स्वाधीनता संग्राम का प्रथम शहीद मंगल पांडे Mangal Pandey

खामोश बैठे रहने से तुम्हें आजादी नहीं मिलेगी! तुम्हें देश और धर्म पुकार रहा है। उसकी पुकार सुनो। उठो, मेरा साथ दो ताकि फिरंगियों को बाहर खदेड़ दें! ये कर्ण भेदी स्वर मेजर हयूसन के कानों में पड़ते ही उसने अपने सैनिकों को उन्हें बंदी बनाने का हुक्म दिया! पर कोई सैनिक अपनी जगह से न हिला।

29 मार्च 1857 का वो महान दिन था जिस दिन भारत माता के महान बेटे ने अपनी मां को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलवाने का प्रथम प्रयास किया। भारत के उस महान सपूत, स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी मंगल पांडे ने सबसे पहले अंग्रेजों पर गोली चलाई। फिर इसी गोली की चिंगारी ज्वाला बनकर अंग्रेजों पर टूट पड़ी थी।

Mangal Pandey मंगल पांडे इस महान कार्य को अंजाम देकर अमर हो गए। उन्हें मालूम था कि अगर वे ऐसा करेंगे तो इसका नतीजा क्या हो सकता है। परंतु फल की चिंता न करते हुए, गुलामी की बेड़ियों के बोझ के दु:ख ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दिया। अपने अंग्रेज अफसर पर गोली चला कर उन्होंने भारत के स्वतंत्रता के इतिहास में अपना नाम सुनहरे शब्दों में अंकित करवा लिया।

वे एक सीधे सादे ब्राह्मण थे, न कि कोई महान नेता या परमवीर योद्धा। वे अंग्रेजों के एक मामूली सिपाही थे, पर उनकी रगों में भारतीय खून बहता था। इसी खून की पुकार सुनकर वे स्वतंत्रता की बलिवेदी पर बलिदान हो गए।
सन् 1857, जबकि देश दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, नाना साहब ने बहुत प्रयत्न करके भारत के सिपाहियों के दिलों में देश प्रेम की जोत ज्वलित की। इसी जोत ने ज्वाला बनकर देश-प्रेमियों को विद्रोह करने के लिए उकसाया। 31 मार्च 1857 का दिन निश्चित किया गया अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाने का।

लेकिन किसी असहनीय कारणवश मंगल पांडे Mangal Pandey ने 29 मार्च को एक अंग्रेज अफसर पर गोली चला दी और इसके साथ ही इस महाक्रांति के यज्ञ का शुभारंभ हो गया। कई कहते हैं (इतिहास के अनुसार) कि मंगल पांडे ने (तयशुदा समय से पहले) गोली चला कर भारी भूल की थी और इसीलिए 1857 की क्रांति असफल हो गई। देखा जाए तो उन्होंने ऐसा जानबूझ कर नहीं किया था, बल्कि उस समय ऐसी असहनीय परिस्थितियां बन गई थी कि उसे विवश होकर गोली चलानी पड़ी थी।

इस क्रांति की शुरूआत कोलकाता से हुई। कोलकाता के सैनिकों में यह अफवाह जोर पकड़ गई कि अंग्रेज जो कारतूस सैनिकों को देते हैं और जिन्हें वे अपने दांतों से काटकर खोलते हैं, उनमें सुअर तथा गाय की चर्बी भरी होती है। फिर क्या था। इस अफवाह से हिंदू तथा मुसलमान दोनों धर्मों के सैनिकों में रोष फैल गया। ये सैनिक अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की भावना से भड़क उठे। उन्होंने निश्चय किया कि प्राण दे देंगे पर देश और धर्म का अपमान कदापि सहन नहीं करेंगे।

विद्रोह की सूचना अंग्रेजों तक भी पहुंच गई। उन्होंने विद्रोह को दबाने का निश्चय किया। बर्मा से गोरी पलटन बुला ली गई तथा इधर उन्होंने उन्नीस नम्बर की इस पलटन को भंग करने का निर्णय ले लिया। इसी पलटन का एक सिपाही था ‘मंगल पांडे’। इस फैसले से उनके दिल में आग का दरिया धधक उठा। उन्हें लगा 31 मार्च तो बहुत दूर है। अगर वे उस दिन तक इंतजार करते रहे, तो अंग्रेज अनर्थ कर देंगे। वे (मंगल पांडे) चाहते थे कि विद्रोह का बिगुल अभी से बजा दिया जाना चाहिए। पर उनके साथियों ने उनकी बात का समर्थन करने से इंकार कर दिया।

29 मार्च 1857 का दिन, करीब 10 बज रहे थे। मंगल पांडे अपनी भरी हुई बंदूक लेकर मैदान में जा खड़े हो गए। वहां पर सैनिक परेड कर रहे थे। शेर के समान गरजते हुए उन्होंने अपने साथियों से कहा, ‘खामोश बैठे रहने से तुम्हें आजादी नहीं मिलेगी! तुम्हें देश और धर्म पुकार रहा है। उसकी पुकार सुनो। उठो, मेरा साथ दो ताकि फिरंगियों को बाहर खदेड़ दें! किसी ने उनका साथ नहीं दिया। वे उसी प्रकार सिंह गर्जन करते रहे। तभी मेजर हयूसन उधर आया। मंगल पांडे के कर्ण भेदी स्वर उसके कानों में पड़ते ही उसने सैनिकों को उन्हें बंदी बनाने का हुक्म दिया! पर कोई सैनिक अपनी जगह से न हिला।

तभी हयूसन के शब्दों का उत्तर मंगल की बंदूक ने दे डाला। धांय… धांय…। बंदूक से गोली छूटी और हयूसन धरती पर कटे वृक्ष की भांति गिर पड़ा! हयूसन को गिरता देख दूसरा अंग्रेज अफसर ‘लेफ्टिनेंट बाग’ घोड़े पर सवार होकर आया। मंगल ने उसे भी अपनी बंदूक का निशाना बना दिया। जब मंगल अपनी बंदूक में पुन: गोली भरने लगा तो बाग ने अपनी पिस्तौल से उस पर फायर कर डाला परंतु भाग्य की बात, निशाना चूक गया। मंगल ने तलवार से उसे मार गिराया। इसके पश्चात् तीसरे को भी धराशायी कर दिया।

परेड मैदान में तीन-तीन गोरों की लाशें बिखरी पड़ी थी और मंगल पांडे, भारत मां का लाल गर्जन किए जा रहा था। तभी कर्नल वीलर आया पर उसके भी हुक्म को सैनिकों ने मानने से इंकार कर दिया। उसके उपरांत कर्नल हियरसे ने गोरे सैनिकों के बल पर उसे बंदी बनाना चाहा। जब मंगल पांडे ने अपने चारों तरफ गोरे सैनिक देखे तो वे समझ गए कि अब उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा लेकिन वे जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ना चाहते थे। उन्होंने अपनी छाती में गोली दाग ली पर भाग्य धोखा दे गया।

वे धरती पर गिर तो पड़े लेकिन मरे नहीं! उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया और वहां वे स्वस्थ हो गए। सैनिक अदालत में उन पर मुकद्मा चलाकर मृत्यु दंड दिया गया और इस प्रकार उन्हें 8 अप्रैल 1857 को फांसी दी गई। जब उन्हें फांसी देने का दिन आया तो बैरकपुर के जल्लादों ने उस महान सपूत को फांसी के फंदे पर लटकाने से साफ इंकार कर दिया। इस बात से अंग्रेज सरकार हतप्रभ रह गई। कोलकाता से 4 जल्लादों को मंगवाया गया। उन्हें यह मालूम तक भी नहीं होने दिया गया कि वे किसको फांसी दे रहे हैं और उसका अपराध क्या है अर्थात् उन जल्लादों से मंगल पाण्डे के विषय में जानकारी गुप्त रखी गई थी।

इस तरह स्वाधीनता संग्राम के प्रथम क्रांतिकारी को फांसी दे दी गई। पर वह शहीद मर कर भी अपने देशवासियों के दिलों में याद के रूप में जीवित हैं। वो मर कर भी अमर हैं।
-सुरेश ‘डुग्गर’

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