलाव की बयार लाई जा सकती है, तानाशाही या जोर-जबरदस्ती से नहीं। यदि समय रहते इस मसले का समाधान नहीं निकला तो दिल्ली की सरहद पर गूंजते विरोध और बहिष्कार के नारे देश की अर्थव्यवस्था पर गहरा आघात पहुंचा सकते हैं।
आंदोलन में संयम
कड़ाके की ठंड के बीच किसानों का बुलंद हौंसला चर्चा का विषय बना हुआ है। खास बात यह भी है कि इन किसानों में 65 साल से अधिक उम्र के बुजुर्ग भी मौजूद हैं, वहीं युवाओं के साथ महिलाओं का हौसला भी सोशल मीडिया पर सुर्खियों में छाया हुआ है। वहीं लोक कलाकारों ने गीतों के द्वारा इस आंदोलन में एक नया जोश जगाया है।
हालांकि इस आंदोलन में अधिकतर भागीदारी युवा किसानों की रही है, लेकिन युवा जज्बे के बीच यह आंदोलन जिस शांति, संयम एवं सहनशीलता से चल रहा है, वह अपने आप में नया इतिहास भी लिख रहा है। बताते हैं कि करीब साढ़े तीन दशक पूर्व भी ऐसा ही एक किसान आंदोलन हुआ था, जिसने आमजन की बहुत सुर्खियां बटौरी थी, लेकिन यह आंदोलन उससे भी बढ़कर प्रतीत होता है।
खुले आसमान में रात बिताने को मजबूर
ठंड का मौसम भी आंदोलन में रूकावट बनने का प्रयास कर रहा है लेकिन किसान संगठनों ने सर्दी से निपटने के लिए व्यापक स्तर पर तैयारी की हुई है। कई किसानों द्वारा तंबू लगाए गए हैं, वहीं कुछ ट्रैक्टर-ट्रालियों को ही अपना आश्रय बनाए हुए हैं। रातें अलाव के सहारे कटती है।
स्थानीय लोग भी दे रहे समर्थन
सिंघू बॉर्डर पर स्थानीय लोग भी खुलकर आंदोलनकारियों के साथ आते दिख रहे हैं। महिला प्रदर्शनकारियों को अपने शौचालयों का इस्तेमाल करने की छूट दे रखी है। यही नहीं, अपने मोटर पंपों से किसानों को पेयजल भी मुहैया करवा रहे हैं। टिकरी बॉर्डर पर 392 मोबाइल शौचालय बनाए गए हैं। साथ ही कचरे के प्रबंधन के लिए सैफ्टी टैंक भी वहां रखे गये हैं।
हमें तो अब मिला असली अन्नदाता
किसान संगठनों द्वारा दिल्ली आंदोलन के दौरान जगह-जगह लंगर चलाए जा रहे हैं जो आस-पास के एरिया के गरीब लोगों के लिए रामबाण साबित हो रहे हैं। गरीब, असहाय व दिव्यांग लोगों को खीर, फल, मीठा चावल तथा स्नेक्स आदि फ्री में बांटा जा रहा है। किसान कबाड़ और कचरा बीनने वाले लोगों की भी सहायता कर रहे हैं।
तीनों नए कृषि बिलों को लेकर केंद्र सरकार भविष्य के विकास का दम भर रही है,
वहीं किसान इन बिलों पर गहरी शंकाएं जता रहे हैं। इस गतिरोध को इस प्र्रकार भी समझ सकते हैं:-
कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020
शंका:
न्यूनतम मूल्य समर्थन (एमएसपी) प्रणाली समाप्त हो जाएगी। किसान यदि मंडियों के बाहर उपज बेचेंगे तो मंडियां खत्म हो जाएंगी। ई-नाम जैसे सरकारी ई-ट्रेडिंग पोर्टल का क्या होगा?
सरकार का दावा:
एमएसपी पहले की तरह जारी रहेगी। एमएसपी पर किसान अपनी उपज बेच सकेंगे। मंडियां खत्म नहीं होंगी, बल्कि वहां भी पहले की तरह ही कारोबार होता रहेगा। किसानों को अन्य स्थानों पर अपनी फसल बेचने का विकल्प मिलेगा। मंडियों में ई-नाम ट्रेडिंग जारी रहेगी। इलेक्ट्रानिक प्लेटफॉर्मों पर एग्री प्रोडक्ट्स का कारोबार बढ़ेगा। पारदर्शिता के साथ समय की बचत होगी।
कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020
शंका:
कॉन्ट्रेक्ट करने में किसानों का पक्ष कमजोर होगा, वे कीमत निर्धारित नहीं कर पाएंगे। छोटे किसान कैसे कांट्रेक्ट फार्मिंग करेंगे? प्रायोजक उनसे दूरी बना सकते हैं। विवाद की स्थिति में बड़ी कंपनियों को लाभ होगा।
सरकार का दावा:
कॉन्ट्रेक्ट करना है या नहीं, इसमें किसान को पूरी आजादी रहेगी। वह अपनी इच्छानुसार दाम तय कर फसल बेचेगा। अधिक से अधिक तीन दिन में पेमेंट मिलेगा।
देश में 10 हजार फार्मर्स प्रोड्यूसर ग्रुप्स (एफपीओ) बन रहे हैं। विवाद की स्थिति में कोर्ट-कचहरी जाने की जरूरत नहीं होगी। स्थानीय स्तर पर ही विवाद निपटाया जाएगा।
आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक – 2020
शंका:
बड़ी कंपनियां आवश्यक वस्तुओं का स्टोरेज करेगी। उनका दखल बढ़ेगा। इससे कालाबाजारी बढ़ सकती है।
सरकार का दावा:
निजी निवेशकों को उनके कारोबार के आॅपरेशन में बहुत ज्यादा नियमों की वजह से दखल महसूस नहीं होगा। कोल्ड स्टोरेज एवं फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ने से किसानों को बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर मिलेगा।
किसान की फसल खराब होने की आंशका दूर होगी। एक सीमा से ज्यादा कीमतें बढ़ने पर सरकार के पास उस पर काबू करने की शक्तियां तो रहेंगी ही। इंस्पेक्टर राज खत्म होगा और भ्रष्टाचार भी।