Ruhani (Spiritual) Satsang - Shah Satnam Ji Dham -Dera Sacha Sauda - Sachi Shiksha

रूहानी सत्संग: पूजनीय परमपिता शाह सतनाम जी धाम, डेरा सच्चा सौदा सरसा
अपने औगुण छड्ड किसे दे फोलीं ना।
देख पराया माल कदे वी डोलीं ना॥

मालिक की साजी नवाजी प्यारी साध-संगत जी, आप सबका सत्संग में पधारने का तहदिल से बहुत-बहुत स्वागत करते हैं, जी आया नूं, खुशामदीद कहते हैं, मोस्ट वैल्कम। जैसा कि आप सभी लोग जानते हैं कि रूहानी सत्संग सर्व-धर्म संगम होता है।

इंसानियत के बारे में संत-महापुरुषों के अनुभव होते हैं जो वे महसूस करते हैं और समाज को बताते हैं। सभी धर्मों का अदब-सत्कार, इज्जत संत, पीर-फकीर करते हैं। वे किसी भी इंसान को बुरा नहीं कहते बल्कि बुराई को बुरा कहते हैं और जो अच्छाई है उसको अच्छा कहते हैं। आज के सत्संग का जो भजन है, जिस पर आज का सत्संग होना है, आपकी सेवा में अर्ज करना है वह भजन, शब्द है :-

अपने औगुण छड्ड किसे दे फोलीं ना।
देख पराया माल कदे वी डोलीं ना॥

हे इंसान! तू दूसरों की बुराई गाता रहता है, दूसरों की बुराइयों की चर्चा करता रहता है लेकिन अपने गिरेबान में, अपने अंदर निगाह नहीं मारता। दूसरों की बुराई गाने से, दूसरों को गलत कहने से इंसान खुद भी बुराइयों से जुड़ सकता है और कोई फायदा, लाभ नहीं होता। जो भी कोई इंसान किसी दूसरे की बुराई गाता है या किसी के बारे में सोचता है तो उसके अन्दर, जेहन में ये ख्याल होते हैं कि जिसका मैं बुुरा चाह रहा हूं मालिक उसका बुरा जरूर करे। लेकिन इंसान के चाहने से किसी का बुरा नहीं हो सकता बल्कि उसको खुद को ही कई तरह की बीमारियां लग जाती हैं अर्थात् किसी के बारे में बुरा सोचने से एक तो वह खुद अशांत रहता है और दूसरा उस सम्बंधित व्यक्ति को अपनी नजरों के सामने आराम से घूमता देखकर उसे यह टैंशन हो जाती है

कि इसका तो मैं इतना बुरा मांग रहा था, इसका तो बुरा हुआ नहीं! और उसी टैंशन से इंसान को तरह-तरह के रोग लग जाते हैं। हाई ब्लड प्रैशर, चिड़चिड़ापन और बिना वजह की चिंता उसे सताती रहती है। इस तरह वह इंसान गम, चिन्ता-फिक्र में पड़कर अपना बेश-कीमती समय (मनुष्य जन्म का कीमती समय, कीमती स्वासों) को बर्बाद कर लेता है। अगर किसी का बुरा सोचा है तो बुरा तो मिलेगा ही। लेकिन फिर भी इंसान को समझ नहीं आती।

इंसान दूसरों की बुराई गाने में, बुरा सोचने में तो सारा-सारा दिन लगा रहता है लेकिन अल्लाह, राम, वाहिगुरु, खुदा की याद में थोड़ा-सा समय भी देना पसंद नहीं करता। उधर तो यह समझता है कि उसका टाईम बर्बाद हो रहा है लेकिन जब गप्प-शप्प करता है, दूसरों की बुराई करता है तो क्या तब समय बर्बाद नहीं हो रहा होता? मालिक, वाहेगुरु, राम को याद करना हो तो टैंशन खड़ी हो जाती है! तब बहुत से धंधे याद आ जाते हैं! नींद आने लगती है! खाज-खुजली होने लगती है, लेकिन गप्प मारते समय खाज-खुजली की बात तो दूर, शरीर का होशो-हवास, कोई सुध नहीं रहती। ऐसा क्यों? क्योंकि राम-नाम, मालिक की याद काल के बिल्कुल उलट है। क्योंकि जो राम-नाम जपेगा वह काल के दायरे से बाहर चला जाएगा और यहां रहते हुए अल्लाह, राम के दर्श-दीदार के काबिल बन सकेगा।

ऐसा होने से आत्मा काल की जकड़ से बाहर निकल जाती है, आजाद हो जाती है। उसे कोई गम, चिंता, कोई टैंशन नहीं सताती। लेकिन मन, नफज, शैतान यह भी नहीं चाहता कि कोई आत्मा उसके चुंगल से, उसके दायरे से आजाद हो और इसलिए वह शैतान इंसान को किसी न किसी बहाने, इन्द्रियों के द्वारा, ख्यालों द्वारा भटकाता है। वास्तव में यह युग काल का नैगेटिव पॉवर, शैतान का युग, कलियुग है। मान लो, किसी का देश हो और उसी के देश में उसके खिलाफ बोला जाए, यह बहुत ही मुश्किल है। तो काल यह कभी नहीं सहन करता और वह मन-माया, व इन्द्रियों के द्वारा आत्मा को भरमाता है।

इसलिए जब आप सत्संग में, राम-नाम में बैठते हैं तो आपका ध्यान कभी किधर और कभी किधर जाता है और कई बार तो ऐसा कुछ हुआ भी नहीं होता वो लाकर सामने खड़ा कर देता है। इन्सान सोचता है कि पहले तो यह बात कभी नहीं आई, आज ही क्यों? उस क्यों का जवाब ही आपको बता रहे हैं कि यह मन-काल की वजह से ही है। वह आपके दिमाग को पूरी तरह से काबू किए हुए है और जब झूठ की बात होती है, गप्प मारना, किसी की निंदा करना, किसी को बुरा-भला कहना(भला कम लेकिन बुरा ज्यादा) तो उस टाइम मन, काल का कोई नुकासान नहीं होता, कोई दिक्कत नहीं होती।

तो भाई! ये ही भजन में, शब्द में आया है:

अपने औगुण छड्ड किसे दे फोलीं ना।
देख पराया माल कदे वी डोलीं ना।।

दूसरों का धन आदि देखकर डोलना मत, बहकना मत और अपना जो है उस पर आप कभी आनन्द लेकर तो देखो।
हां जी, चलिए भाई:

टेक: अपने औगुण छड्ड किसे दे फोलीं ना। देख पराया माल कदे वी डोलीं ना।।

1. काले मैंडे कपड़े, ते काला मैंडा वेष।
गुनाहीं भरेया मैं फिरां, ते लोक कहन दरवेश,
होर कुछ बोलीं ना। देख पराया…

2. इक आप नूं छड्ड के जी,
होर सबनूं समझीं चंगे।
इक नूर तों साजे जी,
फिर कौन भले कौन मन्दे,
पाप फरोलीं ना। देख पराया …

3 . एह हीरा जन्म अमोला, ना इसनूं दाग लगावीं।
तूं पी के प्रेम दा प्याला, ते अन्दरों दर्शन पावीं,
जंगलीं टोलीं ना। देख पराया …

4. तूं वांग हंस दे भाई, सागर ’चों मोती रोलीं।
ना काले कागां वांगूं गन्दगी दे ढेर फरोलीं,
विष्टा फोलीं ना। देख पराया …

भजन के शुरू में आया है:

काले मैंडे कपड़े, ते काला मैंडा वेष।
गुनाहीं भरेया मैं फिरां,
ते लोक कहन दरवेश, होर कुछ बोलीं ना।

ये शेख फरीद जी के वाक्य हैं:

फरीदा काले मैडे कपड़े काला मैडा वेसु।।
गुनही भरिआ मै फिरा लोकु कहै दरवेसु।।

मैं बाहर से भी अच्छा नहीं हूं और मेरा जो भेष है, जो मैं बोलता हूं वो भी सही नहीं है, गुनाहों से भरा हुआ हूं लेकिन फिर भी लोग मुझे दरवेश कहते हैं। ये इशारा किया है जोकि एक उच्च कोटि का संत ही कर सकता है। हे इंसान! तू बाहर से कुछ नजर आता है। देखने में भी तू काला है, तेरे काम भी काले हैं, तेरे अंदर भी गुनाह भरे हैं और लोग तुझे क्या कहते हैं दरवेश। कपड़े, पहनावा तूने ऐसा किया कि देखने वाले को यूं लगे कि तू ही भक्त है और ऐसे लोग आगे बढ़ते हैं।

लेकिन दूसरे शब्दों में, दो अर्थ हैं इसके, एक तो यही और दूसरा ऐसा अगर कोई कहे तो माने ऐसा और सोचे कि मैं वाकई ऐसा हूं तो वह अपनी बुराइयों को साफ करेगा और ऐसा वो करता जाएगा तो एक दिन अल्लाह, राम को जरूर पा जाएगा। इस तरह दोनों तरह से अपने अंदर की बुराई को निकाल सकते हैं वो और कुछ कहने की जरूरत नहीं है। यानि किसी को बुरा मत कहो, किसी को गलत मत कहो, अपने बारे में सोच कर बुरी-गन्दी आदतें छोड़ते जाओ।

आप सत्संग में आते हैं तो ये एक दृढ़ संकल्प भी कर लिया करें अंदर ही अंदर कि आज के बाद मैं ये बुराई छोडूगा, पक्का अपनी गंदी आदतों को बदलूंगा। साथ में सुमिरन कीजिए तो सत्संग का फल मिलेगा ही मिलेगा और आपको मन से, अन्दर की बुराइयों से लड़ने का जरिया भी मिल जाएगा। ऐसा करते-करते एक दिन ऐसा होगा कि अंदर-बाहर आप मालिक के दर्श-दीदार कर पाएंगे।

इक आप नूं छड्ड के जी,
होर सबनूं समझीं चंगे।
इक नूर तों साजे जी,
फिर कौन भले कौन मन्दे, पाप फरोलीं ना।

इस बारे में बताया है:

एक ही नूर है सबके अंदर
नर है चाहे नारी है।
ब्राह्मण, खत्री, वैश्य, हरिजन,
एक ही की खलकत सारी है।
शरीर सब का एक जैसा है,
एक ही प्रभु सवारी है।
जात-पात के झगड़े किस लिए,
किस चीज की लोकाचारी है ।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख,
ईसाई, एक ही प्रभु के बंदे हैं।
बंदे समझ कर प्यार है करना,
चंगे चाहे मंदे हैं।
जे सबके अंदर एक ही प्रभु है,
कौन बुरा और कौन है अच्छा।
जैसे गंदगी मिल गंगा में हो जाती है
आप भी गंगा।

भाई! जात-पात, मजहब का जो झगड़ा है यह इंसान का बनाया है। पीर-पैगम्बर, गुरु, महापुरुषों का नहीं। यानि जात-पात इंसान की ही देन है। आपको अपनी देखी, महसूस की बात सुनाते हैं- यह लगभग 1978 या 1980 के करीब की बात होगी। खेतों में सभी लोग काम करते, हम भी वहां खेत में चले जाया करते और देखते। वहां पर एक डिग्गी बनी हुई थी, उसमें ठण्डा पानी था। जमींदारों के यहां जो नौकरी करते, किसी जमींदार के चार-चार नौकर होते, किसी के पांच-पांच, किसी के सात भी थे। खाना घर से बन के आता तो वो जमींदार अपने नौकरों को अपने हाथ से खाना देते। लेकिन जब पानी का मटका भरकर लाना होता तो नौकर को भेजते, नौकर पानी का मटका लाता तो अपने पास रखवा लेते और कहते कि तुम इसे हाथ मत लगाना, पानी हम खुद डाल कर देंगे। क्यों भाई! ऐसा क्यों करते हो? ये बड़ी अजीबो-गरीब दशा है हमारे समाज में! बड़ा ही दु:ख होता है। सोचने वाली बात है, लोग उन्हें छोटी जात का कहते हैं फकीर नहीं कहते! वे तो सबको एक समझते हैं। सबको बराबर इन्सान समझते हैं।

लोग जिन्हें छोटी जात का कहते हैं, अगर आप केवल उनके हाथ लगा खाना नहीं खाते तो क्या हुआ, नहर से पानी लगाना, ट्यूबबैल का बोरिंग वगैरहा, सारा काम भी वही करते हैं, आटा चक्कियों में जो पत्थर होते हैं उन्हें भी वही तराशते हैं, फसल को काटना, दाने निकालना, तोल भी वही लगाते हैं और यहां तक कि आटा भी वही लोग पिसवा कर लाते हैं जिन्हें इन्सान छोटी जात का कहते हैं और जब रोटी बन गई तो कहते हैं कि हाथ मत लगाना। ऐसा कहने वाला कितना दोगला व बे-शर्म इन्सान है! जब सब कुछ वो ही कर रहा है तो बाद में क्या चक्कर पड़ गया, कि जात-पात मानना शुरू कर दिया? कई सज्जन कहते हैं कि ना जी! हम तो धर्म के पक्के हैं। लेकिन जब जान आफत में फंसी हो तो कहते हैं कि पहले जान बच जाए धर्म बाद में देखेंगे।

इसी तरह एक बार हम अपने एक दोस्त, सज्जन के साथ रेलगाड़ी में बीकानेर साइड में जा रहे थे। ये कई वर्ष पहले की बात है। (हमारे यहां आने से पहले की) शायद अप्रैल-मई का महीना था। सफर में हमने चने ले लिए और चबाते, आपस में बातें करते जा रहे थे। हमें प्यास लगी, वहां पर पानी की एक झारी वहां बैठे सज्जन के पास थी। दुनिया की निगाह में तो शायद छोटे धर्म के थे। हमने उनसे विनती की, भाई साहिब! अगर इसमें पानी है और आप दे सको तो हम पी लें ? तो वो भाई कहने लगा कि जी! खुशी से ले लीजिए। हमने वो लोट पकड़ी और यूं (ओक में) पानी पीने लगे तो हमारे साथी ने हमारे को कोहनी मारी, कहता, मत पीओ! हमने कहा, क्या हर्ज है? कहता नहीं, आप बड़े धर्म वाले हो, पीओगे तो आपका धर्म खराब हो जाएगा। हमने कहा कि हमारे वाला धर्म इतना कच्चा नहीं है जो खराब हो जाएगा।

हम बचपन में ही परम पिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के चरण-कमलों में आ गए थे। हमने कहा कि हमारे वाले धर्म को कुछ नहीं होता, तू अपने को सम्भाल के रखना। हम पानी को पी गए। बहुत अच्छा, ठण्डा व स्वादिष्ट पानी पीकर संतुष्टि हो गई। हमने कहा तुम मत पीना। चने खा रहे थे। कुछ तो उसका जी ललचा गया ठण्डा पानी देखकर और कुछ बातें करते-करते चनों का एक कोर अटक गया, पंजाबी में कहते हैं ‘बुरकी फस गई’! तो उसने आव देखा न ताव, झट से सामने वाले से पानी की वो लोट छीनी और गटागट पी गया। हमने बहुत कहा, अरे, ना पी, तेरा धर्म गया! तेरी जात गई! उसने एक न सुनी। पानी पी गया। हमने कहा, अब बता, तेरे धर्म का क्या होगा ? कहता नहीं, जब जान निकल रही हो तब धर्म नहीं सोचा जाता।

हमने कहा, अरे बे-शर्म बंदे! जिसके पानी ने तेरी जान बचा दी है, बता, उसमें गंदी चीज क्या है, जो तू नफरत करता है? अगर उसका पानी न होता तो आज तेरा राम-नाम सत् हो जाना था और कंधे पर उठा कर अलग ले जाना पड़ता। अब उसी के पानी ने तेरी जान बचाई है। तो तू नफरत क्यों करता है? क्यों धर्म, जात-पात का फर्क करता है? कहता वो तो मां-बाप ने बताया था। हमने कहा, अब तो नहीं करेगा? तू पढ़ा-लिखा है। कहता-नहीं, अब नहीं करूंगा। हमने कहा, पक्का! कहता, बिल्कुल पक्का! हमने कहा तो फिर अब पीकर दिखा पानी! तो वह बकायदा दोबारा पानी पी गया। तो भाई! यह तो एक उदाहरण है, सोचिए, इसमें गलत क्या है? प्रकृति किसी से कोई भेदभाव नहीं करती।

पेड़ पर लगा आम सबके लिए है, जो तोड़ेगा वही वह खा लेगा। ये तो है नहीं कि बड़े धर्म वाला जाए तो आम अपने आप टूट कर उसकी झोली में गिर जाएगा कि ले, मुझे खा ले और कोई छोटे धर्म-जात वाला जाए तो वह आम ऊपर चला जाएगा कि ना-ना, मुझे हाथ मत लगाना! नहीं, वो वहीं खड़ा रहेगा जहां लगा है और जो उसे तोड़ेगा वो खा लेगा। जब प्रकृति किसी से कोई भेद-भाव नहीं करती, अल्लाह-राम ने कोई भेदभाव नहीं किया है। अरे, जो कहता है कि मैं सबसे बड़ा हूं तो बताएं, क्या उसकी नाड़ियों में घी-दूध बहता है और जो छोटे धर्म का है उसमें पानी बहता है? फिर क्यों? किस लिए? सिवाय नफरत के, लड़ाई-झगड़े और हीन-भावना के किसी को क्या मिलता है। इंसानियत का खात्मा इन्हीं बातों से होता है। नफरत की दीवारें खड़ी हो जाती हैं।

तो भाई! ऐसा सोचना, ऐसा करना बिल्कुल गलत है, ऐसा कोई सोचे भी नहीं, क्योंकि भगवान ने सबको एक-जैसा बनाया है। प्रकृति सबसे एक-जैसा व्यवहार करती है। फकीर की निगाह में आप सभी उसी मालिक के बच्चे हैं। अल्लाह-राम को वो ही भाता है जो अपना अन्दर पाक-पवित्र कर लेता है।

अवलि अलह नूरु उपाइया।।
कुदरति के सभ बंदे।।
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ
कउन भले को मंदे ॥

एक ही नूर से, एक ही प्रकाश की किरणें आके टकराती हैं, कहीं भी हो वो एक ही है। गैर, दुई-द्वैत कैसे हो गई! इसलिए किसी को बुरा, गलत कहना या भला कहना भी हद से ज्यादा सही नहीं है।
आगे आया है:

एह हीरा जन्म अमोला,
ना इसनूं दाग लगावीं।
तूं पी के प्रेम दा प्याला,
ते अन्दरों दर्शन पार्वी, जंगलीं टोलीं ना।

इस बारे में लिखा है:

बाहर वाले नशे सच्चे प्रेम की एक घूंट का भी मुकाबला नहीं कर सकते। वो जान या रूह की शराब है वो कहां की और ये जमीनी शराब कहां की। इन दोनों का क्या मुकाबला हो सकता है। हाफिज साहिब फरमाते हैं कि मजाजी शराब के दो हजार मटके, सतगुरु के प्रेम प्याले के एक घूंट का भी मुकाबला नहीं कर सकते।

भाई! प्रेम का प्याला यानि हरि, अल्लाह, खुदा, वाहेगुरु की मुहब्बत, उसके प्यार को अगर एक बार कोई पा जाए तो दुनिया की बहिशतें, गुलजारें भी उसका मन नहीं डुलवा सकतीं, क्योंकि उसमें जो आनन्द, जो लज्जत है ये आनन्द, लजजत, सुख आदि शब्द उसके आगे बौने पड़ जाते हैं। इसलिए कबीर साहिब जी ने एक जगह लिखा है – हे सखी! जहां की हम सैर करते हैं, अल्लाह-राम ने जैसा हमें दिखाया है, वहां न दु:ख है, न सुख है। न वहां शान्ति है, न अशान्ति है। वहां न लज्जत है, न गम है। वहां की बात ही निराली है।

राजस्थान में एक बार हमसे किसी ने यह सवाल किया, गुरु जी! वहां सुख भी नहीं, दु:ख भी नहीं है तो ऐसे जहान में जाकर क्या करना है? हमने कहा, अरे बेसमझ भाई! बात कुछ, और तरह से है, (इसका अर्थ कोई और है) कबीर जी के कहने का मतलब है कि सुख का हमें क्यों पता चलता है कि सुख क्या है, अगर दु:ख सामने होगा तभी सुख का पता चलेगा ना। जिसे जरा सा भी दु:ख नहीं आया उसे सुख की अनुभूति नहीं होती। हालांकि उसको सुख मिलते हैं पर उसे ये नहीं पता होता कि सुख क्या चीज होती है। जब किसी को गम आता है और बाद में शांति, आनंद मिलता है तो फिर उसे दु:ख, गम का पता चलता है कि हां, वो गम था और ये सुख है।

यानि सुख का दु:ख के बिना अहसास नहीं होता और इसी तरह अशान्ति के बिना शान्ति का पता नहीं चलता तथा गम के बिना आनन्द का एहसास नहीं होता। तो भाई! यही बात कबीर साहिब ने कही है कि वहां पर ऐसा परमानंद है जिस का मुकाबला ही नहीं है। उसको सुख कहकर हम उसे छोटा नहीं करना चाहते क्योंकि सुख के साथ दु:ख जुड़ा है और शान्ति के साथ अशान्ति जुड़ी है। परन्तु वहां पर तो हमेशा ही सुख है, आनन्द, परमानंद है जिसे शब्दों में तोला नहीं जा सकता। यानि उनके कहने का मतलब है कि वहां जो लज्जत, जो खुशी, जो आनन्द है उसका किसी से वर्णन नहीं हो सकता।

तो भाई! मालिक के उस प्रेम के प्याले को पीकर देखो। इस मार्ग पर चलने वालों ने बेशक कठिनाइयां झेलीं पर धन्य हैं वो मालिक के प्यारे जो मालिक के प्यार-मुहब्बत के रास्ते पर अडोल चलते रहे, जरा भी उनके कदम डगमगाए नहीं, बेशक नन्हे-नन्हे बच्चों को उनकी माताओं के सामने टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया और हार बनाकर उनके गले में पहना दिया गया लेकिन धन्य हैं वो माताएं, जो फिर भी यही कहती कि धन्य है मेरा मालिक, सतगुरु, वाहेगुरु, राम परमात्मा कि जिसने मुझे इस कुर्बानी के काबिल समझा।

ऐसी कुर्बानी देना तो दूर की बात है ऐसा सोचना, ऐसा कहना भी बहुत मुश्किल है। मालिक के प्यारों ने ऐसी-ऐसी कुर्बानियां दीं। ऐसा नहीं है कि आज अल्लाह, राम के ऐसे प्यारे नहीं हैं। आज भी बहुत हैं। ये ताकत अल्लाह, राम के प्यार-मुहब्बत की है, जब उसके प्यार-मुहब्बत में चलते हैं न उनको मोह सताता है और न ही कोई और गम, चिंता, फिक्र रहता है। ये नहीं है कि वे अपने बच्चों से प्यार नहीं करते या उन्हें दुतकार देते हैं! नहीं! वे अपने बच्चों से प्यार करते हैं लेकिन उनके प्यार में पागल नहीं हुए रहते, बल्कि मालिक की रजा में रहते हैं। वे सुख, दु:ख गम, चिंता की तमीज ही नहीं रखते, मालिक के प्यार में खोए रहते हैं और अपनी मंजिल में बढ़ते चले जाते हैं। ऐसे भी होते हैं कि जरा-सा कांटा लगा कि तड़प उठे! भगवान से शर्त रखते हैं कि सात दिनों में मेरी ये डिमांड पूरी न की तो मैं तुझे याद करना ही छोड़ दूंगा। तो ऐसे भी मालिक के आशिक हैं।

तूं वांग हंस दे भाई,
सागर ’चों मोती रोलीं।
ना काले कागां वांगूं,
गन्दगी दे ढेर फरोलीं,
विष्टा फोलीं ना।

इस बारे में लिखा है:

जिसनूं तूं विच जंगल ढूंढें (लम्भें)
वोह घर तेरे में बसता।
तूं उसका कोई पता ना पाएं,
शक्लां कई बणा-बणा दसदा।
कदी गंगा ते कदी मक्के जावें,
तूं मर गया भज्जदा नसदा।
जे बंदेआ तूं छड्ड दें हस्ती,
तैनूं यार मिले घर हसदा।।

तो भाई! ‘तू वांग हंस दे भाई सागर ’चों मोती रोलीं।’ हंस उसे कहते हैं, फकीरों की वाणी में भी आता है, कि जो पानी में से मोती ले लेता है और कहीं तो यह भी लिखा है कि वह दूध में जो पानी का अंश मिला होता है उसे छोड़कर दूध पी जाता है, ऐसी कुदरत ने उसे ताकत दी है। तो हे इंसान! तेरे को भी अल्लाह, राम ने सोचने-समझने की बहुत ताकत दी है। इसलिए समाज में रहते हुए किसी से नफरत नहीं करना और लोगों में रहते हुए गुण ग्रहण करते रहना, गुणों को लेते रहना और अवगुणों को छोड़ते रहना।

गुरमुख ऐसा चाहिए, जैसे सूप सुभाय।।
सार सार को चुन ले, थोथा दे उड़ाय।।

जैसे छाज (छज्जली) होती है, जिससे दाने (यूं-यूं करते) छंटते हैं, जो, जो मोटे, अच्छे, भरे दाने होते हैं वो पास आ जाते हैं और जो हल्के-थोथे दाने होते हैं उन्हें उड़ा देती है। तो मालिक के उस भक्त को भी ऐसा ही होना चाहिए कि कैसे भी वातावरण में रहे उस पर उस वातावरण का असर न हो, बल्कि वह किसी के गुणों को ग्रहण करे और जो उसकी बुराइयां हैं उन्हें बिल्कुल ही नजरअंदाज कर दे। उसका जिक्र भी कहीं न करे।

तो ऐसे भक्त पर मालिक की दया-मेहर, रहमत हमेशा बरसती रहती है। यही गुरु, पीर-फकीर अंपने शिष्यों को सिखाते हैं। अरे भाई ! जैसे कमल कीचड़ में रहकर कीचड़ नहीं बनता बल्कि उसमें खिलकर लोगों का मन मोह लेता है, उसी तरह मालिक का भक्त दुनियादारी में कहीं भी जाए, वह दुनियादारी में लम्पट नहीं होता। उसमें रहता हुआ वह गुणों को ग्रहण करता, भलाई करता है, अपना फर्ज भी निभाता है और मालिक को याद भी करता है, तो वो मालिक का प्यारा जरूर बन जाता है। तो यही बताया है:

तूं वांग हंस दे भाई सागर ’चों मोती रोलीं।

ना काले कागां वांगंू
गंदगी दे ढेर फरोलीं॥

बुराई न करना, रूड़ी पर जाकर उस गंदगी को फरोलने न लग जाना बल्कि हंस की तरह सागर में से मोती चुनना। अच्छाई को, गुणों को ग्रहण करना, मालिक को याद करना तो कमी किसी चीज की नहीं रहेगी।

थोड़ा सा भजन-शब्द और है:

5. विच लख चौरासी फिरदे,
नाम ने हन सब तारे।
नाम संत शरण दे बाझों, ना हुन्दे छुटकारे,
थां-थां डोलीं ना। देख पराया …

6. छड्ड झूठे सौदे जी, सौदा सच दा भाई करना।
सब नाल प्रेम है करना,
हर वेले रब्ब तों डरना,
घट वध तोलीं ना। देख पराया …

7. ‘शाह सतनाम जी’ कहिन्दे ने,
रोटी हक हलाल दी खार्इं।
ना देख परायी चीज,
ना अपना मन तरसार्इं।
जहर नूं घोलीं ना। देख पराया …

आगे भजन में आया है ;-
विच लख चौरासी फिरदे,
नाम ने हन सब तारे।
नाम संत शरण दे बाझों ना हुन्दे छुटकारे,
थां-थां डोलीं ना।

भाई ! मालिक को पाने के लिए जगह- जगह भाग-दौड़ करना, गुमराह होना, यह सही नहीं है। जैसे कोई कहता है कि अल्लाह, राम, परमात्मा जंगल में रहता है, अगर ये सही होता तो सब जंगली जानवर उसके पास क्यों नहीं जाते? कोई कहता है वह उजाड़ों में रहता है। उजाड़ों में उल्लू महाशय बहुत रहते हैं, वे अल्लाह, राम के पास क्यों नहीं जाते? कोई कहता है कि कपड़े इतने पहनो कि कुछ दिखाई न दे तो वो मिल जाएगा। तो कई जानवर, पक्षी आदि ऐसे भी हैं जिनकी केवल आंखें ही नजर आती हैं, उनको मालिक क्यों नहीं मिलता? पंजाबी में उस जानवर को ‘झाह’ कहते हंै। कोई कहता है कि कपड़े पहनो ही नहीं तो मालिक मिल जाएगा।

अगर ऐसा होता तो पशुओं ने कौन सी पैंट-शर्ट पहन रखी है वे तो अल्लाह, राम के पास गए नहीं! न ही किसी एक रंग के कपड़े पहनने से भगवान मिलता है और न ही भिन्न-भिन्न रंग वाले कपड़े पहनने से। अलग-अलग रंगों के कपड़ों का जो रुझान-है वो इसलिए है ताकि उस पीर-फकीर के मुरीदों की अलग पहचान हो और वे समाज में रहते हुए बुराई से दूर रहें, डरते रहें, कि अगर बुरा कर्म करेंगे तो लोग उन्हें क्या कहेंगे, दुत्कारेंगे कि इसने कपड़े तो फलां गुरु के शिष्य वाले पहन रखे हैं और काम बुरे करता है। इसमें संतों ने निशानियां दी हैं अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग, जैसे समय-समय पर संत आते रहे, ताकि उस निशानी वाले उनके शिष्य समाज में बुरे कामों से डरते रहें।

लेकिन आज निशानियां भी सारी वो ही हैं, दिखने में सब वैसा ही है पर ज्यादा लोग अधर्म के काम करते नजर आते हैं। तो भाई! इसका नाम कलियुग है। इसमें पाखण्ड, ढोंग, बहुत से ऐसे-ऐसे दिखावे हैं जो देखकर हैरानी होती है। तो भाई! इन पाखण्डों में कुछ भी नहीं रखा। कई लोग नकल करना शुरू कर देते हैं, कई जरा-जरा सी बात पर भरम पैदा कर लेते हैं, कई अपनी शारीरिक शक्ति के द्वारा दूसरों को भ्रमित करते हैं, जैसे आग को अपने चारों तरफ पास-पास जलाकर बीच में बैठ जाना। देखने वाला तो कहेगा कि यह तो बहुत बड़ा भक्त है, इसे आग कुछ भी नहीं कह रही! यह कोई बड़ी बात नहीं है। आम आदमी भी ऐसा कर सकता है।

पहले दस-दस फुट का अंतर रख कर दो-दो घण्टे तक आराम से बैठ सकता है। धीरे-धीरे फासला कम करता जाए, शरीर की सहनशक्ति धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी और एक दिन वह भी अपने चारों तरफ आग को जलाकर आराम से बैठ सकेगा। ऐसे हठ-योगी करते हैं लेकिन इससे मालिक नहीं मिलता। चमकते सूरज की तरफ कोई देखे तो झट से आंखों से पानी आने लगता है, देखा नहीं जाता। लेकिन कई लोग तीन-तीन, चार-चार घण्टे लगातार सूर्य को देखते रहते हैं। उनका भी यही अभ्यास हो जाता है। ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।

’ कोई ठण्डे पानी में बैठना शुरू करदे तो अभ्यास के द्वारा वह बर्फ में भी लेट सकता है। ईश्वर ने यह कमाल का शरीर दिया है, तो इसमें कोई अलग बात नहीं है। कबीर जी ने तो यहां तक लिखा है कि कोई हवा में उड़ने लगे तो भी नहीं मानूंगा, कोई शरीर बदल ले तो भी नहीं मानूंगा, कोई अलोप हो जाए और फिर प्रकट हो जाए तो भी नहीं मानूंगा। मानूंगा तब, जब अल्लाह, राम को पा जाए और बाकी सब ट्रिक हैं, थोड़ी-बहुत हाथ की सफाई, थोड़ी मेहनत, ट्रिकबाजी और कुछ रिद्धि-सिद्धियों का कमाल होता है। आज के ज्यादा लोग विज्ञान का सहारा लेते हैं। विज्ञान में बहुत कुछ ऐसा है जो आम आदमी की नॉलेज (जानकारी) में नहीं होता, उसका प्रयोग करके लोगों को भ्रमाते रहते हैं। तो भाई ! इन पाखण्डों में, दिखावों में मत पड़िए।

छड्ड झूठे सौदे जी, सौदा सच दा भाई करना।
सब नाल प्रेम है करना, हर वेले रब्ब तों डरना, घट वध तोलीं ना।
इस बारे में लिखा-बताया है:

है विसाह क्या इस जिंदगी का,
बैठा ना कर सोच विचार बंदे।
पता नहीं स्वास आए कि ना आए,
इस स्वास का क्या इतबार बंदे।
झूठे धन्धों में गुलतान होके,
रहा कीमती समां गुजार बंदे।
सब छोड़ के झूठे धंधों को
कर ले सच का वणज-वपार बंदे॥

आज इंसान झूठ में ज्यादा फंसा हुआ है। चारों तरफ झूठ का बोलचाला है। सच्ची बात बुरी लगती है और झूठा आदमी इस काल के देश में काफी आगे बढ़ता है। जितना ही कोई ज्यादा झूठ बोलता है, उतना ही वह आगे बढ़ता है। कई सज्जन हमें मिले, कहने लगे कि हम समाज में बहुत झूठ बोलते हैं पर महाराज जी, जब हम आपके पास आते हैं तो हमें ढूंढ के सच बोलना पड़ता है। लेकिन यह देखा है सभी तरह के इंसान होते हैं।

केवल झूठ बोलना ही नहीं, बल्कि झूठ का व्यवहार भी करते हैं। झूठ ही इकट्टा करते हैं। झूठा व्यवहार करने को ही यहां पर झूठ कहा गया है कि वे पदार्थ जो साथ जाने वाले नहीं हैं उनके लिए किसी को तड़पाना, बेईमानी करना, दु:ख पहुंचाना सब के सब झूठ के सौदे हैं। यहां पर रहते हुए आपकी बॉडी (शरीर) कर्म-भूमि है और आप कर्म-योद्धा हैं। आप शूरबीर बनिए और बुराइयों से लड़िए। अपने अंदर की बुराइयों से संघर्ष शुरू कीजिए और फिर आप राम-नाम का बीज अपनी बॉडी, अपने शरीर में डालिए, उसका अभ्यास, सुमिरन कीजिए आधा घण्टा सुबह-शाम या घण्टा सुबह-शाम फिर भी 24 घण्टों में से 22 घण्टे बिजनेस, व्यापार, काम-धंधे के लिए आपके पास हैं, उधर लगाओ, कोई रोकता नहीं है। पर उसमें भी झूठ नहीं बोलना। झूठा व्यवहार नहीं करना। किसी को तड़पाना, सताना नहीं। किसी को बुरा मत बोलिए क्योंकि ऐसा करना इन्सानियत, मानवता के खिलाफ है।

तो भाई! आज झूठ के सौदे बहुत हो गए हैं। बिजनेस-व्यापार करते हैं उसमें भी झूठ। इसी तरह कोई भी बात को देख लो झूठ सब ओर नजर आता है। लोग विवाह-शादी में बहुत कुछ मांगते हैं। गांवों में आम सीधा-सा कह देते हैं कि इतने मुरब्बे हैं, इतने एकड़ जमीन है, जैसा भी किसी का अंदाज है, इससे आधी जमीन वालों को कार मिली है, अब आप अंदाजा लगा लो। बताओ कितने लाख ? दस लाख, पन्द्रह लाख और जो, जो अमीर हैं उनकी और आॅफर बढ़ जाती है। हमने खुद अपने कानों से सुना है, एक करोड़, डेढ़ करोड़ रुपया दो तो वो शादी के लिए तैयार हैं। तो भाई! यह बड़ी हैरानी की बात है कि अपने बेटे को एक वस्तु, पदार्थ बना दिया कि इतने में खरीद लो और जो पढ़े-लिखे हैं, हाई स्टैंडर्ड के हैं वो ऐसा नहीं बोलते। लड़की वालों को घर लेकर जाएंगे, आओ जी।

चाय-पानी तो पीओ। बैठ कर बातें करते हैं। देखो जी! हमारा बेटा नर्सरी से लेकर अब तक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ा है। आप जानते हैं किसी छोटे-मोटे में नहीं, पहाड़ी इलाकों में, उधर उस साइड में तो उसका खर्चा इतना आया है। फिर नौकरी में लगाना पड़ा। आप जानते ही हैं कि नौकरी कहां वैसे ही लग जाती है। तो कुल मिलाकर इतना पैसा हो गया। ये तो हमारा मूल है, ब्याज की आप सोच लेना और लड़की हमें दे देना। मांगा तो है लेकिन थोड़ा बल (टेढेÞ से) पाके। तो भाई, ऐसा मांगने वाला कोई सज्जन अगर इधर बैठा है तो शर्म करना थोड़ी सी।

भाई, गुस्सा मत करना। हां, अगर आप ऐसा मांगना चाहते हैं तो तरीका हम बताते हैं। एक बड़ा सा स्टेज लगवा लो, जैसे हिन्दू धर्म में पहले स्वयंवर हुआ करता था। वहां पर लड़के आ जाते थे और लड़की वरमाला लेकर घूमती थी। लेकिन वो स्वयंबर तो अब अच्छा नहीं लगेगा। आज के युग में उसे मेला कह देते हैं कि ‘शादी का मेला’ लगा हो, लड़के एक ऊंचे मंच पर खड़े हों और उनके गले में पट्टी डाली हो जिस पर उसकी कीमत लिखी हो कि ये दस हजार वाला है, ये पचास हजार वाला है ये पांच लाख वाला है, ये दस लाख वाला ताकि लड़की के बाप को खरीदना आसान हो जाए कि कौन से वाला आइटम लेना है। लड़का थोड़े ही है वो तो आइटम, गुड्डा है, एक चलता-फिरता गुड्डा। शर्म नहीं आती ऐसे लेते हुए! निचोड़ देते हैं अगले को! तो भाई! बेपरवाह जी ने इस बारे में बहुत बार जोर दिया, कइयों ने हाथ-भी खड़े किए थे, लेकिन वो ही ढीठ के ढीठ! हाथ खड़े किए कि हम वचनों पर पक्के रहेंगे।

हम नहीं लेंगे लेकिन बैठे-बिठाए ही दौलत आ जाए बंडल के बंडल। ना मेहनत की, ना कुछ और, और क्या चाहिए! सब॑ कुछ कर-कराके भी वैसा ही करते हैं। (उक्त अनुसार मांग कर लेते हैं) ना मेहनत की। बेचारे तड़पते हैं, आया नहीं। क्यों नहीं आया? इतना मिलना चाहिए! उतना मिलना चाहिए! अरे! शर्म करो शर्म! यह बिजनेस तो न करो! इस तरह से हराम की खाने की और आदत पड़ जाती है। काम तो कर नहीं पाता और वो नोट कितनी देर टिकेंगे? महीना, दो महीने, चार महीने और फिर आपकी डिमांड शुरू हो जाएगी। तो इस तरह झूठे सौदे समाज में बढ़ते जा रहे हैं। अपना कर्म करके खाओ उसमें मजा अलग है। न सिर झुकाना पड़े, न किसी का कुछ सुनना पड़े और उसमें जो आनन्द, जो खुशी, लज्जत है वो कहने सुनने से परे है। हमने तो भाई शिक्षा देनी है, बताना है, मानना न मानना आपकी मर्जी है।

कई सज्जनों ने कहा गुरु जी! सत्संग हमने सुना, टीवी पर सुना, बहुत स्टेटों में, जैसा आम सुनने में आता है, लोग बताते हैं, कहते, जी हां सुनते हैं लेकिन आप एक बात बार-बार क्यों कहते हो? हमने कहा कि कौन से वाली? कहते, ‘मेहनत करके खाया करो’ वाली, ‘हक-हलाल की करके खाया करो’ वाली, आपके सत्संग के हर एपीसोड में लगभग होता है, कहते ऐसा क्यों? हमने कहा, पक्का सुनोगे? कहते हां जी। हमने कहा लोग इतने बेशर्म हो गए हैं कि इतने बार याद कराने के बावजूद भी नहीं हटते! एक बार का कहने का उन पर क्या असर होगा? बार-बार कहते हैं फिर भी ढीठ के ढीठ! कहते क्या है? और कई तो टीवी बंद कर देते हैं कि महाराज जी वो ही सुनाएंगे। क्यों कड़वा लगता है क्या? छोड़ता क्यों नहीं? गलत कहते हैं तो बताओ? तो वो मान गए।

कहते गुरु जी! बिल्कुल सच है। अब हमें पता चला कि बार-बार क्यों कहते हैं। तो भाई! संत, पीर-फकीर बात को तभी रिपीट करते हैं जब लोग नहीं मानते, तभी बार-बार कहते हैं भाई कि सभी को शर्म आएगी। आपको शर्म आए न आए भाई आपकी मर्जी, पर हमने तो आपको बताया है कि ये बुराइयां हैं, गलत है, ये काम मत किया करो। आगे आप जानो, आपका मालिक जाने। संत, पीर-फकीरों का काम तो बताना है वो कड़वा लगे, मीठा लगे या नमकीन लगे। वैसे संतों की बात कड़वी ज्यादा लगती है, मीठी तो कम ही लगती है। मीठी तो मन की बात लगती है और अगर मन की बात पूरी नहीं हुईं तो कड़वी है।

कई लोग हमसे कहते हैं, गुरु जी, वचन करो। हमने कहा भाई वचन कैसे? कोई बात है सलाह ले लो अगर कोई लेना चाहते हो। कई लोग आते हैं, पूछते हैं, बहुत तरह की सलाह लेते हैं, कोई गाड़ी की सलाह लेता है, कोई ट्रैक्टर की सलाह लेता है, कई तो कहेंगे महाराज जी, आप बताओ कौन सा काम करें। हमने कहा, भाई! जिस काम का तजुर्बा है वह कर लेना। वह कहते, नहीं जी, आप बताओ। हमने कहा, भाई हम तो कह देंगे कम्प्यूटर इंजीनियर बन जा और तू पढ़ा है दस जमातें तो कैसे करेगा? कहता हां, ये तो ठीक है। तो फिर तू बता भाई! कई बता देते हैं और कई तो जिद्द ही पकड़ लेते हैं। इसी तरह एक सज्जन आए, आपको पहले भी कई बार सुनाई है ये बात। कहने लगा, महाराज जी कोई ट्रैक्टर लेना है, कौन सा लूं ? हमने कहा, जो आपको अच्छा लगता है।

कहते नहीं-नहीं, जी आप बताओ। तो हमें तजुर्बा है, खुद भी करते रहे खेती, बहुत चलाते रहे ट्रैक्टर, दिन-रात भी चलाते रहे। तो हमने कहा, भाई कितनी जमीन है? थोड़ी जमीन थी। हमने कहा आयशर ठीक रहेगा, क्यों, डीजल कम खाता है, पैसे भी कम लगेंगे, आप ले आओ, खर्चा भी कम है, जमीन थोड़ी सी है तो आप को ठीक रहेगा। कहता, वो बात तो ठीक है, गुरु जी, अगर हिन्दुस्तान ले लूं तो कैसा रहेगा। हमने कहा, आयशर बढ़िया है तेरे हिसाब से, कहता, नहीं, वो तो ठीक है, अगर हिन्दुस्तान ले लूं तो ! हमने कहा, ले ले, फिर पूछा क्यों ? आज लोगों का ख्याल क्या है कि बात गुरु जी हमारे वाली कहें, ठप्पा-मोहर गुरु जी का ऊपर लगा हो कि हमने वचन करवाए हैं। वचनों को काटेंगे, तरोड़ेंगे, मरोड़ेंगे कि किसी तरह से अपने वाली लाईन पर गाड़ी चल पड़े ना, फिर बढ़िया है। तो भाई, फकीर को तो,

‘जैसी मै आवै खसम की बाणी
तैसड़ा करी गिआनु वे लालो।।’

जैसा सतगुरु, मुर्शिद का ख्याल आ गया वो आपकी सेवा में अर्ज कर दिया। करने वाला सतगुरु, वाहेगुरु, अल्लाह, राम है। देना तो उसने है सब कुछ, हमने तो आपको अर्ज करना है। तो भाई, यही अर्ज करते हंै, झूठ से नाता तोड़िए। हकीकत में आइए। हकीकत के धरातल पे चलोगे तो यकीनन आप उस की दया-मेहर के काबिल बनोगे और यहां स्वर्ग, जन्नत से बढ़ के नजारे ले सकोगे।
भजन के आखिर में आया –

‘शाह सतनाम जी’ कहिन्दे ने,
रोटी हक हलाल दी खार्इं।
ना देख पराई चीज,
ना अपना मन तरसार्इं, जहर नूँ घोलीं ना।

शाह सतनाम जी महाराज सच्चे मुर्शिदे कामिल सतगुरु जिन्होंने रूहानियत, सूफीयत का हमें पाठ पढ़ाया वे फरमाते हैं भजन के आखिर में कि जहां तक हो सके रोटी हक-हलाल, कड़ा परिश्रम, मेहनत की करके खाना। क्योंकि वो मेहनत की रोटी अगर खाओगे तो वह एक रुपया भी सौ जितना काम कर जाता है, ये हमने आजमाया है, अपने बिल्कुल अजमा के देखा है। और अगर कोई पैसा दबा लेता है तो वह हजम नहीं होता, कई गुणा हो के निकलता है। हक-हलाल की रोटी से चेहरे पे नूर अलग से आता है और मालिक की याद अलग से आती है।

इस बारे में लिखा, बताया है:

शेख फरीद साहिब जी फरमाते हैं, सन्तोषी पुरुष अपनी हक-हलाल की रोजी या दसां नहुंआं की किरत करके कमाए हुए धन से निर्वाह करता है और अपनी रूखी-सूखी खाके वो पकवान समझता है और ठण्डा पानी पीकर वो अमृत के समान जानता है। परायी चिकनी चोपड़ी देख कर उसका दिल नहीं तरसता।
तो भाई! मुर्शिदे-कामिल ने यही फरमाया कि पराई वस्तु देख के जी को ललचाओ मत। जो पास में है उसमें संतुष्टि करो तथा और पाने के लिए मेहनत करो। हमारे धर्मों में लिखा है :-

हिम्मत करे अगर इंसान
तो सहायता करे भगवान।
हिम्मते मर्दां मददे खुदा।

तो आप हिम्मत कीजिए, अल्लाह, राम आपकी मदद जरूर करेंगे।

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