स्वयं को जानने से पहले बाधाओं को जानें

स्वयं को जानने से पहले बाधाओं को जानें
बचपन से ही हमें सिखाया गया, ‘कोई भी नया काम करने से पहले स्वयं को जानें। कुछ बड़े हुए, कुछ बड़े काम करने चाहे तो कहा गया, ‘अपनी क्षमता का आंकलन करके ही कदम बढ़ाना।’ युवा हुए तब भी लगातार ‘परिस्थितियों को समझने के साथ-साथ अपनी औकात को समझने’ की सीख पीछा करती रही। स्पष्टीकरण मांगने पर समझाया जाता, ‘गाड़ी में ज्यादा माल लोड करने से पहले गाड़ी में लगे इंजन की शक्ति को जानना जरूरी है।

हो सकता है जरूरत से ज्यादा वजन कुछ दूरी तक खींचने में सफल हो जाये, लेकिन कुछ समय बाद धोखा मिलना तय है।’ ऐसे अनेक उदाहरणों के साथ बढ़ते रहें। सफलता और असफलता भी साथ-साथ चलते रहें। हर सफलता ने खुशी दी तो हर असफलता ने निराशा। कभी-कभी तनाव भी मिला। सुख और शांति चाही तो कहा गया कि अपने आपको जान लें, तभी शांति और सुख महसूस कर पाओंगे। सवाल यह कि आखिर अपने आपको कैसे जाना जाए?

कहा गया, ‘अपने आपसे बात करो।’ लेकिन बाहरी हलचल, शोर में अपने आपसे बात तो नहीं, हां तनाव, चिड़चिड़ापन जरूर हो सकता है। लगा कि इसके लिए तो बिलकुल शांत वातावरण चाहिए। अनुभवियों ने बताया कि शरीर का शिथिलीकरण होना चाहिए। इन्द्रियों पर संयम हो। न आंख से देखने का प्रयत्न हो, न कान से सुनने का प्रयत्न। सुनाई देता रहे पर प्रयत्न न रहे। न कुछ खाने का प्रयत्न, न कुछ पाने का। न छूने का प्रयत्न, न रोने का।

अब प्रश्न यह उठा कि क्या सदा सक्रि य रहने वाली इन्द्रियां अप्रयत्न को मानती है। हां, अगर प्रयत्न किया जाये। अभ्यास से ऐसा भी संभव है। जब अप्रयत्न हमारे भीतर घटित होगा तो तभी हम स्वयं को जान सकते हैं। यह अप्रयत्न भी ठीक वैसा है जैसा किसी घटना पर अपने भावों को काबू रख उस पर प्रतिक्रि या दी जाये। यानी स्वयं को हर प्रकार दुराग्रह, पूर्वाग्रह से मुक्त कर निरपेक्ष भाव से पहले समझना और फिर कुछ कहना। प्रयत्न कें द्वारा, प्रवृत्ति के द्वारा, हलचल के द्वारा अपने आपको जानने का प्रयास ठीक वैसा ही है जैसे आंधी में दीया जलाने का प्रयास।

यह असंभव तो नहीं लेकिन असंभव के बहुत निकट ही होगा। इसके लिए मन, वचन और काया तीनों का संयम करना होता है। प्राणायाम का अभ्यास करना होगा। श्वास को भी शांत करना होगा। श्वास तेज तो मन की गति भी इधर-उधर होती रहेगी। श्वास का हमारे भावों से बहुत घनिष्ठ संबंध है। अनुभव करके देखिये, जब भी हमारे भाव में काम, क्र ोध अथवा अन्य किसी प्रकार की उत्तेजना आती है, आवेश आता है तो हमारा श्वास छोटा हो जाता है लेकिन सांसों की संख्या बढ़ जाएगी। आवेश शांत हो तो श्वास की संख्या घट जाती है अर्थात् श्वास और आंतरिक व्यक्तित्व का भी बहुत गहरा संबंध है। तनाव में भी अक्सर व्यक्ति की सांसें तेज होती हैं।

जब श्वास शांत और मंद, वाणी संयमित और मन एकाग्र होकर किसी चेतना केन्द्र पर टिक जाये तो कहा जा सकता है हम ध्यान के निकट पहुंच रहे हैं। जब ऐसी स्थिति बनती है, तभी स्वयं को जानने का अवसर मिलता है। उस क्षण हम अनुभव करते हैं कि मैं क्या हूं और मेरे भीतर क्या है। मेरी क्षमता क्या है। इस स्थिति में जो अनुभव होता है उसे आनंद कहो या शांति, बस संतुष्टि का अनुभव होता है। हम स्वयं को जानने के साथ-साथ अपने भीतर की संपदा का अनुभव कर सकते हैं। उस अवस्था में भी अगर मन में बुरे विचार आयें तो समझो भीतर अभी भी कूड़ा-करकट शेष है।

दुख अनुभव हो तो समझों कि संसार, समाज द्वारा दी गई पीड़ा के घाव भीतर में हरे हैं। जब तक अपनी सांसारिक पहचान और अपने उन्नयन का भाव रहेगा तो भीतर सवाल उठते रहेंगे- यह काम करूं या न करूं। हम सामान्य अवस्था में जो कुछ करते हैं, भोगते हैं वह भीतर संचित रहता है और उसका प्रभाव आसानी से नष्ट नहीं होता। स्वयं को जानने की प्रक्रि या में अपनी सांसारिक पहचान नहीं, आध्यात्मिक पहचान को जानना और स्वीकार करना है, तभी मिथ्या चीजों से मोहभंग होगा। सम्यक दृृष्टि बनेगी।

सम्यक दृृष्टि अर्थात निरपेक्ष भाव का उदय। निरपेक्ष होते ही जीवन यात्रा की दिशा और दशा बदल जाती हैं। इस यात्रा में जिन दो तत्वों का सामना प्रमुख रूप से होता है वे हैं- काम और अर्थ। काम पथभ्रष्ट कर जीवन को गड़बड़ा सकता है। वहीं शरीर की जरूरतों के लिए अर्थ जरूरी है। अर्थ का अति अभाव है अथवा अर्थ का अति प्रभाव दोनों स्थितियां अच्छी नहीं है। अभाव शुष्क रेत के समान है। रेत पर चलना कठिन होता है। इसी प्रभाव अति प्रभाव दलदल के समान है।

अति विलासिता, कामुकता, धन का फूहड़ प्रदर्शन रूपी दलदल भी हमें कहां आगे बढ़ने देता है। ये दोनों ही स्थितियां शारीरिक व मानसिक विकृतियों का कारण बनती हैं। मन पर राग, द्वैष, काम, अर्थ हावी हों तो ‘स्वयं को जानना’ दूर की बात, हम अपने हित- अहित को भी नहीं जान पाते। सार यह कि स्वयं को जानने से पहले इस राह की बाधाओं की पहचान जरूरी है। आओ स्वयं को जानने की यात्रा आरंभ करें! -डा. विनोद बब्बर

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