Martyr's Day

…हम पागल ही अच्छे हैं शहीदी दिवस (23 मार्च) विशेष Martyr’s Day
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव का नाम आदरपूर्वक लिया जाता है जो अंतिम सांस तक आजादी के लिए अंग्रेजों से टक्कर लेते रहे। भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को लायलपुर (पाकिस्तान) में हुआ। इनके पिता का नाम स. किशन सिंह और माता का नाम विद्यावति था।

राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को गांव खेड़ा, पुणे (महाराष्टÑ) में हुआ। इनके पिता का नाम हरि नारायण व माता का नाम पार्वती बाई था। इनका पूरा नाम शिवचरण हरि राजगुरु था। सुखदेव जी का जन्म 25 मई 1907 को लायलपुर (पाकिस्तान) में हुआ। इनके पिता का नाम युत्त रामलाल था, व माता का नाम रल्ली देवी था।

ये तीनों अद्भुत क्रांतिकारी विचारधारा के अनुयायी थे।

तीनों नौजवान भारत सभा के सक्रिय सदस्य तथा हिन्दुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन आर्मी के अनोखे वीर थे। तीनों की मित्रता इसलिए भी सुदृढ़ और मजबूत थी क्योंकि उनकी विचारधारा एक थी। तीनों ही साथियों ने साइमन कमीशन का जम कर विरोध किया। पुलिस की बर्बरता से लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उपरान्त 17 नवम्बर, 1928 को उनका देहांत हो गया। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और उनके साथियों ने लाला जी की मौत का बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रशेखर आजाद और राजगुरु ने साथ मिलकर एक महीने बाद ही यानि उस पुलिस अधीक्षक सांडर्स को 17 दिसम्बर, 1928 को गोली से उड़ा दिया।

इस घटना के तुरन्त बाद भगत सिंह भेष बदल कर कोलकाता के लिए प्रस्थान कर गए। वहीं रहते हुए भगत सिंह ने बम बनाने की विधि सीखी। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का यह दृढ़ विश्वास था कि पराधीन भारत की बेड़ियां अहिंसा की नीतियों से नहीं काटी जा सकतीं। इसी कारण भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को सैंट्रल असेम्बली के अंदर बम धमाका किया।  23 मार्च, 1931 के दिन भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव को लाहौर सैंट्रल जेल में फांसी के तख्ते पर झुलाया गया, तो पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। फांसी के तख्ते पर चढ़ कर प्रथम तो तीनों ने फांसी के फंदे को चूमा और फिर अपने ही हाथों से उस फंदे को सहर्ष गले में डाल लिया। यह देखकर जेल के वार्डन ने कहा था, ‘‘इन युवकों के दिमाग बिगड़े हुए हैं, ये पागल हैं!’’ तब सुखदेव ने उसे यह गीत सुनाया।

‘‘इन बिगड़े दिमागों में घनी खुशबू के लच्छे हैं।
हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।’’

बम काण्ड पर सेशन कोर्ट में भगत सिंह का एक पत्र

हमारे ऊपर गम्भीर आरोप लगाये गये हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम भी अपनी सफाई में कुछ शब्द कहें। हमारे कथित अपराध के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं-

(1) क्या वास्तव में असेम्बली में बम फेंके गये थे? यदि हां तो क्यों?

(2) निचली अदालत में हमारे ऊपर जो आरोप लगाये गये हैं,

वे सही हैं या गलत? पहले प्रश्न के पहले भाग के लिए हमारा उत्तर स्वीकारात्मक है, लेकिन तथाकथित चश्मदीद गवाहों ने इस मामले में जो गवाही दी है, वह सरासर झूठ है। चूंकि हम बम फेंकने से इनकार नहीं कर रहे हैं, इसलिए यहां इन गवाहों के ब्यानों की सच्चाई की परख भी हो जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, हम यहां बता देना चाहते हैं कि सार्जेण्ट टेरी का यह कहना है कि उन्होंने हममें से एक के पास से पिस्तौल बरामद की। यह एक सफेद झूठ है, क्योंकि जब हमने अपने आपको पुलिस के हाथों में सौंपा, तो हममें से किसी के पास कोई पिस्तौल नहीं थी। जिन गवाहों ने कहा है कि उन्होंने हमें बम फेंकते देखा था, वे भी झूठ बोलते हैं। न्याय तथा निष्कपट व्यवहार को सर्वोपरि मानने वाले लोगों को इन झूठी बातों से सबक लेना चाहिए। साथ ही हम सरकारी वकील के उचित व्यवहार तथा अदालत के अभी तक के न्यायसंगत रवैये को भी स्वीकार करते हैं।

पहले प्रश्न के दूसरे हिस्से का उत्तर देने के लिए हमें इस बमकाण्ड जैसी ऐतिहासिक घटना के कुछ विस्तार में जाना पड़ेगा। हमने वह काम किस अभिप्राय से तथा किन परिस्थितियों के चलते किया, इसकी पूरी एवं खुली सफाई आवश्यक है। जेल में हमारे पास कुछ पुलिस अधिकारी आये थे। उन्होंने हमें बताया कि लार्ड इर्विन ने इस घटना के बाद ही असेम्बली के दोनों सदनों के सम्मिलित अधिवेशन में कहा है कि ‘यह विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं, वरना सम्पूर्ण शासन-व्यवस्था के विरुद्ध है।’ यह सुनकर हमने तुरन्त भांप लिया कि लोगों ने हमारे इस काम के उद्देश्य को सही तौर पर समझ लिया है।

एक ऐतिहासिक सबक:-

इसके बाद हमने इस कार्य का दण्ड भोगने के लिए अपने-आपको जान-बूझकर पुलिस के हाथों समर्पित कर दिया। हम साम्राज्यवादी शोषकों को यह बता देना चाहते थे कि मुट्ठीभर आदमियों को मारकर किसी आदर्श को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही दो नगण्य व्यक्तियों को कुचलकर राष्टÑ को दबाया जा सकता है। हम इतिहास के इस सबक पर जोर देना चाहते थे कि परिचय-चिन्ह तथा बास्तीय जेल (फ्रांस की कुख्यात जेल, जहां राजनीतिक बन्दियों को घोर यंत्रणाएं दी जाती थीं) फ्रांस के क्रान्तिकारी आन्दोलन को कुचलने में समर्थ नहीं हुए थे। फांसी के फन्दे और साइबेरिया की खानें रूसी क्रान्ति की आग को बुझा नहीं पायी थीं।

तो फिर, क्या अध्यादेश और सेफ्टी बिल्स भारत में आजादी की लौ को बुझा सकेंगे? षड्यंत्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षड्यंत्रों द्वारा नौजवानों को सजा देकर या एक महान् आदर्श के स्वप्न से प्रेरित नवयुवकों को जेलों में ठूंसकर क्या क्रान्ति का अभियान रोका जा सकता है? हां, सामयिक चेतावनी से, बशर्ते कि उसकी उपेक्षा न की जाये, लोगों की जानें बचायी जा सकती हैं और व्यर्थ की मुसीबतों से उनकी रक्षा की जा सकती है। आगाही देने का यह भार अपने ऊपर लेकर हमने अपना कर्त्तव्य पूरा किया है। इन्कलाब जिन्दाबाद! (6 जून, 1929) -भगत सिंह

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