हर कोई चाहता है कि उनका बच्चा पढ़ाई में सबसे ‘अव्वल’ रहे। बच्चा अपनी शक्ति भर पढ़ने-लिखने की कोशिश करता भी है, फिर भी न पढ़ने की शिकायत अधिकतर माता-पिता की बनी रहती है। आमतौर पर अभिभावक बच्चों के लिए अच्छे से अच्छे अध्यापक को ट्यूशन के लिए रखते हैं। बच्चों को पब्लिक स्कूलों में पढ़ाते हैं ताकि वे अच्छी पढ़ाई कर सकें।
आजकल कॉन्वेंट की पढ़ाई को ही माता-पिता अच्छी पढ़ाई का मापदंड मान बैठे हैं लेकिन यदि बच्चे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं या पढ़ाई में रूचि नहीं दिखाते तो इसके लिए वे बच्चों को दोष न देकर शिक्षकों या शिक्षा प्रणाली को ही दोषी ठहराते हैं। अभिभावक इसके पीछे छिपे कारणों को ढूंढने की कोशिश कभी नहीं करते। सच तो यह है कि बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका घर ही होता है।
घर का माहौल और माता-पिता का सहयोग ही बच्चे के विकास में सहायक होता है। अगर ध्यान से देखा जाय तो यह विदित होगा कि किसी भी बच्चे में पढ़ने के प्रति अरूचि नहीं होती। अन्य बच्चों व अपने बड़े भाई-बहनों को देखकर बच्चे स्वयं पढ़ने लगते हैं, उन्हीं की तरह वे भी स्कूल जाना चाहते हैं लेकिन जब हम इस पढ़ाई की सही ढंग से शुरूआत न करके उसकी छोटी व कोमल बुद्धि के लिये उसे हौवा बना देते हैं तो बच्चे में उसके प्रति एक भय-सा जागृत हो जाता है जो पढ़ाई से उन्हें विमुख कर देता है।
बच्चे के लिए जब कोई कार्य खेल की तरह किया जाता है तो वह उसका मनोरंजन भी करता है लेकिन जब वही कार्य कर्तव्य की तरह उस पर थोपा जाता है तो वह उसके लिए बोझ बन जाता है। जिस प्रकार उपन्यास, कहानियां हम बड़े अपनी रूचि से पढ़ते हैं और अंत किये बिना उसे नहीं छोड़ते परन्तु जब कोई कहानी या उपन्यास हमारे पाठ्यक्र म में शामिल हो जाता है तो हम उसे उतनी रूचि से नहीं पढ़ पाते, अत: माता-पिता को भी बच्चों के मनोविज्ञान को भी समझने की कोशिश करनी चाहिये। छोटे बच्चों की पढ़ाई की शुरूआत खेल-खेल में ही करानी चाहिए। इससे बच्चों में पढ़ाई के प्रति रूचि जागृत होगी और वे सरलता से पढ़ सकेंगे।
अपने बच्चों को माता खेल-खेल में ही प्रारंभिक ज्ञान को दे सकते हैं। जब वह किचन में हो तो अपने बच्चे से आलू, बैंगन, परवल आदि गिनकर टोकरी में रखने को कह सकती है। जब बगीचे में हों तो गमले या फूलों को गिनने के लिए कह सकती हैं या फिर उन फूलों के रंगों को बताने के लिए कह सकती हैं। इन सभी का नाम हिंदी, अंग्रेजी दोनों में ही बता सकती हैं। इस प्रकार बच्चा खेल-खेल में ही रंग, गिनती, हिंदी-अंग्रेजी में नाम आदि को सीख सकता है। इस प्रकार बच्चे को न तो कोई मानसिक तनाव ही झेलना होगा और न ही उस पर कोई खास मेहनत ही करनी होगी। पढ़ाई का यह मनोरंजक तरीका पढ़ाई को सरल बना देगा। कई बार अभिभावक बच्चे को पढ़ाते समय बहुत जल्दी क्र ोधित हो जाते हैं। इससे बच्चे सहम जाते हैं या फिर रोने लगते हैं, इसलिए बच्चों को पढ़ाते समय बहुत संयम बरतना चाहिये। जब बच्चा किसी बात को समझ न पा रहा हो तो उसका कारण जानने की कोशिश करनी चाहिये।
उस पर झल्लाने से बेहतर होगा कि थोड़ी देर बाद उसे पुन: समझायें। अगर फिर भी न समझे तो चित्रों, नक्शों, व उदाहरणों से उसे समझाना चाहिए। कई बार अभिभावक या माता-पिता बच्चों पर अनावश्यक रूप से काम का बोझ डाल देते हैं। विद्यालय भी होली, दशहरा या ग्रीष्मावकाश की लम्बी छुट्टियों में ढेर सारा होमवर्क का बोझ डाल देते हैं। विद्यालयों को अपनी इन परम्पराओं को तोड़ना चाहिए क्योंकि छुट्टियों में भी बच्चे होमवर्क के तनाव से ग्रसित रहते हैं और खेल-कूद नहीं पाते।
कुछ बच्चे इस कार्यभार से मुक्त होने के लिए झूठ बोलना भी सीख जाते हैं। माता-पिता या अध्यापकों को बच्चे की मानसिकता के अनुसार ही उन पर पढ़ाई का बोझ डालना चाहिए ताकि बच्चे पढ़ने में रूचि दिखायें। -पूनम दिनकर