Blessings of father

आशीर्वाद पिता का! -प्रेरक कहानी

जब मृत्यु का समय निकट आया, तो पिता ने अपने एकमात्र पुत्र धर्मपाल को बुलाकर कहा, ‘बेटा! मेरे पास इतनी धन-संपत्ति नहीं है कि मैं तुम्हें विरासत में दे सकूं। पर मैंने जीवनभर सच्चाई और ईमानदारी से काम किया है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम जीवन में बहुत सुखी रहोगे और धूल को भी हाथ लगाओगे तो वह सोना बन जायेगी।’ बेटे ने सिर झुकाकर पिताजी के पैर छूए। पिता ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और संतोष से अपने प्राण त्याग दिए।

अब घर का खर्च बेटे धर्मपाल को संभालना था। उसने एक छोटी-सी ठेला-गाड़ी पर अपना व्यापार शुरु किया। धीरे-धीरे व्यापार बढ़ने लगा। एक छोटी-सी दुकान ले ली। व्यापार और बढ़ा। अब नगर के संपन्न लोगों में उसकी गिनती होने लगी। उसको विश्वास था कि यह सब मेरे पिता के आशीर्वाद का ही फल है, क्योंकि उन्होंने जीवन में दु:ख उठाया, पर कभी धैर्य नहीं छोड़ा, श्रद्धा नहीं छोड़ी, ईमानदारी नहीं छोड़ी। इसलिए उनकी वाणी में बल था और उनका आशीर्वाद फलीभूत हुआ, जिससे मैं सुखी हुआ। उसके मुंह से बारबार यह बात निकलती थी।

एक दिन एक मित्र ने पूछा, ‘तुम्हारे पिता में इतना बल था, तो वह स्वयं संपन्न क्यों नहीं हुए? सुखी क्यों नहीं हुए?’ धर्मपाल ने कहा, ‘मैं पिता की ताकत की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उनके आशीर्वाद की ताकत की बात कर रहा हूँ।’ इस प्रकार वह बार-बार अपने पिता के आशीर्वाद की बात करता, तो लोगों ने उसका नाम ही रख दिया ‘बाप का आशीर्वाद’! धर्मपाल को इससे बुरा नहीं लगता। वह कहता कि मैं अपने पिता के आशीर्वाद के काबिल निकलूं, यही चाहता हूँ। ऐसा करते हुए कई साल बीत गए। वह विदेशों में व्यापार करने लगा। जहाँ भी व्यापार करता, उससे बहुत लाभ होता। एक बार उसके मन में आया कि मुझे लाभ ही लाभ होता है। तो मैं एक बार नुकसान का अनुभव करूं।

उसने अपने एक मित्र से पूछा कि ऐसा व्यापार बताओ, जिसमें मुझे नुकसान हो। मित्र को लगा कि इसको अपनी सफलता का और पैसों का घमंड आ गया है। इसका घमंड दूर करने के लिए इसको ऐसा धंधा बताऊं कि इसको नुकसान ही नुकसान हो। उसने उसको बताया कि तुम भारत में लौंग खरीदो और जहाज में भरकर अफ्रीका के जंजीबार में जाकर बेचो। धर्मपाल को यह बात ठीक लगी।

क्योंकि जंजीबार तो लौंग का देश है। वहाँ से लौंग भारत में लाते हैं और यहाँ 10-12 गुणा भाव पर बेचते हैं। भारत में खरीद करके जंजीबार में बेचें तो साफ नुकसान सामने दिख रहा है। परंतु धर्मपाल ने तय किया कि मैं भारत में लौंग खरीद कर, जंजीबार खुद लेकर जाऊंगा। देखूं कि पिता का आशीर्वाद कितना साथ देता है। नुकसान का अनुभव लेने के लिए उसने भारत में लौंग खरीदे और जहाज में भरकर खुद उनके साथ जंजीबार द्वीप पहुंचा। जंजीबार में सुल्तान का राज्य था। वहाँ के व्यापारियों से मिलने के लिए धर्मपाल जहाज से उतरकर लंबे रेतीले रास्ते पर जा रहा था। उसे सामने से सुल्तान जैसा व्यक्ति पैदल सिपाहियों के साथ आता हुआ दिखाई दिया। उसने किसी से पूछा कि यह कौन है?

उन्होंने कहा कि यह सुल्तान हैं। सुल्तान ने उसको सामने देखकर उसका परिचय पूछा। ‘मैं भारत के गुजरात के खंभात का व्यापारी हूँ और यहाँ पर व्यापार करने आया हूँ।’ धर्मपाल ने सहज भाव से जवाब दिया। सुल्तान ने उसको व्यापारी जानकर उसका आदर किया और उससे बात करने लगा। धर्मपाल ने देखा कि सुल्तान के साथ सैकड़ों सिपाही हैं, परंतु उनके हाथ में तलवार, बंदूक आदि कुछ भी न होकर बड़ी-बड़ी छलनियाँ है! उसको आश्चर्य हुआ। उसने विनम्रतापूर्वक सुल्तान से पूछा, ‘आपके सैनिक इतनी छलनी लेकर क्यों जा रहे हैं?’ सुल्तान ने हंसकर कहा, ‘बात यह है कि आज सवेरे मैं समुद्र तट पर घूमने आया था।

तब मेरी उंगली में से एक अंगूठी यहाँ कहीं निकलकर गिर गई। अब रेत में अंगूठी कहाँ गिरी, पता नहीं। इसलिए मैं इन सैनिकों को साथ लेकर आया हूँ। यह रेत छानकर मेरी अंगूठी उसमें से तलाश करेंगे।’ धर्मपाल ने कहा, ‘अंगूठी बहुत महंगी होगी!’ सुल्तान, ‘नहीं! उससे तो बहुत अधिक कीमत वाली अनगिनत अंगूठियां मेरे पास हैं, पर वह अंगूठी एक फकीर का आशीर्वाद है। मैं मानता हूँ कि मेरी सल्तनत इतनी मजबूत और सुखी उस फकीर के आशीर्वाद से ही है। इसलिए मेरे मन में उस अंगूठी का मूल्य सल्तनत से भी ज्यादा है।

’ इतना कहकर सुल्तान ने फिर पूछा, ‘बोलो सेठ! आप क्या माल लेकर आए हो?’ धर्मपाल ने कहा, ‘लौंग!’ सुल्तान के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, ‘यह तो लौंग का ही देश है सेठ, यहाँ लौंग बेचने आये हो! किसने आपको ऐसी सलाह दी? जरूर वह कोई आपका दुश्मन होगा! यहाँ तो एक पैसे में मुट्ठी भर लौंग मिलते हैं। यहाँ लौंग कौन खरीदेगा? और तुम क्या कमाओगे?’ धर्मपाल ने कहा, ‘मुझे यही देखना है कि यहाँ भी मुनाफा होता है या नहीं। मेरे पिता के आशीर्वाद से आज तक मैंने जो धंधा किया, उसमें मुनाफा ही मुनाफा हुआ। तो अब मैं देखना चाहता हूँ कि उनका आशीर्वाद यहाँ भी फलता है या नहीं।

‘पिता का आशीर्वाद! इसका क्या मतलब?’ धर्मपाल ने कहा, ‘मेरे पिता सारा जीवन ईमानदारी और प्रमाणिकता से काम करते रहे, परंतु धन नहीं कमा सके। उन्होंने मरते समय मुझे भगवान का नाम लेकर मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया था कि तेरे हाथ में धूल भी सोना बन जाएगी।’ ऐसा बोलते-बोलते धर्मपाल नीचे झुका और जमीन की रेत से एक मुट्ठी भरी और सम्राट सुल्तान के सामने मुट्ठी खोलकर उंगलियों के बीच में से रेत नीचे गिराई, तो धर्मपाल और सुल्तान दोनों के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा। उसके हाथ में एक हीरे-जड़ित अंगूठी थी। यह वही सुल्तान की गुम हुई अंगूठी थी।

अंगूठी देखकर सुल्तान बहुत प्रसन्न हो गया और बोला, ‘वाह खुदा! आपकी करामात का पार नहीं! आप पिता के आशीर्वाद को सच करते हो।’ धर्मपाल ने कहा, ‘फकीर के आशीर्वाद को भी वही परमात्मा सच करता है।’ सुल्तान और खुश हुआ। धर्मपाल को गले लगाया और कहा, ‘मांग सेठ! आज तू जो मांगेगा मैं दूंगा।’ धर्मपाल ने कहा, ‘आप 100 वर्ष तक जीवित रहो और प्रजा का अच्छी तरह से पालन करो। प्रजा सुखी रहे। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए।’ सुल्तान और अधिक प्रसन्न हो गया। उसने कहा, ‘सेठ! तुम्हारा सारा माल मैं आज खरीदता हूँ और तुम्हें मुंह मांगी कीमत दूंगा।’

शिक्षा:

इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि माता-पिता व अपने पूज्य गुरु की सेवा का फल निश्चित रूप से मिलता है। आशीर्वाद जैसी और कोई संपत्ति नहीं। बालक के मन को जानने वाली मां और भविष्य को संवारने वाले पिता और इसके अतिरिक्त इन्सानियत व रूहानियत को समझाने वाले सच्चे गुरु जी दुनिया के महान ज्योतिषी हैं इसलिए अपने बुजुर्गों व गुरुजनों का हमेशा सम्मान करें।