Giving up greed is best

Giving up greed is bestलोभ का त्याग करना ही श्रेयस्कर है Giving up greed is best
एक बार एक व्यक्ति ने एक फाइनांस कंपनी खोली और लोगों से कहा कि वह हर महीने उनकी रकÞम दोगुनी करके वापस देगा। उसने लोगों के सिर्फ सौ-सौ रुपये जमा किये और एक महीने बाद सबको दो-दो सौ रुपये लौटा दिये।

इसके बाद उसने लोगों के सिर्फ एक-एक हजार रुपये जमा किये और एक महीने बाद सबको दो-दो हजार रुपये लौटा दिये। इससे कंपनी पर लोगों का ऐसा विश्वास जम गया कि लोग बैग भर-भर कर रुपये लाने लगे।

कुछ ही दिनों में कई सौ करोड़ रुपये इकट्ठे हो गए और वही हुआ जो होता आया है, कंपनी बंद और फाइनांसर गायब।
अभी हाल ही में एक और निवेश कंपनी लोगों के तीन सौ करोड़ रुपये लेकर चंपत हो गई। कंपनी ने अपने निवेशकों को विश्वास दिलाया कि वे डेढ़ साल में उनकी रकम सत्ताइस से सौ गुना तक बढ़ा कर देंगे, लेकिन कंपनी के निर्देशक निवेशकों को सब्जबाग दिखाकर तीन सौ करोड़ रुपये एकत्र कर रातों रात गायब हो गए। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रही है बस रूप बदल जाता है। कभी कोई एक महीने में रकम दोगुनी करने का वादा करता है तो कोई बाजार भाव से आधे पैसों में सामान देने का विश्वास दिलाता है, लेकिन क्या ये संभव है? हर्गिज नहीं।

इस खुली प्रतियोगिता के जमाने में कोई कंपनी इतना लाभ कैसे कमा सकती है कि वो अपने निवेशकों के धन को हर महीने दोगुना कर दे? फिर भी लोग इन घटनाओं से सबक क्यों नहीं लेते? क्यों बार-बार अपनी ख़ून-पसीने की गाढ़ी कमाई इस प्रकार के लुटेरों के हाथों में सौंप देने को विवश हो जाते हैं? इसका प्रमुख कारण है हमारी अतिशय लोभवृत्ति जिसके कारण हम न तो कॉमन सेंस का इस्तेमाल करते हैं और न पुरानी घटनाओं से सीख ही लेते हैं।

एक पुरानी घटना याद आ रही है। हर साल की तरह उस साल भी गाँव में ठठेरे आए और गलियों में घूम-घूम कर आवाजें लगाने लगे, ‘टूटे-फूटे बर्तन सँवरवा लो, बर्तनों पर कलई करा लो।’ लोग भी इंतजार में थे कि ठठेरे आएँ और पीतल-ताँबे के टूटे-फूटे बर्तनों की मरम्मत हो। घरों से टूटे-फूटे बर्तन बाहर निकलने लगे और होने लगा मोल-भाव। जो काम पहले दस रुपये में होता था उस काम के लिए ये नये ठठेरे सिर्फ पाँच रुपये मांग रहे थे, यह जानकर लोग खुश थे लेकिन फिर भी मोल-भाव हो रहा था।

ठठेरों ने दस रुपये की बजाय पाँच रुपये माँगे तो भी किसी ने कहा कि तीन रुपये से ज्यादा न देंगे। फिर भी ठठेरों ने मना नहीं किया। ठठेरे जो जितना कहता, मान लेते और भाग-भाग कर बर्तन जमा करने लगे। देखते-देखते बर्तनों का अंबार लग गया। धीरे-धीरे सांझ घिर आई। ठठेरे अपना खाना बनाने का जुगाड़ करने में लग गए और लोगों से कहा कि कल सुबह भट्ठी चालू करके बर्तनों की मरम्मत का काम शुरू करेंगे।

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लोग बर्तन देकर अपने-अपने कामों में लग गए। जो लोग उस समय घरों में नहीं थे, घर आने पर उन्होंने जब ये सुना कि इतने सस्ते में बर्तन मरम्मत हो रहे हैं तो वो भी अपने-अपने बर्तन लेकर ठठेरों के रुकने के स्थान पर पहुँचे। वहाँ जाकर देखा तो पाया कि न तो ठठेरे ही वहाँ मौजूद थे और न बर्तन ही रखे थे। अब लोगों की समझ में आया कि वे इतने कम दामों में बर्तन सँवारने के लिए क्यों तैयार हो गए थे लेकिन अब क्या हो सकता था? जहाँ भी हम लोभ या मुफ्त-लाभवृत्ति के वशीभूत हो जाते हैं वहाँ ऐसा ही होता है। ऐसा होना स्वाभाविक है।

लेकिन सोचिए कि कोई किसी को मुफ्त में या बहुत कम कीमत में कोई चीज या सेवा कैसे उपलब्ध करा सकता है? क्या आप सामान्य अवस्था में ऐसा कर सकते हैं? नहीं न? तो कोई भी कैसे ऐसा कर सकता है और यदि कोई ऐसा करने का दिखावा करता है तो वह बहुत महँगा पड़ता है। लोभवृत्ति ही नहीं अपितु मुÞफ्त-लाभवृत्ति, आत्मप्रशंसा तथा ख़ुशामद कराने की आदत, अहंकार, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जाना ऐसी आदतें हैं जो एक दिन हमारे पतन का कारण बनती हैं। अत: हानि और दुख से बचने के लिए लोभ का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। -सीताराम गुप्ता

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